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देश की आन के लिए नई नवेली दुल्हन को छोड़ सरहद पर हुए शहीद

कारगिल के पुंछ सेक्टर में 27 सितंबर 2001 को बदन सिंह दुश्मनों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। परिवार को उनकी पर कर गर्व होता है।

By Edited By: Updated: Wed, 01 Aug 2018 04:10 PM (IST)
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देश की आन के लिए नई नवेली दुल्हन को छोड़ सरहद पर हुए शहीद

पलवल (सुरेंद्र चौहान)। बात देश की आजादी की हो या फिर उसके बाद दुश्मन देशों से हुए युद्धों की। मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वाले शहीदों के बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। होडल उपमंडल के गांव मित्रोल के बदन सिंह का नाम आते ही आंखें अपने आप नम हो जाती हैं, लेकिन सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है।

गांव के इस रणबांकुरे ने हंसते-हंसते देश के लिए अपनी जान न्यौछावर कर दी थी। महज 21 साल के इस जांबाज को जब अपनी रेजीमेंट की तरफ से आदेश मिला तो वह नई नवेली दुल्हन को छोड़कर रणभूमि में पहुंच गया। उन्होंने कारगिल के पुंछ सेक्टर में आतंकियों से लोहा लेते हुए मातृभूमि की रक्षा के लिए शहादत दे दी।

हर साल गांव के शहीद बदन सिंह राजकीय पाठशाला में इस रणबांकुरे का शहीदी दिवस मनाया जाता है। समारोह में केवल मित्रोल ही नहीं पाल से जुड़े औरंगाबाद, गोपालगढ़, भंवारी, श्रीनगर जैसे गावों की पंचायतें हिस्सा लेती हैं। बदन सिंह का जन्म 6 मई 1980 को गांव मित्रोल के एक किसान परिवार में हुआ था। मार्च 1998 में गांव के ही एक निजी स्कूल से उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा पास की।

बदन सिंह के चाचा बिजेंद्र सिंह भी सेना में थे। उन्हें देखकर बदन सिंह भी फौज में जाने के लिए प्रेरित हुए। 9 जनवरी 1999 को वह जाट रेजीमेंट की यूनिट-7 में भर्ती हुए। ट्रेनिंग पूरी करने के बाद जम्मू-कश्मीर में उनकी पहली पोस्टिंग हुई। 26 फरवरी 2000 को उनका विवाह सुनीता से हुआ। विवाह के बाद वह दोबारा छुट्टी पर आए ही थे कि कारगिल में पाकिस्तानी सेना के घुसपैठ की खबर आ गई।

सीमा पर तनाव बढ़ चुका था और दोनों देशों की तरफ से युद्ध की पूरी तैयारी हो चुकी थी। बदन सिंह को रेजीमेंट में तुरंत रिपोर्ट करने का आदेश मिला। आदेश मिलते ही बदल सिंह अपनी छुट्टियां बाकी होने के बावजूद नई नवेली दुल्हन को छोड़ तिरंगे की आन बरकरार रखने के लिए तुरंत रवाना हो गए। किसी सिपाही के युद्ध पर जाने से पहले उसके परिवार का क्या हाल होता है, इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। ऐसे में बदन सिंह ने परिवार को समझाया कि देश की आन उनके प्राणों से ज्यादा कीमती है।

बदन सिंह के वापस लौटते ही सीमा पर भयंकर युद्ध छिड़ चुका था। कारगिल के पुंछ सेक्टर स्थित मैडर घाटी में 27 सितंबर 2001 को दुश्मनों के दात खट्टे करते समय सेना का यह बहादुर सिपाही वीरगति को प्राप्त हुआ।

सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है
बदन सिंह के दादा रामजीलाल व पिता भागीरथ कहते हैं कि भरी जवानी में अपने लाडले के बिछड़ने का दुख तो है, लेकिन जब वे उसकी शहादत को याद करते हैं तो सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हर जन्म में भगवान उन्हें बदन सिंह जैसा पुत्र दे। उनसे प्रेरणा लेकर छोटा भाई रोहताश भी सेना में भर्ती होकर देश की सेवा कर रहा है।

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