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बिन फेरे हम तेरे..

यमुना खादर में लैंडफिल साइट का मुद्दा नदी की ऐसी धारा हो गया है, जिसमें हर कोई हाथ धा

By JagranEdited By: Updated: Sun, 06 May 2018 09:43 PM (IST)
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बिन फेरे हम तेरे..

यमुना खादर में लैंडफिल साइट का मुद्दा नदी की ऐसी धारा हो गया है, जिसमें हर कोई हाथ धो लेना चाहता है। इस मुद्दे को स्थानीय विधायक ने उठाया था मगर बाद में इस पर सभी पार्टियां राजनीतिक रोटियां सेंकने लगीं। सभी दल दिल्लीवासियों के हितैषी बनकर मैदान में उतर आए हैं। विधायक ने एनजीटी में याचिका लगाई तो एक राजनीतिक दल के लोग भी पहुंच गए। इनकी याचिका पर तवज्जो नहीं दी गई तो पत्रकार वार्ता बुलाने लगे। बोलने के लिए कुछ और नहीं मिला तो लैंडफिल साइट के प्रस्ताव को भाजपा व स्थानीय सांसद की साजिश ही बता गए। जो विधायक लगातार उक्त मामला उठा रहे हैं उन पर भी भाजपा संग नूराकुश्ती करने का आरोप लगाने लगे। चलिए, बहती गंगा में हाथ धोने की भी सोची तो स्वयं को सही साबित करने के लिए कम से कम दूसरों को गलत तो न ठहराएं। यह तो वही बात हो गई कि बिन फेरे हम तेरे..।

------------ सरकार मस्त, अधिकारी व्यस्त, अभिभावक त्रस्त

सरकार शिक्षा व्यवस्था में सुधार का दावा करते नहीं थकती जबकि निजी स्कूल इनके काबू में आते नहीं दिखते हैं। सरकार आदेश जारी करते रह जाती है, अधिकारी सर्कुलर निकालते रह जाते हैं और निजी स्कूल संचालक इस सबसे बेखबर करते वही हैं, जो वे चाहते हैं। अब देखिए, सरकार कह रही है कि निजी स्कूलों की फीस नहीं बढ़ने दी जाएगी, अधिकारी भी स्कूलों के नाम आदेश दे रहे हैं, लेकिन स्कूल तब भी बढ़ी हुई फीस ले रहे हैं। अभिभावक परेशान हैं और फीस भरने पर मजबूर हैं। किंतु सरकार अपने ही खोल में मस्त है, अधिकारी न जाने कौन सी बैठकों में व्यस्त हैं जबकि अभिभावक जैसे तैसे फीस का जुगाड़ करने में पस्त हो रहे हैं।

------------- चौक की चाय और सलामी का चस्का

दिल्ली विश्वविद्यालय में दो चीजों के लिए जबरदस्त आश्वासन चलता है। एक दाखिला और दूसरा नियुक्ति। दोनों का अपना सीजन है। नियुक्तियों की सुगबुगाहट होते ही कुछ लोगों के यहां जमघट लगने लगता है। नेता जी के आसन से भरपूर आश्वासन चल रहा है। नियुक्तियों पर अभी राहु की महादशा चलने के कारण डीयू के बाबाओं का ध्यान दाखिला पर केंद्रित है। 35 पार बाबा से गार्ड ने पूछा आप कहां पढ़ते हैं? पिछले 10 सालों से आर्ट फैकल्टी के बाहर ही देखता हूं। कोई काम नहीं करते हैं। उन्होंने गार्ड के कंधे पर हाथ रखा और बोला भाई, बिना कमाए तो रोलैक्स की घड़ी, सोने का चेन और ये सफेद वाली गाड़ी नहीं है। वो क्या है कि कई साल लॉ में फेल हुआ फिर किसी तरह पास हुआ। चौक की चाय और सलामी का चस्का ऐसा लगा कि यहीं कचहरी लगाता हूं। आप मुझे सर्दियों में नहीं देखते होंगे। क्योंकि गर्मी में कमाकर सर्दियों में हिल स्टेशन जाता हूं। दाखिला का टाइम है इसलिए ध्यान देना पड़ता है।

------------ न माया मिली न राम

दिल्ली में इन दिनों सरकार और नौकरशाही के बीच तनातनी चल रही है। विवाद की शुरुआत में ही सरकार के शुभचिंतकों ने सरकार में बैठे लोगों को सुझाव दिया था कि विवाद बढ़ने से पहले इस मुद्दे को समाप्त कर दिया जाए। यदि माफी भी मांगनी पड़े तो मांग लें और इस मुद्दे का निपटान करें। मगर, सत्ता में बैठे लोग नहीं मानें। उन्हें उम्मीद थी कि अधिकारी दो चार दिन हो हल्ला मचाकर शांत हो जाएंगे, मगर आंदोलन जारी है। अब सरकार के नेता शुभचिंतक से कहते सुने गए कि यह तो उल्टा पड़ गया। न ही इधर के रहे और न ही उधर के।

---------- अपनों ने ही हरा दिया

राजनीति में भी कैसे-कैसे खेल होते हैं, जरूरत पड़ने पर अपने को किसी चुनाव में हराने के लिए दूसरे को जिताना पड़ता है। दिल्ली में हुए एक चुनाव में उस दल का प्रत्याशी ही चुनाव हार गया जिस दल के पास पूर्ण बहुमत था। सत्ता के गलियारे में चर्चा है कि इन्हें अपने लोगों ने ही हरा दिया। दरअसल ये नेताजी पार्टी की ओर से एक साल के लिए एक पद पर नियुक्त किए गए थे। पार्टी इन्हें हटाना चाहती थी, मगर ये हटने को तैयार नहीं थे। इन्होंने एक बयान भी दे दिया था कि यदि पार्टी की ओर से पद पर आसीन लोगों को हटाया जाएगा तो उनका मनोबल गिरेगा। इससे पार्टी नाराज हो गई। उन्हें एक पद तो मिला ही नहीं जबकि दूसरे पद के लिए हुए चुनाव में भी ये नेताजी हार गए और दूसरे दल के नेताजी बहुमत न होते हुए भी मतदान में जीत गए।

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