पढ़िए, कैसा था वो दिल दहलाने वाला बंटवारे का मंजर...जो झेला इन महिलाओं ने
Partition of India मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन पर नरिंदर कौर की तरह कई ऐसे महिला-पुरुषों की आपबीती प्रदर्शित की गई है जो 1947 में हुए बंटवारे की विभीषिका बयां करती है।
नई दिल्ली, संजीव कुमार मिश्र। शाेरगुल बहुत था शहर में...चरम पर अराजकता थी। जल रहा था हर कोई विभाजन की आग में। बात है सन् 1947 की। याद है हर मंजर उस दौर का। सिहर उठे थे मेरे पड़ोसी..कि यात्रा के दौरान उनकी बेटी के साथ कुछ गलत हो सकता है और सोचो कैसे कुछ गलत होने के भय ने मां- बाप को विवश कर दिया बेटी की सांसों को वहीं थाम दिया...नरिंदर कौर ओबराय की यह आपबीती हर पढ़ने वाले को झकझोर कर रख देती है।
मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन पर नरिंदर कौर की तरह कई ऐसे महिला-पुरुषों की आपबीती प्रदर्शित की गई है जो 1947 में हुए बंटवारे की विभीषिका बयां करती है। महिलाओं की कहानियां गलियारे से गुजरते हर यात्री के कदमों को थाम लेती है। उन्हें सोचने पर मजबूर कर देती है कि कैसे लोगों ने उस दर्द को झेला होगा। कैसे मानवता शर्मसार हुई थी।
हर कहानी पढ़ सिहर जाएंगे : प्रदर्शनी में गोपी भाटिया की चित्र प्रदर्शनी भावुक कर देती है। गोपी कराची- सिंध से बाम्बे (अब मुंबई) का सफर तय किया। उनकी आपबीती यहां कुछ इस तरह दर्ज है ‘बंटवारे के बाद हम कराची में ही रहा करते थे। 1948 की शुरुआत में धीरे-धीरे हमारे शहर में भी दंगे शुरू हुए। मेरे माता-पिता ने यहां से निकलने का फैसला किया, लेकिन ऐसा मुमकिन हो नहीं पा रहा था। हमने दंगे खत्म होने का इंतजार करने का निर्णय लिया। हालात बिगड़ते देख मेरे पिताजी ने हमें किसी तरह बाम्बे में एक रिश्तेदार के यहां छोड़ा और खुद कराची लौट गए। यह कहकर कि सब ठीक हो जाएगा। लेकिन उसके बाद एक महीने तक उनकी खबर नहीं मिली। फिर एक दिन बाद अचानक वो वापस लौट आए और तब यह बात साफ हो गई कि अब वापस लौटने का कोई प्रयोजन नहीं है।’
बंटवारे का दर्द: परमजीत कौर धनोआ (लाहौर से पटियाला) ‘विभाजन के समय मैं मेडिकल कॉलेज के तीसरे साल में थी और हॉस्टल में रहती थी। हर तरफ दंगे फैल चुके थे। हमारा कॉलेज अनारकली बाजार के बीचो बीच था। हमनें लोगों को एक महीने तक मरते देखा, मदद मांगते हुए और रोते हुए देखा। वो दृश्य बहुत ही भयावह था। अगस्त में विभाजन की घोषणा के बाद मैंने कुछ दोस्तों के साथ विस्थापित होने का निर्णय किया। हम एक ट्रक पर सवार हुए जो अमृतसर जा रहा था, पूरा ट्रक भरा हुआ था। मैं किसी तरह अमृतसर आई और वहां से लुधियाना पहुंची, पर अपने परिवार को ढूंढने में असफल रही। तीन दिनों तक एक ट्रेन पर होने के बाद आखिरकार मैं जालंधर कंटोनेंट पहुंची और हजारों की भीड़ में किसी तरह अपने परिवार को ढूंढ पाई।’
शहर जल रहा था: उषा भारद्वाज (लाहौर से दिल्ली) ‘मैं अपनी छुट्टियां बिताने कश्मीर गई हुई थी जब बंटवारे की घोषणा हुई। जैसे तैसे मैं हवाई जहाज पकड़ लाहौर रुकी और परिवार से मिली। वो शहर जिसे मैं बहुत अच्छे से जानती थी। मेरी आंखों के सामने दंगों से तहस नहस हो गया। मेरे भाई और बहन दिल्ली पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। दंगों के बीच में प्लेटफार्म पर खड़े हमारे साथ के एक मुसाफिर हिंसक हो गए, तब मेरे पिताजी ने उन्हें शांत कराया। परिवार को वहां से निकालने की हड़बड़ाहट में मेरा भाई स्टेशन के प्लेटफार्म पर ही छूटतेछूटते बचा। हमने यात्रा के दौरान बहुत सी दर्दनाक घटनाएं देखीं, जिन्हें भूल नहीं सकते।’
बच्चों को पढ़ाकर सुकून मिलता: उषा छाबड़ा (रावलपिंडी से दिल्ली) ‘शुरुआत में मैं और मेरे भाई बहन अपनी चाची के पास गोयल बाजार में रहे। जब तक हमारे माता-पिता को ढूंढा ना गया। उसके बाद हम दिल्ली चले गए। यहां मिंटो रोड पर एक तीन कमरे वाले मकान में कुछ रिश्तेदारों के साथ ठहरे। मैंने अपनी पढ़ाई 1948 में फिर से शुरू की और साथ ही साथ मिंटो रोड करोल बाग में समाजसेवा भी शुरू की। मेरी ज्यादातर सेवाएं शरणार्थियों के बच्चों को पढ़ाने की होती थी।
जिंदगी की जद्दोजहद: पूरनचंद, मुझे याद है कि मेरे बड़े भाई और पिताजी गाजियाबाद से दिल्ली कपड़े बेचने के लिए जाया करते थे। मेरा परिवार गाजियाबाद में 2 साल तक रहा। तब हमें राजेंद्र नगर में यालपुर की संपत्ति के बदले में एक मकान मिला था। वह एक शरणार्थियों की कॉलोनी थी। हमारा घर 2 कमरों वाला छोटा मकान था। यहां मौजूद सभी शरणार्थियों की कहानी एक जैसी थी। सबने अपना घर पीछे छोड़ दिया था, जो कि पाकिस्तान बन गया था और यहां नई जगह बसने का प्रयास कर रहे थे। हमें बिजली नहीं मिल रही थी, पानी भी नहीं था। हमनें बहुत संघर्ष किया था।’
ऐसे बंटोरी कहानियां
1947 विभाजन के अभिलेखागार की संस्थापक गुनीता सिंह भल्ला कहती हैं कि प्रदर्शनी का डिजाइन वास्तुकार अर्घो ज्योति ने तैयार किया गया है। ‘यह पहली बार है जब मेट्रो में इसका प्रदर्शन किया है, और मेट्रो स्टेशन पर इस काम को प्रदर्शित करने में बहुत बड़ा प्रतीक वाद है क्योंकि 1947 में सीमा पार करने के लिए लाखों लोग ट्रेनों पर निर्भर थे। कई लोग ट्रेनों में खो गए थे। सन् 2009 में पंजाब यात्रा के साथ विभाजन के मौखिक इतिहास का रिकार्ड संग्रहित शुरू किया। अब तक, आर्काइव ने 12 देशों की 36 भाषाओं में 8,000 कहानियों को रिकॉर्ड किया गया है।