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जानें मशहूर लेखिका मृदुला गर्ग ने बताया- प्रयागराज और दिल्ली का साहित्यिक रिश्ता

दिल्ली एक शहर और साहित्यिक नगरी के रूप में इसी पर प्रियंका दुबे मेहता ने मृदुला गर्ग से विस्तार से बातचीत की।

By Pooja SinghEdited By: Updated: Thu, 03 Oct 2019 06:07 PM (IST)
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जानें मशहूर लेखिका मृदुला गर्ग ने बताया- प्रयागराज और दिल्ली का साहित्यिक रिश्ता

नई दिल्ली जेएनएन। बचपन में ही जब किताबों से स्नेह हो जाता है तो जवानी और बुढ़ापे की लाठी किताबें ही बनती हैं। अब लाठी कहें या दोस्त, वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग लेखन और किताबों के स्नेह में ही रहना पसंद करती हैं। दिल्ली में पली बढ़ी और पढ़ी लेखिका ने शहर की नब्ज को बेहद संजीदगी से टटोला है। धड़कनों को करीब से सुना है। शहर की उदासी और खिलखिलाहट दोनों को महसूस किया है। जो उनके लेखन और बातचीत में भी झलकता है। दिल्ली एक शहर और साहित्यिक नगरी के रूप में इसी पर प्रियंका दुबे मेहता ने मृदुला गर्ग से विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश :

अर्थशास्त्र की प्राध्यापक रही हैं, अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई की और सफलता का मुकाम हिंदी लेखन में पाया?

बचपन से मुझे पढ़ने का बहुत शौक था। घर में साहित्यिक माहौल था। सभी लोग हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में साहित्य पढ़ते थे। ऐसे में पढ़ने की आदत पड़ गई। केवल मैं ही नहीं बल्कि मेरी दोनों बहनों ने भी लेखन को ही चुना। एक बार लिखना शुरू किया तो रफ्तार से लिखा, बहुत-सी बातें दिमाग में थीं और एक बार लिखते ही वे खुद ब खुद शब्दों में ढलकर कागजों पर उतरने लगीं। बस वहीं से शुरू हो गया सतत लेखन का सफर। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई जरूर हुई, लेकिन मन के साहित्यिक कोने में हिंदी का ही आधिपत्य था।

आपके उपन्यास और कहानियां एक दौर में पत्र-पत्रिकाओं की शान हुआ करते थे। लेखन का यह सिलसिला कैसे चला?

पहली कहानी 1972 में छपी और पहला उपन्याय वर्ष 1975 में लिखा। पाठकों व आलोचकों का स्नेह देखकर हौसला बढ़ता चला गया और फिर प्रति वर्ष एक उपन्यास लिखने लगी। लेकिन कायदे से मेरा पहला लेख एक भिखारी की आत्मकथा था। कक्षा में दिए उस लेखन कार्य को मैंने किया। उसमें मेरा भिखारी एक लेखक था। उस दौर में भी शिक्षिका ने आपत्ति की और कहा कि मैंने दोनों का ही अपमान किया है। मैंने कहा कि यह दोनों का अपमान कैसे हो सकता है। अपमान या तो लेखक का या भिखारी का ही हो सकता है। उस कहानी को सराहना मिली और वह स्कूल की पत्रिका के अलावा कई जगह छपी थी।

आपके बचपन की दिल्ली कैसी थी?

मैं दिल्ली में ही पली बढ़ी हूं तो जाहिर सी बात है कि दिल्ली के प्रति एक अलग प्रकार का लगाव है। जिस दिल्ली की मैं बात कर रही हूं उसमें मैंने विभाजन का दौर भी देखा है। बंगाली मार्केट से लेकर रिफ्यूजी मार्केट तक को बनते देखा है। व्यवसाइयों की पुरानी दिल्ली और सरकारी अफसरों की नई दिल्ली के बीच के उस विभाजन को भी देखा है। पहले पुरानी दिल्ली के जिस हिस्से (बंगाली मार्केट) में हम रहते थे वह शहर कहलाता था और नई दिल्ली ग्रामीण इलाका मानी जाती थी। कोई नई या दक्षिणी दिल्ली में रहने के बारे में कोई सोचता भी नहीं था। 1975 में जब हमने ग्रीन पार्क में घर लिया तो मां ने कहा था कि वह तो कुतुब मीनार का इलाका है, वहां तो केवल पिकनिक मनाने जा सकते हैं, रहने नहीं।

साहित्यकारों का इस शहर से कैसा नाता रहा?

प्रयागराज के बाद दिल्ली ही एक ऐसा स्थान रहा जहां सेमिनार और गोष्ठियां होती थीं। कॉफी हाउस में साहित्यकारों का जमावड़ा लगता था। किताबों पर चर्चा होती थी। नवांकुर लेखकों को भी पूरा मान मिलता था। दिल्ली साहित्य का गढ़...घर रही और साहित्कारों का अड्डा बनी। उस दौर में साहित्य के प्रति लोगों का इतना रुझान था कि सड़क चलते लोग साहित्यकारों का पता बता सकते थे। 1975 में जब मेरा पहला उपन्यास छपा तो मैं जैनेंद्र कुमार जी के घर जा रही थी लेकिन पता पूरी तरह से मालूम नहीं था। तब हमने पान वाले से उनका पता पूछा और उसने तुरंत बता दिया। आज वह बातें नहीं रह गईं। इसी तरह नेमीचंद जी को मैंने कहानियां लिखकर पोस्ट की थीं। वे दरियागंज में रहते थे, लेकिन उस पोस्ट पर मैंने पता सही नहीं लिखा था। बावजूद इसके वह पोस्ट उन्हें मिल गई थी।

उस दौर में सम्मेलन गोष्ठियां कहां-कहां होती थीं?

सबसे ज्यादा बैठकें कॉफी हाउस में होती थीं। शनिवार समाज का आयोजन कनॉट प्लेस में होता था। हिंद पॉकेट बुक्स का बड़ा शोरूम था। कोई ऐसी किताब नहीं थी जो वहां न मिलती हो। वहां भी लेखकों का जमावड़ा होता था। एक टी हाउस बना तो वहां भी लेखक जाने लगे। रेडियो स्टेशन, साहित्य अकादमी, दरियागंज और कांसस्टीट्यूशन क्लब सभी जगह हम जाया करते थे।

इन बैठकों और गोष्ठियों की क्या विशेषता होती थी? उनकी कुछ यादें?

पहले यहां हर शनिवार एक बैठक हुआ करती थी। उस समय भारत भूषण अग्रवाल, गिरिजाकुमार माथुर सहित बहुत से कवि व कथाकार सब आते थे। मुझे याद आता है कि पहली बार मैंने उसी बैठक में अपने पहले उपन्यास का अंश पढ़ा था। उस उपन्यास का नामकरण भी वहीं हुआ था। उसी समय मैंने तब तक बेनाम उस उपन्यास के एक-दो नाम सुझाए और लोगों ने ‘उसके हिस्से की धूप’ पर अपनी सहमति दी। उसके बाद भारत भूषण अग्रवाल के घर गई तो, वे घर में काफी देर तक कुछ ढूंढते रहे। बाद में पता चला कि वे उपन्यास के विमोचन के लिए लड्डू खिलाना चाहते थे। आज के परिप्रेक्ष्य में दिल्ली और साहित्य के नाते को किस प्रकार देखती हैं?

अब तो लेखक आपस में मिलते ही नहीं। पहले वरिष्ठ साहित्यकार नए लेखकों की बात करते थे। उनसे संवाद करते थे। उनको ढूंढकर लाते थे। समान धरातल पर खड़े होकर बात करते थे।

मुझे याद है कि मैंने ‘एक और अजनबी’ के नाम से नाटक लिखा था। उसके लिए श्रीपद राय ने मिलने के लिए बुलाया। धर्मवीर भारती ने मुझे चिट्ठी लिखी कि मुंबई जाऊं तो उनसेजरूर मिलूं। उस दौर में एक अलग उत्साह था साहित्य को लेकर। जैनेंद्र जी मेरी पुस्तक के विमोचन में आए तो मेरा उपन्यास पढ़कर आए थे। आज के लेखकों और साहित्यकारों में यह चीजें नहीं मिलेंगी।

उस दौर में कॉफी हाउस की कोई खासयाद?

बैठकों और गोष्ठियों में तो हर बार कुछ न कुछ नया निकलता ही है लेकिन मुझे याद आता है कि जैनेंद्र जी जैसे साहित्यकार मुझे गोलचा कॉफी हाउस में चाय पिलाने ले गए थे। लोगों के लिए यह अचरज था कि उनके जैसा व्यक्ति जो कहीं आता जाता नहीं था वह मुझे चाय पर ले गया। जब हम बच्चे थे तब वे घर पर काफी आया करते थे। बचपन में उन्हें काफी पढ़ा भी था ऐसे में हमारे लिए वे उतने कठिन व दुसाध्य नहीं थे।

भाषा के प्रति ऐसे अलगाव की क्या वजह मानती हैं?

इसका कारण यह है कि लोगों में अंग्रेजी भाषा का आकर्षण है और स्कूलों र्में हिंदी का पाठ्यक्रम बेहद उबाऊ है। स्कूलों में चल रही पुस्तकों में ऐसे लेख व कहानियां हैं जो बच्चों को पसंद नहीं आतीं। ‘मेरे संग की औरतें’ मेरा लेख है जिसे एनसीईआरटी में पढ़ा रहे हैं। नए लेखकों को बच्चों पर लिखने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता। जबकि विदेश में ऐसा होता है कि लोग बच्चों और किशोरों के लिए लिखते हैं। परसाई, शरद जोशी और प्रेमचंद की दुखभरी कहानियां ही क्योंकि स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं। उत्साह व वीरता से भरी अच्छी व रोचक चीजों को पढ़ाया जाना चाहिए। जयशंकर प्रसाद सहित अन्य साहित्यकारों की रोचक कहानियां भी हैं, उन्हें पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए तो बच्चों को हिंदी बोझिल नहीं बल्कि रोचक लगेगी। बच्चों को ऐसी चीजें पढ़ाई जानी चाहिए जिनमें तत्व, तथ्य, बात और यर्थाथ हो न कि उपदेश।

आज की दिल्ली आपको कैसी लगती है? और कैसी होनी चाहिए?

व्यवस्था के हिसाब से दिल्र्ली हिंदुस्तान का सबसे खराब शहर है। यहां यातायात पर कोई नियंत्रण नहीं, जरा सी बारिश होती है और सड़कें जलमग्न हो जाती हैं। कचरे का कोई इंतजाम नहीं है। सरकार दुनिया भर की चीजें करती है,लेकिन बुनियादी समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जाता। दिल्ली को व्यवस्थित करने की जरूरत है। यहां कि धरोहरों को संभालने की जरूरत है। जो भी योजनाएं बनें उनका क्रियांवयन करके दिल्ली को दिल्ली बनाए जाने की जरूरत है।

अपने समकालीन लेखकों में किस-किस से अक्सर मिला करती थीं?

अक्षय प्रकाशन के दफ्तर में बहुत लेखक जाते थे। जगदंबा प्रसाद दीक्षित, गिरीराज, सैलेश मटियानी, योगेश गुप्त, बृजेश मदान, मन्नु भंडारी, अर्चना वर्मा जैसे लेखकों और साहित्य से जुड़े लोगों से वहीं पर मुलाकात हुई और होती रहती थी। वहां बैठकर हम साहित्य, समाज और देश की स्थिति पर चर्चा करते और वहां की बहुत खराब चाय पीते थे।

अध्ययन अध्यापन के दौरान के कुछ किस्से जो आज तक आपको विभिन्न भावों से भर देते हों?

मैं विरोधी किस्म की थी। पांचवीं से सातवीं तक स्कूल नहीं गई। आठवीं कक्षा में स्कूलों में गई तो एंग्लो-इंडियन पीटी टीचर ने भारतीय होने पर एक आपत्तिजनक टिप्पणी की तो मैं बिदक गई। वे प्राचार्य के पास ले गईं और नौबत पिता जी को बुलाने की आ गई। पिता आए और जब सारी बात पता चली तो उन्होंने उल्टा शिक्षिका से ही पूछ लिया कि वे माफी वहीं मांगेंगी या सबके सामने। इस वाकये के बाद मैंने पीटी छोड़ दी और कक्षा का पुस्तकालय संभालने लगी। उसके बाद मिरांडा हाउस कॉलेज की बहुत सी यादें हैं। जब मैं दाखिला लेने पहुंची तब कॉलेज बन रहा था। बरसात में भीगते अव्यवस्थित पंक्ति में घंटों खड़ी रहकर दाखिले के लिए पहुंची तो विभाग की अध्यक्ष ने पूछ लिया कि तुम अर्थशास्त्र क्यों लेना चाहती हो जबकि तुम्हारे अंक गणित में ज्यादा अच्छे अंक हैं। उस दौरान मैं परेशान तो थी ही, मैंने पूछ लिया, क्यों, ये लोग (उनका मतलब कॉलेज प्रब) गणित में अच्छे अंक लाने वाले विद्यार्थियों को दाखिला नहीं देते क्या? शिक्षिका ने मेरी मन:स्थिति समझते हुए न केवल दाखिला दिया बल्कि मुझे कक्षा में भी लगातार सहयोग करती रहीं। मैंने अध्यापन की शुरुआत जानकी देवी कॉलेज से की। वहां पर निम्न मध्यम आयवर्ग की छात्राएं थीं। उनमें से एक छात्रा को बीमारी अवस्था में घर छोड़कर आई तो सभी छात्राएं मुझसे स्नेह करने लगीं। इंद्रप्रस्थ कॉलेज में आई तो वहां भी विद्यार्थियों की प्रिय रही। मुझे याद आता है कि एक बार कॉलेज में पढ़ाने से पहले एक योजना के तहत मुझे विदेशी विद्यार्थियों को पढ़ाना था। उस वक्त उस योजना के प्रभारी ने कहा कि मैं कद काठी में छोटी हूं और विद्यार्थी अफ्रीका के हैं तो मैं उन्हें नहीं पढ़ा सकूंगी लेकिन मैं अड़ गई कि मुझे नहीं लगता कि कद काठी का इस बात से कुछ लेना देना है। मैं पढ़ाने गई तो एक एक करके विद्यार्थी आए और दरवाजा खोलकर चले गए। फिर एक विद्यार्थी आया और पूछा, यहां शिक्षक नहीं हैं क्या। ऐसे में मैने दृढ़ आवाज में कहा कि मैं ही शिक्षक हूं। उसके बाद उनके साथ मेरा बहुत अच्छा अनुभव रहा।

साहित्य के अलावा दिल्ली किस चीज की धनी थी? उन दिनों की कौन सी चीजें याद आती हैं?

साहित्य के गढ़ के अलावा दिल्ली में खानपान का बेहद खुशगवार माहौल होता था। हमारे पिता जी स्टेशन के पास से जलेबी और बेडमी आलू लेकर आते थे। सेंट्रल बैंक के पास मिलने वाली मूंग दाल की पकौड़ी और सौंठ का स्वाद आज भी जुबां पर आ जाता है। देना बैंक के पास सोडा मिलता था। पराठे वाली गली का बड़ा नाम था, लेकिन मैं उसकी खास शौकीन नहीं थी। जामा मस्जिद की गलियों की माथुरों की बाकरखानी आज के लोगों को पता ही नहीं होगी। वह एक खास किस्म की मीठी नमकीन रोटी होती थी जो आज भी याद आती है। नान, रोगन जोश, मीट, कबाब ही नहीं शाकाहारी भोजन भी दिल्ली की पहचान रहा। हलवाई की दुकानों पर रबड़ी और निमिष मिलती थी जो आज के दौर में नहीं मिलती। वह रेख्ता के आयोजनों में जरूर दिखती है लेकिन उसमें वह स्वाद, वह बात नहीं होती। कांजी के बड़े का जायका वह नफासत वाला खाना अब कहीं खो सा गया है।

आपने दिल्ली को बनते, बदलते व संवरते देखा है, उसकी कुछ और यादें?

हम बंगाली मार्केट में रहते थे। लोगों का आज लगता है कि बंगाली मार्केट बंगालियों की वजह से मशहूर है। ऐसा नहीं है। भीमसेन हलवाई जो रसगुल्ले और चाट बनाता था, उसका स्वाद आज नहीं मिल सकता। बंगाली मार्केट का नाम उसी की दुकान की बंगाली मिठाइयों की वजह से पड़ा।

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