गरीबों व अनाथों को इफ्तार में करें शामिल
इस्लाम में रमजान के महीने में रोजा रखा जाता है। रोजा को अरबी भाषा में 'सोम' कहा जाता है। इसका अर्थ
इस्लाम में रमजान के महीने में रोजा रखा जाता है। रोजा को अरबी भाषा में 'सोम' कहा जाता है। इसका अर्थ है 'रुकना'। इस्लामी शरीयत में इसका अर्थ है कि प्रात: से सायं तक तथा खाने-पीने एवं शारीरिक संबंध बनाने से खुद को रोकना। रोजा अच्छे गुणों का मौसम है और इसका उद्देश्य स्वयं को बंदिश में रखना है। बीमारी या यात्रा में रोजा न रखें तो गरीबों को खाना खिलाना आवश्यक है। रोजे में छूट केवल उन लोगों के लिए है, जो बीमार हों। रोजा शरीर में जमा हुए हानिकारक तत्वों को समाप्त कर देता है। रोजा इबादत के साथ अच्छाई लाता है, जिससे समाज को उन्नति मिलती है। रोजे से स्मरण शक्ति अच्छी होती है। इससे कैंसर के रोग को समाप्त भी किया जा सकता है। रमजान खत्म होने के बाद शरीर शक्तिशाली व स्वस्थ बन जाता है। रमजान का यह पूरा महीना गुनाहों से तौबा, हमदर्दी, इंसानियत, भाईचारा व समानता को प्रदर्शित करता है। रोजेदार इससे दूसरों की बुराई, जुल्म, दूसरे के अधिकारों का उल्लंघन व फसाद करने से बचता है। हर धर्म में अलग-अलग नाम से रोजा मौजूद है। जैन धर्म में 40 दिन का कठिन उपवास है तो पारसियों में भी पुराने समय में कभी-कभी रोजा रखा जाता था। चीन के धर्म में भी रोजों का विचार मिलता है। जापान में भी रोजों का विचारात्मक साहित्य है और कोरिया में भी रोजे का रिवाज है। रमजान के ताल्लुक से गरीबों, अनाथ की मदद जकात (दान) से होती है। निर्धन व अनाथों को इफ्तार में बुलाया जाता है।
रोजादारों की इबादत और तिलावत पर सलाम।