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विलुप्त होती भाषाओं को संरक्षित करेगा जेएनयू, 'रंगलवो' भाषा को बचाने के लिए प्रोजेक्ट तैयार

राणा प्रताप सिंह ने बताया कि हिमालयी घाटी में तिब्बत बॉर्डर, चीन एवं नेपाल बॉर्डर समेत उत्तराखंड के धारचूला में रंग समुदाय के लोग पाए जाते हैं और यह रंगलवो भाषा में बातचीत करते हैं।

By Amit MishraEdited By: Updated: Wed, 26 Sep 2018 06:00 AM (IST)
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विलुप्त होती भाषाओं को संरक्षित करेगा जेएनयू, 'रंगलवो' भाषा को बचाने के लिए प्रोजेक्ट तैयार
नई दिल्ली [राहुल मानव]। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) देश में विलुप्त होती भाषाओं को संरक्षित करेगा। इसके लिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन (ओएनजीसी) के साथ मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैडिंग (समझौता पत्र) पर हस्ताक्षर किए हैं। इस एमओयू के जरिये हिमालयी घाटी में रंग समुदाय की तरफ से बोली जाने वाली रंगलवो भाषा को बचाने के लिए प्रोजेक्ट तैयार किया गया है।

भाषा एवं संस्कृति विलुप्त होती जा रही है
जेएनयू के कुलपति एम. जगदीश कुमार ने बताया कि हमेशा हमारा प्रयास रहा है कि ऐसे शोध पर और प्रोजेक्ट पर काम करें, जिससे किसी समुदाय एवं संस्कृति को संरक्षित रखने में सहयोग किया जा सके। विश्वविद्यालय के रेक्टर-3 राणा प्रताप सिंह ने इस एमओए पर हस्ताक्षर किए हैं। राणा प्रताप सिंह ने बताया कि हिमालयी घाटी में तिब्बत बॉर्डर, चीन एवं नेपाल बॉर्डर समेत उत्तराखंड के धारचूला में रंग समुदाय के लोग पाए जाते हैं और यह रंगलवो भाषा में बातचीत करते हैं। इनकी भाषा एवं संस्कृति विलुप्त होती जा रही है। इसे बचाने का बेड़ा उठाया गया है।

परियोजना का मकसद
राणा प्रताप सिंह ने बताया कि कैलाश मानसरोवर जैसे पवित्र तीर्थ स्थल में जाने वाले तीर्थ यात्रियों की भेंट भी इस रंग समुदाय के लोगों से होती है। इस समुदाय के बुजुर्गों की तरफ से नई पीढ़ी में इनकी भाषाएं सही तरह से नहीं पहुंच पा रही है। इसका मुख्य कारण है कि इनकी कोई लिपि नहीं है। हम इस समुदाय के युवा पीढ़ी को बुजुर्गो की बोली को पहुंचाने में सहायता करेंगे। साथ ही भाषा के प्रति शिक्षित भी किया जाएगा। कई तरह के संसाधनों की मदद से हम इस भाषा को दस्तावेज के रूप में तैयार करेंगे, जिससे यह इस समुदाय के आने वाले पीढ़ी के लिए उपयोगी भी साबित होगी।

यह होगा फायदा
राणा प्रताप सिंह ने बताया कि रंग समुदाय की बोली एवं इनकी भाषा में अत्यधिक स्वदेशी हिमालयी भाषा शामिल है। यह समुदाय अपना पोषण, स्वास्थ्य सेवाओं जैसी तमाम देखभाल हिमालय के आसपास के पर्वतों पर मौजूद पौधों, जड़ी बूटियों पर निर्भर रहते हैं। इनकी भाषा को संरक्षित रखने से इनके पंरपरागत विचारों को भी जाना जा सकेगा। इस प्रोजेक्ट में पहले चरण में समुदाय के 120 प्रतिभागियों को शामिल किया जाएगा।

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