दिखावे के दौर में छली जा रही जनता
प्रियंका दुबे मेहता गुरुग्राम लोकतंत्र के महापर्व को लेकर उत्साह हर जगह नजर आ रहा है। चाहे
By JagranEdited By: Updated: Mon, 06 May 2019 06:35 AM (IST)
प्रियंका दुबे मेहता, गुरुग्राम
लोकतंत्र के महापर्व को लेकर उत्साह हर जगह नजर आ रहा है। चाहे अस्पताल हो या फिर पार्क, कॉलेज हो या फिर ऑफिस, हर जगह लोगों के बीच चर्चा का विषय बने चुनावों में कहीं वैचारिक समानता से नए दोस्ताना संबंध बन रहे हैं तो कहीं नजरिए में मतभेद से रिश्तों में तल्खी आ रही है। इसी तरह के बनते-बिगड़ते समीकरणों की झलक दिखाई दी शहर के डीपीजी कॉलेज में। वहा मौजूद विद्यार्थियों से लेकर स्टाफ तक में तकरीबन एक घटे चली चर्चा में सियासी माहौल गरम रहा। कॉलेज में एक ग्रुप शिक्षा, रोजगार और राजनीति पर बात कर रहा था। मैंने सियासी राग छेड़ा जो बहस में तब्दील हो गया। युवाओं में से किसी को मोदी का नेतृत्व चाहिए तो कोई नए लोगों को सत्ता में लाने का पक्षधर दिखा। किसी को भ्रष्टाचार खत्म होने के और पिछले पाच वषरें की प्रगति के सुबूत चाहिए थे तो कोई चुनावी चुटकुलों से ही अपने तर्क को मजबूत बनाने में लगा था। हालाकि चर्चा पूरी तरह से देशहित पर केंद्रित थी। इस सबके बीच तल्खी कहीं न कहीं वैचारिक मतभेदों से उपजे तनाव को भी दिखा रही थी। ग्रुप में बैठे छात्र अतुल ने माहौल शात करते हुए कहा कि जो भी मौजूदा सरकार के पक्ष में नहीं है, वह बस एक विकल्प बता दे। सागर ने कहा, 'बेहतर विकल्प की तलाश हमें खुद करनी होगी, हम लोकतात्रिक धरती पर हैं और यहा पर विकल्पों की तलाश से लेकर उनके चयन तक का जिम्मा कायदे से हमारा ही होता है।' ज्योति शर्मा ने बहस को आगे बढ़ाते कहा कि अभी जो बयार चल रही है उसमें नमो की गूंज है। 'इससे बेहतर विकल्प है ही नहीं, विपक्षी पार्टिया ही इनकी जीत सुनिश्चित करने में लगी हुई हैं तो जनता क्या करे।' नेहा भारद्वाज ने बात काटते हुए कहा, 'ऐसा नहीं है कि साफ छवि वाले नेता ही नहीं हैं, बेहतर लोगों का सचमुच अकाल नहीं पड़ा है। राजनीति ऐसे दौर से गुजर रही है जहा कि जनता को ही आगे आना होगा।' सभी बात को समझ रहे थे लेकिन कोई अपने फेंके हुए तर्क को वापस लेने को तैयार नहीं था। इस बीच मुस्कान शर्मा ने कहा, 'हमें तो सरकार और उसके प्रयासों में कोई कमी नजर नहीं आ रही है।' नितिन ने कहा, 'ये जो दिखावे का दौर चल रहा है उसमें भी जनता को ही छला जा रहा है।' मुस्कान ने फिर से अपनी बात रखी और पूछा, 'राजनीति में अचानक से उतरने वाले लोगों का क्या भविष्य देखते हैं? जिस पार्टी का इतिहास ही वंशवाद पर टिका है उसके हाथ में देश की बागडोर पकड़ाना सही होगा?' 'विपक्षी पार्टिया अपने भीतर बैठे सूरमाओं व मंझे हुए अनुभवी राजनेताओं को उतारें तो बदलाव आएगा। वे खुद ही बदलने को तैयार नहीं हैं तो वोटर से यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं।'
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