तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी द्वारा बैंक राष्ट्रीयकरण की घोषणा के बाद कैसे बदला बैंकिंग परिदृश्य और क्या हैं आज की आवश्यकताएं
19 जुलाई 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा बैंक राष्ट्रीयकरण की घोषणा के बाद सामाजिक तथा आर्थिक विकास की दिशा में तेजी से विस्तार हुआ। इस घटना के बाद कैसे बदला बैंकिंग परिदृश्य और क्या हैं आज की आवश्यकताएं अल्पना कटेजा का विश्लेषण...
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Sun, 17 Jul 2022 08:53 AM (IST)
अल्पना कटेजा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब आठ नवंबर, 2016 को नोटबंदी की घोषणा की थी तो रात के आठ बजे थे। प्रधानमंत्री मोदी की इस घोषणा के करीब 47 साल पहले भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक बेहद महत्वपूर्ण घोषणा की थी, तब भी रात के साढे़ आठ बजे थे। दोनों घोषणाएं अर्थव्यवस्था से जुड़ी हैं। इंदिरा गांधी ने 19 जुलाई, 1969 को एक अध्यादेश जारी कर उन 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की थी, जिनके पास 50 करोड़ रुपए से अधिक जमाराशि थी। इस फैसले के राजनीतिक और आर्थिक दोनों कारण थे। ये वो समय था जब देश दो युद्ध झेल चुका था। सूखे की स्थिति से कृषि भी प्रभावित थी।
राजनीति में इंदिरा गांधी के सामने उनकी ही पार्टी के पुराने नेता चुनौती पेश कर रहे थे। इंदिरा गांधी को खुद को मजबूत करना था। अपनी इस राजनीति में उनको वामपंथी दलों का साथ चाहिए था। इंदिरा गांधी ने इन परिस्थितियों के मद्देनजर यह घोषणा की। उस वक्त राष्ट्रपति चुनाव होना था और कांग्रेस पार्टी में नाम पर एकराय नहीं बन पा रही थी। इंदिरा गांधी के उम्मीदवार को कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का समर्थन नहीं मिल रहा था। ऐसे में 16 जुलाई, 1969 की दोपहर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उपप्रधानमंत्री और वित्त मंत्री मोरारजी देसाई से वित्त मंत्रालय का काम अपने पास ले लिया और बैकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी।
बढ़ गई बैंक तक पहुंच
बैंकों के राष्ट्रीयकरण को लेकर मामला शीर्ष अदालत में पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने अध्यादेश निरस्त कर दिया। फिर सरकार ने कानून बनाकर इसको लागू कर दिया। इस घोषणा के बाद भारतीय स्टेट बैंक और उसके सात सहायक बैंकों सहित सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संख्या 22 हो गई थी। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के नियंत्रण में उस समय की कुल बैंक शाखाओं का 82 प्रतिशत, कुल जमा राशियों का 83 प्रतिशत और कुल बैंक ऋण का 84 प्रतिशत था। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद विस्तार की नीति अपनाई गई और बैंकरहित ग्रामीण और अर्धशहरी क्षेत्रों में सुविधाओं का तेजी से विस्तार किया गया। इसे बैंकिंग सुधार के लिए आवश्यक और समावेशी कदम माना गया था। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद के दो दशकों में बैंकों के ग्रामीण क्षेत्रों में फैलाव की दृष्टि से उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल हुई। जून 1969 में जहां देश में 65,000 लोगों के बीच एक बैंक शाखा थी, वही जून 1980 में प्रति 17,000 व्यक्ति एक बैंक शाखा थी। 1990 में देश के कुल बैंकिंग कारोबार का 90 प्रतिशत हिस्सा सरकारी क्षेत्र के बैंकों के पास था। मार्च 1992 में देश में सरकारी क्षेत्र के बैंकों की 60,646 शाखाएं काम करने लगी थीं। 1991 में सकल घरेलू उत्पाद में बैंक जमा राशि का हिस्सा 38 प्रतिशत हो गया, जो 1969 में मात्र 13 प्रतिशत था।
राष्ट्रीयकरण का दूसरा पहलू
धीरे-धीरे बैंकिंग में प्रबंधकीय नियंत्रण में कमी, बढ़ते कर्मचारियों के बोझ, संदिग्ध ऋणों के बढ़ते अनुपात, ट्रेड यूनियनों के बढ़ते दखल, अकुशल सूचना व्यवस्था संबंधी समस्याएं उत्पन्न होने लगीं। जिन वादों के साथ राष्ट्रीयकरण किया गया था, वे ढहने लगे। आर्थिक असमानता और निर्धनता की समस्याएं लगातार बढ़ती गईं और वित्तीय समावेशन के मामले में भी राष्ट्रीयकृत बैंक अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रहे थे। यह महसूस होने लगा कि देश की वित्तीय प्रणाली की कार्यकुशलता को केवल मात्रात्मक वृद्धि से नहीं मापा जा सकता बल्कि देश की बैंकिंग प्रणाली को वैश्विक स्तर पर लाने के लिए कई गुणात्मक सुधार आवश्यक हैं जिन्हें नियंत्रित माहौल में लागू नहीं किया जा सकता था।
प्रतिस्पर्धा का परिदृश्य1991 के बाद तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य एवं देश में वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण की नीतियां अपनाने के कारण अब भारतीय बैंकों को देश के अंदर और विदेशों में भी प्रतिस्पर्धा करनी थी। इसके लिए बैंकिंग प्रणाली में उन्नत तकनीक अपनाने के साथ कार्मिकों में कार्य संस्कृति को चुस्त-दुरुस्त करने की आवश्यकता थी। 1991 में देश में व्यापक स्तर पर आर्थिक सुधार हुए। निजी बैंकों को भी देश में कारोबार करने की अनुमति मिल गई। उस समय सरकारी नियंत्रण वाले 27 में से 26 बैंक लाभ कमा रहे थे। आर्थिक सुधार लागू करने के पश्चात पहले ही वर्ष (1992-93) में इन बैंकों के मुनाफे में भारी कमी दर्ज हुई और 12 राष्ट्रीयकृत बैंकों को घाटा हुआ व सात बैंकों को मामूली लाभ हुआ।
कार्यदक्षता बढ़ाने की कमेटीबैंकिंग सुधारों के क्षेत्र में एक बुनियादी दस्तावेज है नरसिम्हम कमेटी की रिपोर्ट। वित्तीय प्रणाली की संरचना, संगठन एवं कार्यप्रणाली में उत्पादकता और कार्यकुशलता बढ़ाने के उद्देश्य से अगस्त 1991 में नौ सदस्यीय कमेटी गठित की गई, जिसके अध्यक्ष थे एम. नरसिम्हम, जो 1977 में रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे। बैंकों के विलयन एवं अधिग्रहण, निजी बैंकों के पुनरोदय एवं परिसंपत्तियों की पुनर्रचना जैसे साहसिक निर्णयों का श्रेय उन्हें ही जाता है। नरसिम्हम कमेटी रिपोर्ट को भारत में बैंकिंग विकास की विभाजक रेखा माना जा सकता है। इस रिपोर्ट ने विलयन एवं अधिग्रहण के रास्ते से राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या घटाने, निजी बैंकों के प्रवेश से प्रतिस्पर्धा बढ़ाने, ब्याज दरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने एवं बैंकों की स्वायत्तता बढ़ाने जैसे सुस्पष्ट उपाय सुझाए एवं बैंकिंग विकास में 1969 के राष्ट्रीयकरण के बाद की नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन किए। सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों की कार्यदक्षता एवं लाभ बढ़ाने के लिए नरसिम्हम कमेटी द्वारा सुझाए गए उपायों को लागू करते हुए चरणबद्ध तरीके से वैधानिक तरलता अनुपात, नकद रिजर्व अनुपात में कमी लाई गई, जमा धन एवं ऋणों पर ब्याज दर को नियंत्रण मुक्त किया व सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों की संख्या घटाई गई, जो आज सिर्फ 12 रह गई है।