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केरोसीन-लकड़ी से खाना बनाने से हर साल देश में 2.7 लाख लोगों की जा रही जान

केरोसिन उपले और लकड़ी के जलने से प्रदूषित कण पर्टिकुलेट मैटर 2.5 का स्तर 200 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर (एमजीसीएम) तक पहुंच जाता है जोकि काफी खतरनाक है।

By JP YadavEdited By: Updated: Sat, 04 May 2019 02:16 PM (IST)
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केरोसीन-लकड़ी से खाना बनाने से हर साल देश में 2.7 लाख लोगों की जा रही जान
नई दिल्ली [राहुल मानव]। चूल्हे में खाना बनाने वाले ईंधन (केरोसिन, उपले और लकड़ी) का प्रदूषण फैलाने में 30 फीसद तक का योगदान होता है। इनके जलने से प्रदूषित कण पर्टिकुलेट मैटर 2.5 का स्तर 200 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर (एमजीसीएम) तक पहुंच जाता है, जोकि काफी खतरनाक है। लोगों को इसके इस्तेमाल से रोका जाए तो देश भर में 2.7 लाख जानें हर साल बचाई जा सकती हैं।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) दिल्ली के सेंटर फॉर एटमॉसफेयरिक साइंसेज के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. सागनिक डे के शोध में यह बाते सामने आई हैं। उनका शोध पत्र मार्च में अमेरिका के प्रोसि¨डग ऑफ नेशनल एकेडमिक्स ऑफ साइंसेज जर्नल में प्रकाशित हुआ है। यह दुनिया के प्रतिष्ठित रिसर्च जर्नल में से एक है।

डॉ. सागनिक डे ने बताया कि शोध के जरिये हम यह बात सामने लाए हैं कि भारत में पूरे साल घर में खाना बनाने के लिए जो ईंधन, गोबर के उपले, चूल्हा इस्तेमाल होता है, उससे घर के अंदर का प्रदूषण काफी बढ़ जाता है। इसका वातावरण के प्रदूषण को बढ़ाने में भी योगदान है।

दिसंबर 2018 में केंद्र सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के स्वास्थ्य शोध विभाग के अधीन आने वाली संस्था इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट के तहत वर्ष 2017 में भारत में वायु प्रदूषण से 11.5 लाख मौतें हुई थीं। इनमें से 6.7 लाख मौतें बाहर के प्रदूषण के कारण और 4.8 लाख मौतें घर के अंदर के प्रदूषण से हुई थीं।

डॉ. सागनिक कहते हैं कि केंद्र सरकार के एक विभाग की वर्ष 2017 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार देश भर के 68 फीसद लोग आज भी ईंधन के रूप में केरोसिन, गोबर के उपले और लकड़ी का इस्तेमाल खाना बनाने के लिए करते हैं। इनमें से ज्यादातर लोग ग्रामीण इलाकों से हैं। अगर हम घर के अंदर इस ईंधन को जलने से रोकें तो काफी ज्यादा लोगों की जान बचाई जा सकती है।

गौरतलब है कि पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के प्रोजेक्ट सफर के तहत पर्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 का औसत स्तर 60 माइक्रो ग्राम क्यूबीक मीटर (एमजीसीएम) है।

शोध में इन्होंने भी दिया योगदान

डॉ. सागनिक डे के साथ इस शोध में अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ और यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनियोस के डिपार्टमेंट ऑफ एटमासफेयरिक साइंसेज के साथ दिल्ली की निजी संस्था अर्बन इमिशंस व कोलेबरेटिव क्लीन एयर पॉलिसी सेंटर ने भी योगदान दिया है। आइआइटी दिल्ली के स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी ने भी इसमें सहयोग दिया है।

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