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'हां, मैं ही हूं मिर्जा गालिब की हवेली', यहां मशहूर शायर ने गुजारे थे 9 साल

जब शायर मिर्जा गालिब थे तो अपनी चीजों को साफ रखते थे, लेकिन यह क्या उनकी चीजों को शीशे में तो रख दिया, पर उस पर जमी धूल को साफ करना भूल गए।

By JP YadavEdited By: Updated: Thu, 27 Dec 2018 09:53 AM (IST)
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'हां, मैं ही हूं मिर्जा गालिब की हवेली', यहां मशहूर शायर ने गुजारे थे 9 साल
नई दिल्ली [किशन कुमार]। जी हां, मैं गालिब की हवेली हूं। वहीं गालिब जिसने अपने जीवन के आखिरी पल यानी 1860 से लेकर 1869 तक यहीं बिताए। कभी सुबह-शाम गालिब की शायरी से मैं खिल उठती थी। सुबह से शाम तक लोगों का यहां आना कहां बंद होता था। हवेली के कोने-कोने तक वो शायरी के लफ्ज आज भी मुझमें जिंदा हैं।

आज गालिब यहां तो नहीं, लेकिन मेरे गालिब की शायरी आज भी लोगों की जुबान पर जिंदा है। यहां आने वाला शख्स जब गालिब की शायरी को पढ़ता है तो लगता है कि मानों गालिब के उन शायरी भरे शब्दों से मेरा श्रृंगार हो रहा हो। आज मेरे उसी गालिब का जन्मदिन है, लेकिन यह क्या कभी मेरे गालिब का जन्मदिन मुझे काफी पहले ही पता चल जाता था।

रोशनी से सरोबार मेरा दीदार कर लोग जैसे ही मुझे गालिब की हवेली से पुकारते थे तो उसे सुनकर मुझे फक्र होता था, लेकिन आज मेरे गालिब का जन्मदिन है और मुझे संवारा तक नहीं गया। यहां बरामदे में मेरे घूंघट बने परदे मानों कब से धुलने के लिए कह रहे हैं, लेकिन किसी को सुध कहां।

वहीं बरामदे में लगा लैंप का शीशा कब से टूटा हुआ है। जोकि मेरी सुंदरता को बदरंग कर रहा है। जब गालिब थे तो अपनी चीजों को साफ रखते थे, लेकिन यह क्या उनकी चीजों को शीशे में तो रख दिया, पर उस पर जमी धूल को साफ करना भूल गए। पहले मेरा वजूद कितना था, लेकिन वक्त के साथ मैं अतिक्रमण का शिकार हो गई।

अब तो बस बाहर लगी नाम पट्टिका ही मुझे गालिब की हवेली होने की पहचान करा देती है। गालिब की हवेली पहले पूरी तरह से अतिक्रमण का शिकार थी। वर्तमान में हवेली को जो भाग संरक्षित है वहां भी पहले कभी हीटर का कारखाना हुआ करता था।

वर्ष 1995 में सरकार द्वारा इस हिस्से को अतिक्रमण से मुक्त किया गया था, लेकिन आज बल्लीमारन की गली कासिम जान में स्थित हवेली अतिक्रमण की शिकार है। उर्दू व फारसी भाषा के महान शायर मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 में हुआ था। उन्हें दबीर उल मुल्क व नज्म उद दौला का खिताब भी मिला था।

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