Exclusive Interview : महाभारत के अर्जुन ने शेयर किए दिल्ली में बिताए वो खास पल...
पिछले दिनों संदीप अपनी नई फिल्म ‘अमर कहानी रविदास जी की’ के प्रमोशन के लिए दरियागंज पहुंचे। इस दौरान संदीप मोहन ने दिल्ली से जुड़ी यादें साझा की।
नई दिल्ली, संजीव कुमार मिश्र। आज टीवी पर सैंकड़ों चैनल हैं, लेकिन धारावाहिक को लेकर वह क्रेज नहीं जो दूरदर्शन के जमाने में हुआ करता था। तब महाभारत और श्रीकृष्ण सरीखे धारावाहिक को लोग बड़ी तन्मयता के साथ देखते थे। तब धारावाहिक महाभारत ने दिल्ली के एक युवा कलाकार संदीप मोहन को अर्जुन के रूप में घर-घर में पहुंचा दिया था। पिछले दिनों संदीप अपनी नई फिल्म ‘अमर कहानी रविदास जी की’ के प्रमोशन के लिए दरियागंज पहुंचे। इस दौरान संदीप मोहन ने दिल्ली से जुड़ी यादें साझा की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश :
दिल्ली आपकी यादों में किस तरह बसती है?
दिल्ली तो मेरे रग-रग में है। मेरा जन्म ग्रेटर कैलाश-1 में हुआ। बचपन, युवावस्था सब यहीं गुजरा है। पिता जी कॉरर्पोरेट सेक्टर में जॉब करते थे। प्रारंभिक शिक्षा आरके पुरम स्थित डीपीएस स्कूल में हुई और किरोड़ी मल कॉलेज से मैंने इंग्लिश ऑनर्स किया है। पोस्ट ग्रेजुएशन के दौरान ही श्रीराम सेंटर में थिएटर कोर्स किया, जिसके बाद मुझे दो बड़े शो मिले। इनमें पहला नाम मेरा भारत महान का था। नाटक की लोकप्रिय का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि श्रीराम सेंटर में हमने इसके 50 शो किए थे।
आपके थियेटर और फिल्मी सफर पर दिल्ली का कितना प्रभाव रहा है?
दिल्ली में रहते हुए ही मुझे दो धारावाहिक मिले। एक ‘जाना पहचाना’ और दूसरा ‘यह सच’ है। इसके बाद मैं मुंबई गया। यहां मेरी मुलाकात रामानंद सागर से हुई। उन्होंने मुझे महाभारत धारावाहिक में अर्जुन का रोल दिया। मैंने एक साल तक इस किरदार को निभाया। उसके बाद रामानंद सागर को लगा कि युवा अर्जुन का किरदार भी मैं ही निभा सकता हूं। उन्होंने मुझे एक सहुलियत दी थी कि मैं दिल्ली में रहते हुए भी शूटिंग कर सकता था। शूटिंग के लिए बरोडा में सेटअप तैयार किया गया था। मैं शूटिंग से पहले वहां पहुंच जाता था और शूटिंग खत्म कर वापस दिल्ली आ जाता था। तब दो ही फ्लाइट जाती थी। आप यकीन नहीं करेंगे तब का दिल्ली एयरपोर्ट आज के किसी छोटे शहर की मानिंद था।
तब की दिल्ली आज की दिल्ली में क्या अंतर है?
उस वक्त की दिल्ली तो जैसे विलुप्त ही हो गई है। आज की दिल्ली तो बिल्कुल नई है। कई बार तो दिल्ली को मैं ही नहीं पहचान पाता हूं। मुझे याद है, पहला फ्लाईओवर 1982 में एशियाड के समय बना था। उस समय ग्रेटर कैलाश में जहां हम रहते थे, उसके पीछे पूरा जंगल था। हमलोग वहां क्रिकेट खेलने जाया करते थे। तब गुरुग्राम और नोएडा का तो जिक्र भी नहीं था। हमें तो बस एक झरना लुभाता था, जहां हम पिकनिक मनाने जाया करते थे।
उन दिनों खाने का ज्यादा विकल्प नहीं था? फिर खाने कहां जाते थे।
काके द होटल यह मेरा पसंदीदा फूड अड्डा है। इससे बचपन की यादें जुड़ी हैं। बचपन में पिता जी हमें गाड़ी में बैठाकर यहां ले आते थे। यहां खाना खाने के बाद हम ओडियन, प्लाजा, रिवोली और रीगल में से किसी एक में फिल्म देखते थे। होटल से याद आया एक बार हम गोलचा सिनेमा गए थे, फिल्म उमराव जान लगी थी। तब मैं बहुत छोटा था। फिल्म तो समझ में नहीं आई, लेकिन मोती महल का मुगलई खाना बहुत पसंद आया।
फिल्म देखने का शौक थियेटर में कैसे बदला?
फिल्में तो मैं बचपन से देखता ही था। अभिनय का शौक भी था। किरोड़ीमल कॉलेज की ड्रामा सोसायटी से भले ही सक्रिय रूप से नहीं जुड़ा था, लेकिन दिग्गजों की मौजूदगी में जब मुझे छोटे-मोटे रोल दिए जाते तो मन खिन्न हो उठता था। फिर मैंने सोचा क्यों न थियेटर का ककहरा पढ़ा जाए। एक दिन मेरे एक दोस्त ने श्रीराम सेंटर के बारे में बताया। अगले ही दिन मैं वहां पहुंच गया। यहां मेरी मुलाकात गुरुबीर सिंह ग्रेवाल से हुई। बातचीत के बाद जब मैं जाने लगा तो मैंने उनसे कहा कल मुलाकात होगी। उस वक्त उन्होंने एक हिदायत दी कि पहले हिंदी और उर्दू का सही उच्चारण सीखो। उसके बाद मैंने हिंदी बोलते समय ध्यान देना शुरू किया और यहीं से थियेटर भी सीखा।