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पढ़ें- रूह कंपा देने वाली मर्डर मिस्ट्री का सच, जिसने करोड़ों लोगों के उड़ाए थे होश

29 अगस्त, 1978 को दोनों की हत्या की बात सामने आई तो निर्भया की तरह पूरा देश उबल पड़ा, दरअसल गीता चोपड़ा के साथ दुष्कर्म भी किया गया था।

By JP YadavEdited By: Updated: Wed, 29 Aug 2018 06:47 PM (IST)
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पढ़ें- रूह कंपा देने वाली मर्डर मिस्ट्री का सच, जिसने करोड़ों लोगों के उड़ाए थे होश
नई दिल्ली (जागरण स्पेशल)। चार दशक पहले 26 अगस्त, 1978 का दिन हिंदुस्तान कभी नहीं भुला पाएगा, जब दिल्ली की होनहार लड़की गीता और प्रतिभाशाली लड़के संजय चोपड़ा को दो बदमाशों रंगा-बिल्ला ने मौत की नींद सुला दिया था। दोनों रिश्ते में भाई-बहन थे।

उस दिन दोनों ने ऑल इंडिया रेडियो (AIR) जाने के लिए बदमाश रंगा और बिल्ला से लिफ्ट मांगी थी। लिफ्ट देने के बाद दोनों बदमाशों ने चलती कार में गीता और संजय चोपड़ा के साथ मारपीट की और उसी रात दोनों की हत्या कर झाड़ियों में फेंक दिया था।

29 अगस्त, 1978 को दोनों की हत्या की बात सामने आई तो निर्भया की तरह पूरा देश उबल पड़ा। दरअसल, हत्या से पहले गीता चोपड़ा के साथ दुष्कर्म भी किया गया था। मीडिया और देश की जनता के दबाव में आखिरकार पुलिस ने कड़ी मेहनत के बाद दोनों को पकड़ा और 4 साल की लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद रंगा-बिल्ला को फांसी मिली। वहीं, बाद में केंद्र सरकार बहादुर बच्चे-बच्चियों के लिए ब्रेवरी अवार्ड लाई। जिसका नाम गीता और संजय चोपड़ा के नाम पर रखा गया। यह ब्रेवरी अवॉर्ड तब से हर साल 26 जनवरी की परेड के दौरान बहादुर बच्चों को दिया जाता है।

संजय ने बहन को बचाने के लिए लगा दी थी जान की बाजी
जांच के दौरान पुलिस ने पाया कि लिफ्ट देने के बाद रंगा और बिल्ला ने लूटपाट के इरादे से दोनों का अपहरण किया था। लेकिन इस दौरान शक होने पर गीता और संजय चोपड़ा ने कार रोकने की जिद की, लेकिन रंगा-बिल्ला ने कार नहीं रोकी तो भाई-बहन दोनों से भिड़ गए। संजय उस वक्त 10वीं कक्षा का छात्र था, लेकिन 5 फुट 10 इंच की लंबाई वाला संजय अच्छा बॉक्सर भी था।

बहन के विरोध के साथ वह भी रंगा-बिल्ला से भिड़ गया। हताश बदमाशों ने दिल्ली में ही एक सुनसान स्थान में ले जाकर गीता के साथ दरिंदगी की। इस बीच बीच संजय ने जान की बाजी लगा कर अपनी बहन को बचाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन रंगा-बिल्ला ने उसे मार डाला। फिर पकड़े जाने के डर से उनहोंने गीता की भी हत्या करके शव को एक झाड़ी में फेंक दिया।

गुस्से में थी दिल्ली, हुआ था जबरदस्त प्रदर्शन
होनहार भाई-बहन संजय चोपड़ा और गीता चोपड़ा की हत्या से दिल्ली की जनता बेहद नाराज थी। उनकी नाराजगी दिल्ली पुलिस के रवैये को लेकर भी थी। समय बीतने के साथ लोगों का गुस्सा भड़कता गया। गीता चोपड़ा दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस स्थित जीसस एंड मैरी कॉलेज में कॉमर्स सेकेंड ईयर की छात्रा थी।ऐसे में छात्रों में भी जबरदस्त गुस्सा था।

उस दौर में निर्भया के प्रदर्शन जैसी स्थिति हो गई थी। देश भर में प्रदर्शन हो रहे थे। अचानक एक दिन छात्रों का हुजूम बोट क्लब पहुंच गया। गुस्साए कई छात्र तो तत्कालीन पुलिस कमिश्नर के घर तक पहुंच गए और दिल्ली पुलिस के खिलाफ नारे लगाने लगे। उधर, छात्र-छात्राओं की भीड़ बोट क्लब पर बढ़ती जा रही थी। इनमें जीसस एंड मेरी कॉलेज की छात्राओं की संख्या सर्वाधिक थी। उस दौरान छात्र संगठन भी सड़कों पर थे।

छात्रों के गुस्से का शिकार हुए थे पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी, पथराव में फूटा था सिर
बोट क्लब पर बढ़ती प्रदर्शनकारियों की भीड़ ने पुलिस प्रशासन के साथ केंद्र सरकार को भी चिंतित कर दिया था। प्रदर्शकारी छात्र-छात्राएं लगातार आरोपियों की गिरफ्तारी की मांग कर रहे थे, लेकिन पुलिस थी कि वह अंधेरे में ही तीर चला रही थी। तब तत्कालीन एक्सटर्नल अफेयर्स मिनिस्ट्री संभाल रहे केंद्रीय मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बोट क्लब पहुंचे और प्रदर्शनकारी छात्रों से बातचीत करने लगे।

इसी दौरान छात्रों का एक समूह इस कदर भड़का कि उसने पथराव शुरू कर दिया। पत्थराव के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी को भी पत्थर लगे और उनके माथे से खून निकलने लगा और देखते-देखते उनका कुर्ता खून में सन गया। बताया जाता है कि अटल बिहारी के माथे पर बाईं ओर चोट आई थी। छात्रों की इस हिंसक प्रतिक्रिया के बाद सरकार ने मामले की जांच क्राइम ब्रांच से लेकर केेंद्रीय जांच एजेंसी (सीबीआइ) को सौंप दी थी।

वारदात के बाद मुंबई फिर दिल्ली भी आया रंगा, नहीं पकड़ सकी पुलिस
शातिर अपराधी और गीता-संजय चोपड़ा के हत्यारे रंगा-बिल्ला यह मान चुके थे कि वह कभी पकड़े ही नहीं जाएंगे। यही वजह थी कि वह आराम से दिल्ली और देश के दूसरे कोनों में घूम रहे थे। दोनों में से एक अपराधी रंगा तो और भी निश्चिंत था। जहां वारदात के बाद बिल्ला दिल्ली में आराम से रह रहा था, तो वहीं रंगा मुंबई चला गया। वह वहां भी छोटी-मोटी वारदात को अंजाम दे रहा था।

इस पूरे मामले में पुलिस की लापरवाही भी सामने आई थी। जांच में खुलासा हुआ था कि 26 अगस्त, 1978 को गीता और संजय चोपड़ा की निर्मम हत्या करने के बाद रंगा बंबई (अब मुंबई) चला गया था ओर वहां भी उसने अपराध किए थे। बाद में वह दिल्ली आया अपने साथी बदमाश बिल्ला के साथ आगरा चला गया। हैरानी की बात है कि वह ट्रेन या बस के जरिये आगरा गया, लेकिन पुलिस दोनों का पकड़ नहीं सकी।

इत्तेफाक से पकड़े गए थे रंगा-बिल्ला
जनता के प्रदर्शन और राजनीतिक दबाव के बीच दिल्ली पुलिस रंगा और बिल्ला को शिकारी की तरह ढूंढ़ रही थी, लेकिन वह दोनों अपनी ही एक गलती की वजह से पुलिस के हत्थे चढ़े थे। बताया जाता है कि आगरा से लौटते समय दोनों ने ट्रेन में सैनिकों से मारपीट भी कर ली थी। इसके बाद सैनिकों ने इन्हें पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया। वारदात के 12 दिन बाद यानी 8 सितंबर 1978 को रंगा-बिल्ला पुलिस से भागने की कड़ी में आगरा से लौटने के दौरान कालका मेल में चढ़ रहे थे। उस समय रेलवे स्टेशन पर 100 से ज्यादा पुलिस वाले सादी वर्दी में खड़े थे। पुलिस को नहीं पता था कि रंगा-बिल्ला आने वाले हैं। हुआ यूं कि ये दोनों आर्मी वालों के लिए आरक्षित डिब्बे में चढ़ गए। इस बीच दो सैनिकों ने इनसे सवाल-जवाब किया तो आदत से मजबूर रंगा-बिल्ला उन पर ही रौब झाड़ने लगे। इस पर आर्मी वालों ने इनको पीटा और पुलिस के हवाले कर दिया।

मां-बाप बच्चों का नाम नहीं रखते रंगा-बिल्ला
हत्या और दरिंदगी के इस मामले से रंगा-बिल्ला नाम बदनाम हो गया। हालांकि, रंगा-बिल्ला इनका असली नाम नहीं था, बल्कि यह इन दोनों का निकनेम था। बावजूद इसके बाद कोई मां-बाप अपने बच्चों का नाम रंगा-बिल्ला रखना पसंद नहीं करता। बिल्ला मतलब जसबीर सिंह और इस मर्डर केस में उसका साथी था रंगा खुस, जिसका असली नाम था कुलजीत सिंह।

ऑल इंडिया रेडियो में प्रोग्राम देना था दोनों को
संजय व गीता के पिता मदन मोहन चोपड़ा नेवी में अधिकारी थे और मां रोमा घरेलू महिला थीं। संजय और गीता दोनों भाई-बहन बेहद प्रतिभाशाली थे। दोनों ऑल इंडिया रेडियो में युववाणी में प्रोग्राम करते थे। हादसे के दिन 26 अगस्त 1978 को उन्हें ऑल इंडिया रेडियो के लिए संसद मार्ग जाना था। दरअसल, दोनों को 7 बजे वेस्टर्न गानों के एक फरमाइशी प्रोग्राम ‘इन द ग्रूव’ में हिस्सा लेना था।

प्रोग्राम खत्म कर तकरीबन दो घंटे बाद यानी नौ बजे पिता मदन मोहन चोपड़ा के साथ दोनों को वापस लौटना था। माता-पिता दोनों संजय-गीता का 8 बजे होने वाला प्रोग्राम सुनने के लिए बेताब थे। रेडियो ऑन करने पर उन्हें ताज्जुब हुआ, क्योंकि उनका प्रोग्राम ही रद हो गया था। उनके स्थान पर दूसरा प्रोग्राम ब्रॉडकास्ट हो रहा था। बावजूद इसके पिता मदन मोहन अपने बच्चों संजय-गीता को लेने नौ बजे ऑल इंडिया रेडियो पहुंचे। वहां नहीं मिले तो घर लौटे, लेकिन दोनों वहां पर भी नहीं थे।

यूं हुआ था संजय-गीता का अपहरण
26 अगस्त 1978 को रंगा-बिल्ला नाम के दो अपराधी चोरी की कार लेकर दिल्ली की सड़कों पर घूम रहे थे। इस दौरान दोनों पेशेवर अपराधी किसी शिकार की तलाश में थे। ये महज इत्तेफाक था कि नई दिल्ली के गोल डाकखाना के पास इनकी कार गुजरने के दौरान संजय और गीता ने उनसे लिफ्ट मांगी। इस पर दोनों ने उन्हें बिठा लिया। संजय और गीता के कपड़ों और बातचीत से रंगा-बिल्ला ने भांप लिया था कि दोनों अमीर घर हैं और अपहरण करके इनके परिवार से अच्छी-खासी रकम फिरौती के रूप में हासिल की जा सकती है। इसके बाद रंगा-बिल्ला ने कार में संजय-गीता का अपहरण कर लिया।

अपहरण के बाद अचानक हो गई एक अनहोनी
रंगा-बिल्ला ने संजय-गीता का अपहरण करने के बाद यह तय कर लिया था कि इनके मां-बाप से मोटी रकम वसूलने के बाद इन्हें छोड़ देंगे। लेकिन इस दौरान उनकी कार एक बस से टकरा कर क्षतिग्रस्त हो गई।

संजय-गीता को अचानक हुआ अनहोनी का अहसास
कार हादसे के बाद रंगा-बिल्ला की शारीरिक भाषा से संजय-गीता को लग गया था कि वे इस कार में फंस गए हैं।दोनों कार को रोकने के लिए रंगा-बिल्ला से भिड़ गए। कई राहगीरों ने चारों को गुत्थम-गुत्था होते हुए देखा भी और बाद में इन्होंने गवाही भी दी।

चोरी की गाड़ी के नंबर से गफलत में रही पुलिस
मामला हाईप्रोफाइल था और एफआइआर दर्ज करते ही पुलिस कार और आरोपियों की तलाश में जुट गई। इस दौरान एक चश्मदीद सामने आए, जिनका नाम भगवान दास था। उन्होंने बताया कि दो लोग एक फिएट में बच्चों को जबरन ले जा रहे थे। नींबू के कलर की एक फिएट गोल मार्केट चौराहे पर उनके पास से गुजरी थी। उसकी पिछली सीट में संजय और गीता थे। भगवान दास ने गाड़ी का नंबर एमआरके 8930 बताया था। रंगा-बिल्ला ने कार चोरी करने के बाद उसका नंबर बदल दिया था। इससे पुलिस की उलझन बढ़ गई थी।

चोरी की कार थी हरियाणा के रविंदर गुप्ता की
पुलिस ने दबाव बढ़ता देखकर अपनी जांच का दायर बढ़ा दिया। जांच की कड़ी में उस कार और कार के मालिक को खोजने के लिए पुलिस ने ट्रांसपोर्ट विभाग की मदद भी ली। जांच के दौरान पता चला कि कार पानीपत के रहने वाले रविंदर गुप्ता की थी। पुलिस ने पानीपत पहुंचने पर पाया कि नंबर तो एचआरके 8930 था, लेकिन कार फिएट नहीं थी। हालांकि, पुलिस अब इस नतीजे पर पहुंच चुकी थी कि उस पर फर्जी नंबर प्लेट लगी थी।

आखिरकार मिल ही गई वारदात वाली कार
भारी दबाव और जांच के दौरान 31 अगस्त को कार मजलिस पार्क में मिली। कार का नंबर डीएचडी 7034 था और इस नंबर की कार चोरी हो गई थी। हैरानी की बात यह थी कि इसी मॉडल की एक और कार चोरी हुई थी और इसका नंबर डीईए 1221 था। कार के मालिक अशोक शर्मा के मुताबिक, नई दिल्ली के अशोका होटल के सामने से कार चोरी हुई थी। अशोक ने उसे चोरी के छह हफ्ते पहले ही खरीदा था। जांच में मिला कि स्टीरियो और स्पीकर गायब थे। पहली नजर में उसमें कुत्ते की चैन और कई ब्लेड्स मिलीं। दो नंबर प्लेट्स भी मिलीं जिसमें एक असली थी। कार की सफेद ग्रिल को बदल कर काला कर दिया गया था। जांच में बालों के गुच्छे और खून के धब्बे भी मिले। अनहोनी अब होनी में तब्दील हो गई थी। फिंगरप्रिंट्स और दूसरे फोरेंसिक सबूतों ने साफ तौर पर बता दिया था कि इस केस में बिल्ला का हाथ है।

29 अगस्त को शुरू हुई थी पुलिस की असली चुनौती
रंगा पहले ट्रक ड्राइवर था। हालांकि, वह बाद में मुंबई में टैक्सी चलाने लगा था। इस बीच उसे शाम सिंह नाम के आदमी ने बिल्ला से मिलवाया था। बताया जाता है कि इस मुलाकात के चंद दिनों पहले ही बिल्ला ने दो अरब नागरिकों को मारा था। क्रिमिनल माइंड का होने के चलते रंगा-बिल्ला दोनों एक साथ गैंग चलाने लगे। टैक्सी की जांच के बाद पुलिस इस नतीजे पर पहुंच चुकी थी कि संजय और गीता का अपहरण और हत्या रंगा-बिल्ला ने ही की है। इसके बाद पुलिस ने देश के कई राज्यों में रंगा-बिल्ला की खोज में टीमों को लगा दिया। आखिरकार दोनों को पकड़ लिया गया।

31 जनवरी, 1982 को रंगा-बिल्ला को दी गई फांसी
पुलिस के हत्थे चढ़े रंगा-बिल्ला को लेकर लोगों में भारी रोष था। देश का हर शख्स चाहता था कि रंगा-बिल्ला को फांसी हो। जांच में पाया गया था कि दोनों ने वारदात के दौरान कार में कई अहम सबूत छोड़े थे। सड़क पर कार दौड़ाने के दौरान कई गवाह भी मिल गए थे। गीता चोपड़ा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट से यह पता चला था कि उसके साथ दरिंदगी हुई थी। हालांकि, कानूनी प्रक्रिया में चार साल लगे और आखिरकार 31 जनवरी, 1982 को दोनों को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गई।

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