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यूं ही नहीं मिली आजादी, सैंकड़ों वीरों ने दी थी कुर्बानी, हर कदम पर महिलाओं ने दिया साथ

देश आजादी के 71 बसंत देख चुका है। लेकिन तब सन् 47 की लड़ाई में आजादी के लिए युवाओं ने खुदको मिटाकर कैसे देश का गौरव जीता था।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Sat, 04 Aug 2018 03:13 PM (IST)
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यूं ही नहीं मिली आजादी, सैंकड़ों वीरों ने दी थी कुर्बानी, हर कदम पर महिलाओं ने दिया साथ
नई दिल्ली [संजीव कुमार मिश्र]। पानी के बुलबुले नहीं हम...रग-रग में आजादी बहती है...बहुत ताकत है बाजुओं में...लड़-जाएंगे, भिड़ जाएंगे...कदम न पीछे खिसकाएंगे...कफन चले हैं लेकर, आजादी की चाहत के साथ...हर किसी ने भरी हुंकार...देश का गौरव बढ़ाएंगे, देश को स्वाधीन बनाएंगे...इसी जोश-जुनून के साथ हर युवा, हर नारी...घरों में बैठीं महिलाएं सब के दिल-दिमाग में देश को स्वाधीन बनाने की युक्तियां ही पकती थीं...। अब तो देश आजादी के 71 बसंत देख चुका है। लेकिन तब सन् 47 की लड़ाई में आजादी के लिए युवाओं ने खुद को मिटाकर कैसे देश का गौरव जीता था सबरंग के इस अंक में उन्हीं किस्सों से रूबरू कराएंगे :

ये आजादी हमें यूं ही नहीं मिल गई थी, इसके लिए सैंकड़ों वीरों ने कुर्बानी दी थी। सिर पर कफन बांधे युवाओं की टोलियां होती थीं...तो महिलाओं के कदम भी कहीं पीछे नहीं डिगते थे। कितने आजादी के वीरों ने सीने पर हंसते-हंसते गोलियां खाईं थीं। कई रातें फाकाकशी में गुजारीं थीं तो कईयों ने अपनों को घर समेत खोया था। इतनी कुर्बानियों और बलिदानों की आहुति के बाद तब जाकर आजादी की लौ जली थी जो आज 71 बरस बाद भी निरंतर जल रही है। आजादी के इस आंदोलन में देश के हर कोने से लोगों ने शिरकत की थी। दिल्ली ने खूब बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। युवा, बुजुर्ग, महिलाएं सभी महात्मा गांधी की एक आवाज पर जेल जाने को तैयार थे।

दिल्ली के कॉलेजों में जहां छात्रों ने आंदोलनों को धार दी जाती थी वहीं महिलाएं, गृहणियां चारदीवारी के भीतर ही भीतर आजादी के ऐसे आंदोलन रच देती थीं कि कई बार अंग्रेज भी गच्चा खा जाते थे। हाथों में तिरंगा लिए एक तरफ से बेखौफ महिलाओं का समूह चांदनी चौक और कश्मीरी गेट से निकला था तो दूसरी तरफ थियेटर के जरिए क्रांतिकारियों के लिए सहयोग राशि जुटाई जाती थी। अंग्रेज अधिकारियों के मुंह पर भारत माता की जय बोल अपनी देशभक्ति प्रदर्शित करने वाले युवाओं का अदम्य उत्साह दिखाई पड़ता था।

हॉस्टल से निकाला :

दिल्ली अभिलेखागार विभाग में मौजूद दस्तावेजों के मुताबिक आजादी की लड़ाई 29 अगस्त, 1942 को हिंदू कॉलेज ने एक नोटिस निकाला। जिसमें कहा गया कि द्वितीय वर्ष के तीन छात्र आरके सोनी, केसी जैन और पीएन सूद ने राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लिया है। इसलिए इन छात्रों को 24 घंटे के अंदर हॉस्टल खाली करना होगा, ऐसा नहीं करने पर उन्हें कॉलेज से निकालने की भी धमकी दी गई।

सांडर्स की हत्या और चेतावनी :

30 अक्टूबर, 1928 को साइमन कमीशन भारत आया। पूरे देश में 'साइमन कमीशन वापस जाओ' के नारे लगे। इस विरोध की अगुवाई पंजाबी शेर 'लाला लाजपत राय' कर रहे थे, लेकिन पुलिस की लाठियों से जख्मी लाजपत राय ने 17 नवंबर, 1928 को दम तोड़ दिया। एक माह बाद 17 दिसंबर, 1928 का दिन स्कॉट की हत्या के लिए निर्धारित किया गया। लेकिन निशाने में थोड़ी सी चूक हो गई और स्कॉट की जगह असिस्टेंट सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन पी सांडर्स निशाना बन गए। सांडर्स जब लाहौर के पुलिस हेडक्वार्टर से निकल रहे थे, तभी भगत सिंह और राजगुरु ने उन पर गोली चला दी। सांडर्स की मौत के बाद दिल्ली की गलियों में जगह-जगह पोस्टर लगाए गए। जिसमें लिखा था, 'ब्यूरोक्रेसी बी अवेयर'। 30 करोड़ भारतीयों के सम्मानित नेता लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लिया गया। आज दुनिया ने यह देख लिया कि भारतीयों का खून ठंडा नहीं है। पोस्टर में हुकूमत को भारतीयों पर जुल्मों सितम बंद करने की भी चेतावनी दी गई।

स्वतंत्र भारत चिरंजीवी हो :

देहली विद्यार्थी संघ (दिल्ली स्टूडेंट फेडरेशन) ने कमर्शियल कॉलेज हॉस्टल, 4 दरियागंज से एक पंपलेट जारी किया, जिसे पूरी दिल्ली में चस्पा किया गया था। इसमें लिखा गया था कि स्वतंत्र भारत चिरंजीवी हो। यह भी दिलचस्प है कि यह पोस्टर आजादी के पहले ही जारी कर दिया गया था। इसमें कहा गया कि संगठन का मकसद राष्ट्रीय जंग के लिए सैनिक तैयार करना, राष्ट्रीय जन आंदोलनों को विद्यार्थियों से जोड़कर उसे मजबूत बनाना समेत कई अन्य मसलों पर छात्रों की आवाज मुखर करना था। इतना ही नहीं, सन् 1938 में होने वाले छात्र सम्मेलन को सफल करने के लिए छात्रों को संगठन से जुडऩे की अपील भी इस पंपलेट में की गई थी।

छात्रों से सहमे अंग्रेज :

दिल्ली के एमबी स्कूल के नौवीं कक्षा के छात्रों ने अंग्रेजों के विरोध में एवं राष्ट्रीय आंदोलनों के समर्थन का ऐसा तरीका निकाला कि अंग्रेजों के हाथ पांव फूल गए। दरअसल, छात्रों ने शर्ट के बटन पर भगत सिंह की तस्वीर लगा ली। जिसे देखकर सब हैरान रह गए। अंग्रेज तो छात्रों के ऐसा करने पर इस कदर परेशान हुए कि सीआइडी के सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस ने 5 नवंबर, 1930 को स्कूल प्रशासन को पत्र लिखा और छात्रों को ऐसा न करने की सख्त हिदायत तक दे डाली। साथ ही हेडमास्टर और सेकेंड मास्टर को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया।

थियेटर की भूमिका :

10 नवंबर, 1938 को दिल्ली स्टूडेंट फेडरेशन ने एक पोस्टर चिपकाया था, जिसमें उसने लिखा कि आजादी की लड़ाई में सिर्फ भारी भरकम धन राशि ही मदद नहीं कर सकती, इसलिए आंदोलन में सहयोग के लिए एक थियेटर का आयोजन किया जा रहा है। साथ ही यह भी लिखा कि छात्रों द्वारा आयोजित नाटक में एक रुपये का टिकट लेकर भी प्रवेश मिलेगा। यह राशि बतौर सहायता राशि आंदोलनकारियों को दी जाएगी। टिकट 1, 2, 3, 5 और 10 रुपये की थी।

आधी आबादी का पूरा योगदान :

अरुणा आसफ अली ने स्मारिका शताब्दी पत्रिका (1885-1985) में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने दिल्ली की उन महिलाओं का जिक्र किया है, जिन्होंने आजादी के आंदोलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। उन्होंने लिखा है कि सन् 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी ने संभाला। उस समय तक पुरुषों की ओर से महिलाओं को घरों से बाहर की गतिविधियों में भाग लेने की इजाजत नहीं मिलती थी। तथापि गांधी के 'सिविल नाफरमानी' आंदोलन ने स्त्री-पुरुषों को प्रभावित किया और बड़ी संख्या में महिलाओं ने आंदोलन में भाग लिया। सन् 1931-32 सिविल नाफरमानी, 1941-44 के आंदोलनों में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। सत्यवती देवी दिल्ली की अग्रणी महिला नेता थीं। उनके भाषणों से प्रेरित होकर कई महिलाओं ने एवं मैं स्वयं अपने सुरक्षित एवं आरामदेह गृह जीवन को त्याग कर बाहर निकली हूं। सत्यवती को बाद में क्षय रोग हो गया और सन् 1945 में महज 41 साल की कम उम्र में उन्होंने दम तोड़ दिया।

बाल विधवा ने थामी कमान :

अरुणा आसफ अली लिखती हैं कि सत्यवती के व्यक्तित्व से कॉलेजों की छात्राएं, गृहणियां प्रेरित हुईं। विशेषकर ङ्क्षहदू कॉलेज, इंद्रप्रस्थ गर्ल हाईस्कूल की छात्राएं। इन कॉलेज छात्राओं ने ऐसी गृहणियों का दल भी गठित किया, जिन्होंने कभी धरना-प्रदर्शन में भाग भी नहीं लिया था। इन गृहणियों में प्रमुख थीं मेमोबाई। जो दिल्ली के अत्यंत ही रूढि़वादी परिवार की बाल विधवा थीं। जब इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया तो अनपढ़ थीं लेकिन यहां इन्हें लिखना पढऩा भी सिखाया गया। सत्यवती के प्रयासों से दिल्ली की सरस्वती गाडोदिया, पार्वती डिडवानिया, दमयंती साहनी, चांदबीबी और चांद कोहली जैसी महिलाएं आंदोलन की सक्रिय सदस्य बनीं।

इंद्रप्रस्थ की सहायता बंद :

लड़कियों के इंद्रप्रस्थ स्कूल और कॉलेज ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने इंद्रप्रस्थ स्कूल को मिलने वाली सरकारी सहायता बंद करने की धमकी तक दे डाली थी। किंतु लोगों ने ना केवल सरकार के इस कदम की निंदा की, बल्कि जनता के बीच जाकर उनसे स्कूल की मदद करने की गुहार भी लगाई। नतीजा, चंदे के रूप में काफी धनराशि एकत्रित हुई थी।

शाहदरा में नमक सत्याग्रह :

आसफ अली ने लिखा है कि नमक सत्याग्रह के समय शाहदरा के पास एक दलदली स्थान पर जमीन के नीचे खारा पानी था। यहां नमक बनाने का फैसला लिया गया। कानून तोड़ नमक बनाते वक्त वहां करीब 50 लोग रहते थे। हम लोगों ने दस तीन तक वहां जाकर नमक बनाया। नमक तैयार कर उसे मुफ्त में लोगों में बांट देते थे। इससे तिलमिलायी पुलिस हम पर आसूं गैस के गोले छोडऩे और लाठीचार्ज करने पर आमद हो गई थी।

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