कच्चे-पक्के दीपों से चल रही है जिंदगी की चाक, कई पीढ़ियों से परंपरा को संजोया है परिवार
मिट्टी के कारीगर बुजुर्ग लालचंद कहते हैं कि मिट्टी के दीये और अन्य वस्तुएं बनाना आसान नहीं हैं। कई बार बेहतर मिट्टी नहीं मिलती है।
By Mangal YadavEdited By: Updated: Sun, 20 Oct 2019 03:28 PM (IST)
नई दिल्ली [शिप्रा सुमन]। बाहरी दिल्ली में एक परिवार में बच्चे हों या बूढ़े, घर का हर सदस्य त्योहारों के इस मौसम में पूरी मेहनत और लगन के साथ दीये बनाने में जुटा है। घर के बाहर घूमती चाक पर घर का मुखिया दीये बना रहा है। महिलाएं मिट्टी को गीला कर उसे दीये बनाने के लिए तैयार कर रही हैं। बच्चे भी अपने छोटे-छोटे हाथों से दीपों को धूप में सुखाने में जुटे हैं। इन दिनों कुम्हारों के घरों की यही दिनचर्या देखने को मिल रही है।
इलाके के किराड़ी गांव व सुल्तानपुरी के कई घरों में अपने इस हुनर को वर्षो से सहेज कर रखे कुम्हारों की दुनिया इन्हीं मिट्टी की कलाकृतियों के बीच है। पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही इस कला को संजोये हुए पूरा परिवार इसमें योगदान दे रहा है। हालांकि, संस्कृति व परंपराओं पर आधुनिक जमाने की चकाचौंध भारी पड़ रही है। दिवाली पर मिट्टी के दीये की जगह बिजली के बल्ब अधिकतर घरों में चमकते हैं। ऐसे में इस कला की धरोहर को संभालकर रखने वाले कुम्हार अपनी जिंदगी की चाक को किसी तरह घुमा रहे हैं।
बच्चों को भी सिखाते हैं इस हुनर की बारीकियां
सुल्तानपुरी क्षेत्र में बलबीर सिंह खिलौना भंडार के नाम से दुकान चलाने वाले बलबीर और उनकी पत्नी कमलेश का मानना है कि उनके पूर्वजों के जमाने से चला आ रहा यह काम छोड़ने का कोई फायदा नहीं है। इसलिए वह नौकरी की तलाश नहीं करते हैं और अपने बच्चों को भी इस हुनर की बारीकियां सिखाते हैं। इससे उनका गुजारा तो हो जाता है, लेकिन मुनाफा अधिक नहीं होता है। फिर भी वह इसे करते हैं,क्योंकि यह उनकी आजीविका और कला दोनों है।
यही वजह है कि अपनी खुशियों को उन्होंने इसी कारोबार में पिरो कर रखा है। चूंकि मिट्टी के दीये दिवाली के प्रतीक के रूप में माने जाते हैं। इसलिए लोग भगवान की पूजा में आज भी मिट्टी के दीये ही प्रयोग करते हैं। हालांकि, घर की सजावट के लिए इलेक्ट्रॉनिक लाइटों का चलन अब अधिक है।
हरियाणा से मिट्टी लाने पर खर्च हो जाते हैं दस हजार
मिट्टी के कारीगर बुजुर्ग लालचंद कहते हैं कि मिट्टी के दीये और अन्य वस्तुएं बनाना आसान नहीं हैं। कई बार बेहतर मिट्टी नहीं मिलती है। हरियाणा से मिट्टी लाने में आठ से दस हजार रुपये खर्च हो जाता है। ऐसे में लागत निकालने के लिए खूब मेहनत करनी पड़ती है।खरीददारों की संख्या हुई कमलालचंद ने कहा कि दिवाली में तो कारोबार ठीक रहता है, लेकिन अन्य दिनों कम खरीदार होते हैं। इस दौरान वह मटके, बर्तन, मूर्तियां और अन्य पूजा संबंधि सामग्री बनाते हैं। ऐसे में कारीगर भी यही चाहते हैं कि उनके परिश्रम और कला का सम्मान मिले और लोग अधिक से अधिक स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करें। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले यह कारीगर गुजरात, कोलकाता, लखनऊ और आगरा से डिजाइनर मिट्टी के दीये और अन्य बर्तन मंगवाते हैं। इसके लिए कई लोग आर्डर भी देते हैं।
सड़क व डिवाइडर पर सुखाते हैं दीयेपर्याप्त जगह न मिलने के कारण कई कारीगर फुटपाथ और डिवाइडर पर दीये सुखाते हैं। कमलेश कहती हैं कि कच्चे दीये को पकाने के लिए उपयुक्त जगह भी नहीं मिलती। प्रदूषण की वजह से धुआं न उड़े इसलिए इसकी मनाही है। ऐसे में उनका काम प्रभावित हो रहा है। इसके बावजूद पूर्वजों की परंपरा को उन्होंने तमाम मुश्किलों के बीच भी कायम रखा है।मिट्टी के कारीगर बलबीर सिंह ने बताया कि वह पिछले 30-40 वर्षो से यह कार्य कर रहे हैं। पूरे परिवार की मेहनत की वजह से गुजारा हो जाता है। दिवाली के मौके पर काम और भी बढ़ जाता है। पोते-पोतियों को भी यह काम सिखाता हूं, ताकि उन्हें आगे चलकर कोई दिक्कत न हो।
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