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आर्थिक मंदी से देश को उबारने में बैंकों की अहम भूमिका, एक्सपर्ट व्यू

आर्थिक विकास में बैंकों का व्यापक योगदान एक बार फिर सामने आया है। परंतु भारत में बैंकों में पांच लाख रुपये तक की जमा राशि ही सरकार द्वारा गारंटीड होती है इससे अधिक रकम का सुरक्षा कवच नहीं है।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Mon, 17 Oct 2022 02:29 PM (IST)
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देश की आर्थिक वृद्धि जारी रहेगी। फाइल फोटो
प्रो. लल्लन प्रसाद। कोविड महामारी के दुष्प्रभाव से बाहर निकलती अर्थव्यवस्थाओं को रूस-यूक्रेन युद्ध ने फिर से दबोच लिया है, जिससे पूरा विश्व मंदी की ओर जा रहा है। ऊर्जा की कीमतों में उछाल, रिकार्ड तोड़ महंगाई, सख्त मौद्रिक नीति, रूस पर लगाए गए प्रतिबंध, आपूर्ति शृंखला में बाधा, खाद्यान्नों और खाद्य पदार्थों एवं रासायनिक खाद की बढ़ती कीमतों के कारण विश्व बाजार में अनिश्चितता व अस्थिरता का परिवेश कायम है। विदेश व्यापार में गिरावट आ रही है।

विश्व के अनेक देशों की जीडीपी में गिरावट आ रही है। परंतु भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी तुलनात्मक रूप से मजबूत स्थिति में है। वैसे भारत में बैंकिंग सिस्टम में कुछ और सामयिक सुधार किए जाएं तो देश की आर्थिकी को अधिक मजबूत बनाया जा सकता है। विश्व व्यापार संगठन के अनुसार वैश्विक व्यापार का विकास दर 2020 के 5.6 प्रतिशत से घट कर 2022 में 3.5 प्रतिशत रहने की उम्मीद है, वर्ष 2023 में यह मात्र एक प्रतिशत हो सकता है।

दुनिया मंदी के संकट का कर रही सामना

वर्ल्ड इकोनामिक आउटलुक की इस वर्ष के आरंभ में आई एक रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक उत्पादन की वृद्धि दर 2021 में जो 5.9 प्रतिशत थी, वह 2022 में 4.4 प्रतिशत और 2023 में 3.8 प्रतिशत पर सिमट सकती है। इन वर्षों में विकसित देशों के उत्पादन विकास का अनुमान क्रमशः 5 प्रतिशत, 3.9 प्रतिशत एवं 2.6 प्रतिशत, चीन का विकास दर 8.1 प्रतिशत से गिरकर 4.8 प्रतिशत और 5.2 प्रतिशत, जबकि भारत का विकास दर 9 प्रतिशत, 9 प्रतिशत एवं 7.1 प्रतिशत संभावित है। किंतु पिछले नौ माह में रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण स्थिति बदल गई है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के ताजा आकलन के अनुसार वैश्विक जीडीपी के 2022 में 3.2 प्रतिशत और 2023 में 2.7 प्रतिशत रहने की उम्मीद है जो और नीचे दो प्रतिशत पर भी जा सकती है। भारत का विकास दर जो 2022 के लिए पहले 7.4 प्रतिशत अनुमानित था, जो 6.8 प्रतिशत पर आ सकता है, वर्ष 2023 में यह 6.1 प्रतिशत तक रहने का अनुमान है। विकास दर में कुछ गिरावट के बावजूद भारत विश्व की सबसे तेज विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था रहेगी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अर्थशास्त्री पियरे ओलिवर गोरीचेस ने भारत को एक चमकती रोशनी की तरह उभरता देश बताया है, जबकि दुनिया मंदी के आसन्न संकट का सामना कर रही है।

भारत में खुदरा महंगाई दर

वैश्विक मुद्रास्फीति चिंता का कारण बनी हुई है। खाद्यान्नों और खाद्य पदार्थों की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है, गेहूं की कीमतों में 165 प्रतिशत तक का उछाल आया। खाद्य तेलों, सब्जियों और फर्टिलाइजर की कीमतों में भी भारी वृद्धि है। सप्लाई चेन में बाधा जो यूक्रेन में युद्ध के कारण शुरू हुई अभी भी दूर नहीं हुई है जिसका दुष्प्रभाव अधिकांश वस्तुओं की कीमतों पर पड़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार विश्व भर में वर्ष 2021 में कीमतें 4.4 प्रतिशत बढ़ी, 2022 में 8.8 प्रतिशत अनुमानित है, वर्ष 2023 में इसमें कुछ कमी आ सकती है और कीमतों का स्तर 6.5 प्रतिशत पर पहुंच सकता है। अमेरिका में महंगाई ने 40 वर्षों का रिकार्ड तोड़ दिया है। भारत में खुदरा महंगाई की दर पिछले एक वर्ष में औसतन 7.41 प्रतिशत बढ़ी है जो रिजर्व बैंक के सुरक्षित दर छह प्रतिशत से, पिछले नौ महीने से लगातार बढ़ रही है। अगस्त में औद्योगिक उत्पादन विकास दर 0.8 प्रतिशत पर आ गया, खनन और निर्माण उद्योग सबसे अधिक प्रभावित हुए। महंगाई पर नियंत्रण के लिए रिजर्व बैंक ने मई 2022 से अब तक 190 बेसिक प्वाइंट रेपो रेट में वृद्धि की है। दिसंबर में और 50 बेसिक प्वाइंट की वृद्धि का आशंका जताई जा रही है। रेपो रेट में बढ़ोतरी कर्ज को महंगा कर देता है, मुद्रास्फीति में कमी लाता है।

महंगाई फिर भी नियंत्रण में नहीं आ रही है, इसके मुख्य कारण हैं कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों मे भारी वृद्धि और देश में अनाज के उत्पादन में मौसम की अनियमितता के कारण कुछ कमी। भारत का निर्यात रिकार्ड स्तर पर पहुंचने के बावजूद आयात में अधिक वृद्धि के कारण व्यापार घाटे में भी वृद्धि हुई। डालर के मुकाबले विश्व की अधिकांश मुद्राएं नीचे जा रही हैं, जिसमें भारतीय रुपया भी शामिल है। इसका एक प्रमुख कारण है अमेरिकी फेडरल रिजर्व की सख्त मुद्रा नीति। ब्याज दर में निरंतर वृद्धि कर अमेरिका निवेशकों को दूसरे देशों से खींच रहा है जो स्टाक एक्सचेंजों में भारी गिरावट का कारण भी बन रही हैं। ऐसी ही नीति अधिकांश विकसित देश अपना रहे हैं, जिसका खामियाजा गरीब और उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है। कुछ देश तो आर्थिक दृष्टि से दिवालिया हो चुके हैं, अधिकांश देशों का आयात का बिल बढ़ा है, विदेशी मुद्रा का भंडार तेजी से गिरा है, मुद्रा की कीमत में भारी गिरावट आई है। वित्त मंत्री सीतारमण ने हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मीटिंग में ठीक ही कहा है कि गरीब और विकासशील देशों की यह स्थिति विकसित देशों की अर्थ और मुद्रा नीति के कारण हुई है।

बैंकों पर दुष्प्रभाव

मंदी की स्थिति बैंकों के कारोबार को दुष्प्रभावित करती है। वर्ष 1930 और 2008 की विश्वव्यापी मंदी इसका प्रमाण है, जब कई अंतरराष्ट्रीय बैंक दिवालिया हो गए थे, विश्व की वित्त व्यवस्था चरमरा गई थी। वर्षों तक विश्व की जीडीपी प्रभावित रही, उत्पादन में कमी आई, वस्तुओं की मांग में भारी कमी के कारण अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रभावित हुआ। इस वर्ष अर्थ विज्ञान में नोबेल पुरस्कार पाने वाले तीन अर्थशास्त्रियों- बेन वर्नान्के, डग्लस डायमंड और फिलिप्स दिबविज ने अर्थव्यवस्था में बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका, मंदी की स्थिति में उन्हें डूबने से बचाने की आवश्यकता और उपाय सुझाए हैं। वर्ष 1980 से जो शोध उन्होंने किए उनके परिणाम अनुकरणीय हैं।

वित्त व्यवस्था में बैंक लोगों द्वारा जमा बचत को उत्पादन एवं घरेलू आवश्यकताओं के लिए कर्ज देकर निवेश करते हैं। तीव्र मंदी की स्थिति में अफवाहों के कारण लोगों को बैंकों के डूबने की आशंका होने लगती है, अपनी जमा राशि निकालने के लिए बैंकों में भीड़ लग जाती है। बैंकों के पास इतना नकद नहीं होता कि सभी बचत खाता धारकों की समग्र रकम का तुरंत भुगतान कर सकें, क्योंकि जिन उद्योगों और आम कर्जदारों को कर्ज दिया जाता है उसके भुगतान की समय सीमा होती है, उससे पहले कर्ज वापस लेना संभव नहीं होता। बैंक कर्ज देते समय कर्ज लेने वाले की वापस करने की क्षमता की जांच करते हैं, किंतु समय से पहले उन्हें कर्ज वापस देने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। बचत खाता धारकों को तुरंत भुगतान की असमर्थता बैंकों को संकट की स्थिति में डाल देती है। ऐसी स्थिति न आए इसके लिए शोधकर्ता अर्थशास्त्रियों ने सरकार द्वारा डिपाजिट इंश्योरेंस का सुझाव दिया है।

[पूर्व विभागाध्यक्ष, बिजनेस इकोनमिक्स विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय]