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क्या मंदी का कड़वा स्वाद फिर चखेगा भारत?

बेशक, साल 2013 और साल 1991 की स्थितियों में कोई समानता नहीं हैं। भारत ने 1991 में सबसे पहले आर्थिक मंदी के कड़वे स्वाद को चखा था। अब देश के सामने एक बार फिर यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या हम दोबारा आर्थिक मंदी की चपेट में हैं? बाजार विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की माने तो देश की हालत काफी खराब है। वहीं, सरकार की ओर से लगातार बयान आ रहे हैं कि भारत में 1991 जैसी स्थिति पैदा नहीं होगी।

By Edited By: Updated: Mon, 30 Mar 2015 06:40 PM (IST)
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नई दिल्ली। बेशक, साल 2013 और साल 1991 की स्थितियों में कोई समानता नहीं हैं। भारत ने 1991 में सबसे पहले आर्थिक मंदी के कड़वे स्वाद को चखा था। अब देश के सामने एक बार फिर यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या हम दोबारा आर्थिक मंदी की चपेट में हैं? बाजार विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की माने तो देश की हालत काफी खराब है। वहीं, सरकार की ओर से लगातार बयान आ रहे हैं कि भारत में 1991 जैसी स्थिति पैदा नहीं होगी। विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने कहा है कि आर्थिक स्थिति भले ही ठीक न हो लेकिन इन परिस्थितियों की तुलना 1991 से करना सही नहीं होगा।

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इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। उस वक्त हमारे पास केवल 14 दिनों तक विदेशी भुगतान करने के लिए पैसा था। आज हमारे पास 278 अरब डॉलर रिजर्व में हैं, जिससे करीब 7 माह तक आयात बिल का भुगतान किया जा सकता है। लेकिन 2013 का माहौल 1991 से कहीं ज्यादा खराब दिखाई दे रहा है।

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1991 में हमारे देश के पास धन की कमी थी। काफी छोटे मध्यम दर्जे के परिवार थे जिनके पास खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। आज देश में चार गुना ज्यादा अमीर जनसंख्या है, जिसके पास खोने को बहुत कुछ है। आज लोगों को होम लोन के लिए, कार लोन के लिए ईएमआई का भुगतान करना है, कई इलेक्ट्रॉनिक साधन रोजमर्रा की जरूरत हैं। ये सभी चीजें संकट के घेरे में आ चुकी हैं।

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बाजार विशेषज्ञों का कहना है कि 1991 में आम आदमी को इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था कि हमारे पास विदेशी धन कितना है, लेकिन आज फर्क पड़ता है। लाखों लोग उपभोग की दुनिया में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। वह दुकानों और मॉल में जाकर समान खरीदते हैं, खाना खाते हैं, कार या बाइक खरीदते हैं, मोबाइल फोन, कंप्यूटर, एसी, फ्रिज का इस्तेमाल करते हैं। अभी तक आमदनी में भी इजाफा हो रहा था लेकिन अब उस पर भी आघात होने लगा है। ऐसी कई परिस्थितियां हैं जो ये बताती हैं कि जिससे पता चलता है कि 2013, 1991 के मुकाबले देश की अर्थव्यवस्था ज्यादा गर्त में है।

पहले तो 1991 में दुनिया आर्थिक मंदी की चपेट में नहीं थी। दुनिया भर में पर्याप्त डॉलर मौजूद था जोकि भारत में निवेश के लिए काफी था। आज वैश्विक स्तर पर सभी की हालत खस्ता है। हमें खुद ही इस भंवर से बाहर निकलना होगा।

दूसरी बात, साल 1991 में राजीव गांधी की अचानक हुई मृत्यु के बाद कांग्रेस ने चुनिंदा सांसदों के सहयोग से चुनाव जीत लिया था। आज केंद्र में सरकार कमजोर पड़ी है, आर्थिक फैसलों को अमल में लाने के लिए दो-दो हाथ करने पड़ते हैं।

तीसरा कारण, 1991 में आई देश की पहली आर्थिक मंदी के समय आर्थिक नीतियों को निर्धारण करने और उसे लागू करने के लिए नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ही थे। इस वक्त अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए एक साथ इतने लोग लगे हुए हैं कि किसी को समझ नहीं आ रहा कि कौन क्या कर रहा है। बस, सरकार और विपक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगाने का काम कर रहे हैं।

चौथी कहानी, 1991 में राजनीति ढांचा बिल्कुल अलग था, राज्यों से ज्यादा ताकत केंद्र के पास थी। इस बार आर्थिक मुद्दों पर राज्यों का बोलबाला ज्यादा है। आज चाहे एफडीआई हो या जीएसटी या फिर खाद्य सुरक्षा का मामला। कोई भी फैसला राज्य सरकार के बिना नहीं लिया जा सकता।

अंतिम बात, आर्थिक कारणों, परिस्थितियों एवं नीतियों को छोड़ दीजिए। मानवीय स्वभाव में भी बदलाव आया है। लोग सकारात्मक खबरों से ज्यादा नकारात्मक खबरों पर अपनी प्रतिक्रिया ज्यादा तेजी से देते हैं।