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तंत्र के गण: नक्सलियों के गढ़ में कॉफी की महक से बस्तर के आदिवासियों की जिंदगी हो रही तरोताजा

बस्तर में लाल आतंक के गनतंत्र को पीछे छोड़ गण और तंत्र का मेल देखने को मिल रहा है। यहां किसान काॅफी से समृद्धि की कहानी लिख रहे हैं। चार वर्ष बाद जब फसल फलने लगेगी तो किसानों को 50 हजार रुपये प्रति एकड़ की आय होगी।

By Jagran NewsEdited By: Yogesh SahuUpdated: Sat, 21 Jan 2023 01:36 PM (IST)
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दरभा घाटी में काफी के पौधों से फल संग्रहित करते स्थानीय आदिवासी महिलाएं व पुरुष।

अनिमेष पाल, जगदलपुर। नक्सलवाद के नाम से बदनाम छत्तीसगढ़ के बस्तर में बम-बंदूक और बारूद की गंध के बीच अब कॉफी की सौंधी सुंगध बिखर रही है। इसने बस्तर के गरीब आदिवासी किसानों की जिंदगी को बदलकर समृद्धि के रास्ते खोल दिए हैं। परियोजना की शुरुआत में ही इससे जुड़े किसान परिवारों को 40 से 50 हजार रुपये की वार्षिक आय शुरू हो चुकी है, तीन वर्ष बाद जब कॉफी के पौधों में फल आने शुरू होंगे तो अगले 40 से 50 वर्ष तक न्यूनतम 50 हजार रुपये प्रति एकड़ की दर से आय होने लगेगी। गण और तंत्र के मेल से की जा रही कॉफी की इस सामूहिक खेती में बस्तर के आदिवासियों के उज्ज्वल भविष्य के संकेत दिख रहे हैं।

बस्तर जिले के दरभा में 2017 में 20 एकड़ में प्रायोगिक कॉफी की फसल लगाई गई थी। उद्यानिकी महाविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डॉ. केपी सिंह की निगरानी में कॉफी को बस्तर की आबोहवा ने अपनाकर जीवित रहने और फलने-फूलने का वरदान दिया। इससे शुरुआत हुई बस्तर कॉफी की। इसे बढ़ावा देने के लिए अब छत्तीसगढ़ सरकार आदिवासियों के साथ मिलकर कॉफी की सामूहिक खेती को विस्तार दे रही है। कॉफी की पैदावार इसे लगाए जाने के तीन से चार वर्ष बाद शुरू होती है। इसलिए प्रशासन ने कॉफी परियोजना को मनरेगा से जोड़कर तैयार किया है। इससे कॉफी की सामूहिक खेती कर रहे 90 आदिवासी किसानों के आर्थिक सशक्तिकरण के रास्ते भी खुल गए हैं। 98 किसानों के साथ अब कोड़ेनार में भी खेती की योजना तैयार की जा रही है।

बंजर जमीन चार वर्ष बाद देगी दस लाख वार्षिक आय

डिलमिली के आदिवासी किसान जलनुराम बघेल व बलीराम बघेल के वन अधिकार पट्टे की 20 एकड़ की बंजर पड़ी जमीन पर कॉफी के पौधे लगाए हैं। एक वर्ष से वे अपने ही खेत में काम कर रहे हैं और उन्हें इसके लिए मनरेगा दर पर वार्षिक आधार पर 200 दिन के रोजगार का भुगतान प्रशासन की ओर से मिल रहा है। चार वर्ष बाद उनकी जमीन पर लगाए हुए कॉफी के पौधों में फल आने शुरू होंगे। उन्हें तब प्रति एकड़ करीब 50 हजार रुपये की दर से वार्षिक आधार पर दस लाख रुपये की आय मिलनी शुरू हो जाएगी।

पीढ़ियों ने कभी नहीं चखी कॉफी, अब खुद कर रही तैयार

दरभा के कॉफी प्रोसेसिंग प्लांट में काम कर रही धुरवा जनजाति की सोनादई नाग बताती हैं, उनकी पीढ़ियों में कभी किसी ने कॉफी का नाम न सुना न कभी देखा था। प्रशासन ने जब यहां कॉफी के पौधे लगाए गए तो समूह के माध्यम से परियोजना में जुड़ गईं। प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग लेने के बाद अब कॉफी तोड़ने से लेकर तैयार करने तक की पूरी प्रक्रिया वे संभाल रही हैं। मनरेगा दर पर प्रतिमाह 5000 रुपये मिलते हैं। अब जबकि कॉफी की खेती शुरू हो रही है, तो प्रोसेसिंग के बाद लाभांश भी कुछ वर्षों में मिलने लगेगा।

बस्तर की मृदा व वातावरण शोध में कॉफी उत्पादन के लिए उपुयक्त पाई गई है। इसे बढ़ावा देने के लिए परियोजना से जुड़े प्रत्येक किसान परिवार को तीस से चालीस हजार का रोजगार मनरेगा से दे रहे हैं। तीन साल बाद जब कॉफी के फल आएंगे तो 30 से 50 हजार रुपये प्रति एकड़ आदमनी शुरू हो जाएगी। उत्पादन से लेकर मार्केटिंग तक की योजना तैयार की गई है। बस्तर कॉफी नाम से उत्पाद लोगों को उपलब्ध करा रहे हैं। जगदलपुर के बाद अब रायपुर व दिल्ली में भी इसके आउटलेट खोलेंगे। ऐसे अंतरराष्ट्रीय ब्रांड जो क्षेत्र विशेष के आधार पर कॉफी तैयार करते हैं, उनको भी जोड़ने की योजना है। इससे किसानों को तय बाजार मिल सकेगा। -चंदन कुमार, बस्तर कलेक्टर

कॉफी उत्पादन के लिए 100 वर्ष की योजना तैयार की है। काफिया अरेबिका व काफिया रोबोस्टा के पौधे लगाए गए हैं, जो 40 से 60 वर्ष तक फल देते हैं। कॉफी को छायादार जगह चाहिए होती है। इसलिए कॉफी के अतिरिक्त महुआ, इमली, आम, कटहल, सिल्वर ओक के पौधे भी रोपे जा रहे हैं। इससे भी अतिरिक्त आमदनी होगी। पौधे बड़े होंगे तो काली मिर्च की भी खेती इस भूमि पर की जाएगी। योजना में सम्मिलित अधिकतर किसान मुरिया, गोंड, धुरवा जनजाति के हैं। हमारी ओर से तकनीकी मार्गदर्शन दिया जा रहा है। राज्य सरकार ने इसी योजना को देखकार 2022 में टी एंड कॉफी बोर्ड का गठन किया है। -डा. केपी सिंह, कृषि वैज्ञानिक, प्रमुख अन्वेषणकर्ता, बस्तर कॉफी परियोजना

सुरक्षा बल के प्रयास से कमजोर पड़ा नक्सलवाद

बस्तर के दरभा, बास्तानार और कोड़ेनार के पहाड़ी क्षेत्र में कॉफी की खेती की जा रही है। वहां, दशक भर पहले तक नक्सलवाद के पदचापों की आवाज गहरी हो रही थी। दरभा घाटी से लगी हुई झीरम घाटी में 2013 में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में देश के सबसे बड़े राजनीतिक हत्याकांड को अंजाम देकर नक्सलियों ने इस क्षेत्र में अपनी मजबूत होती पकड़ का संकेत दिया था।

इसके बाद सुरक्षा बलों के प्रयासों ने इस क्षेत्र में नक्सलियों के बढ़ते कदमों में बेड़ियां लगाने का काम किया। क्षेत्र में शांति आने के बाद अब प्रशासन ने नक्सलियों के गढ़ बनते जा रहे इन पहाड़ों पर बसने वाले आदिवासी किसानों के लिए रोजगार के विकल्प खोल दिए हैं। गरीबी और नक्सलवाद से जूझते रहे दरभा, बास्तानार व कोड़ेनार के 198 किसान अब तक इस परियोजना से जुड़ चुके हैं। ये सभी बस्तर के मूलनिवासी गोंड, मुरिया और धुरवा जनजाति के किसान हैं।

अब सीसीडी स्टारबक्स की राह पर चलने की तैयारी

बस्तर में की जा रही कॉफी की खेती पूरी तरह से आर्गेनिक है। सीसीडी और स्टारबक्स की तरह अब बस्तर कैफे के आउटलेट दुनियाभर में खोले जाने की योजना पर प्रशासन काम कर रहा है। बस्तर कॉफी का प्रोडक्शन किसानों के द्वारा, प्रोसेसिंग स्व सहायता समूह की महिलाओं के द्वारा और मार्केटिंग बस्तर कैफे के द्वारा किया जा रहा है। इससे किसानों को उत्पाद का सही दाम मिलेगा। बिचौलियों से किसान बचेंगे और स्व सहायता समूह की महिलाओं को आर्थिक लाभ मिलेगा। परियोजना से 2017 से लेकर अब तक 60 लाख रुपए का रोजगार दिया जा चुका है।

बस्तर कॉफी की यात्रा आंकड़ों में

  • 2017 में 20 एकड़ में लगाई गई कॉफी
  • 2021-22 में 9 क्विंटल उत्पादन
  • 15 क्विंटल कॉफी उत्पादन फरवरी 2023 तक
  • 2021 में पहली परियोजना में 100 एकड़ जमीन पर डिलमिली में 34 किसानों के एक समूह से शुरू हुई
  • 2022 में दूसरी परियोजना में कांदानार पंचायत के उरुकपाल में 24 किसान 100 एकड़ में कर रहे खेती
  • 2023 में तीसरी परियोजना में मुंडागढ़ की पहाड़ियों पर दुर्लभ किस्म की कॉफी उगाई जा रही
  • 98 किसान की 500 एकड़ जमीन पर अब कोड़ेनार में खेती की योजना तैयार