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दिल्ली मेरी यादें: साढ़े बारह रुपये का पास, एक बीड़ी का बंडल और दिल्ली विवि का वो कमरा

वैसे तो पहला परिचय इस शहर से दस वर्ष की उम्र में सन् 61 में हुआ था। जब मैं मेरठ से अपने पिता के साथ इस नायाब शहर को देखने आया था-अशोक चक्रधर।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Thu, 06 Feb 2020 12:26 PM (IST)
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दिल्ली मेरी यादें: साढ़े बारह रुपये का पास, एक बीड़ी का बंडल और दिल्ली विवि का वो कमरा
नई दिल्ली, मनु त्यागी। अशोक चक्रधर ने बाल साहित्य, प्रौढ़ एवं नवसाक्षर साहित्य, समीक्षा, अनुवाद, पटकथा आदि अनेकों विधाओं में लेखन किया। फिल्म, धारावाहिक में लेखन, निर्देशन के साथ कवि सम्मेलनों के लोकप्रिय व्यक्तित्व रहे। हिंदी सलाहकार समिति, ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार, हिमाचल कला संस्कृति और भाषा अकादमी के भूतपूर्व सदस्य के पदों पर रह चुके हैं। वैसे तो पहला परिचय इस शहर से दस वर्ष की उम्र में सन् 61 में हुआ था। जब मैं मेरठ से अपने पिता के साथ इस नायाब शहर को देखने आया था। हम मेरठ से खासकर गोलचा सिनेमा में फिल्म देखने आए थे। तभी कनॉट प्लेस, बाल भवन की रेलगाड़ी, डॉल म्यूजियम, आकाशवाणी पर हम घूमे थे। बिलकुल अपने नाम के अनुकूल ये इंद्रप्रस्थ मुझे इंद्रलोक ही लगा था।

रहिमन धागा प्रेम का...मत तोड़ो चटकाए..

फिर कुछ साल बाद जब जिंदगी में प्रवेश परीक्षाओं का दौर आया तो अपने चाचा जी के यहां जो जंगपुरा में रहते थे, वहां आ गए। वो वहां किराए के मकान में रहते थे। यहां जंगपुरा में मुझे सबसे खास लगा निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पास स्थित अब्दुल रहीम खान-ए-खाना का मकबरा। मुझे यहां हर तरफ रहीम की मौजूदगी नजर आती थी, उनके दोहे। संघर्ष के उस दौर का शांति और सुकून वहीं तलाशता था। अभी कल की ही बात है रहीम के मकबरा के सामने से गुजर रहा था तो देखा कि वहां पुनरुद्धार का काम चल रहा है, एक कमी महसूस हुई, उसमें रहीम के दोहे...उनकी रचनाओं को भी रेखांकित करना चाहिए। कितना अद्भुत साहित्य रचा उन्होंने जो सदियों से साथ चल रहा है...दोहराया जा रहा है। रहिमन धागा प्रेम का...मत तोड़ो चटकाए...।

पुरानी दिल्ली देखी है...बढ़ती...बदलती... संवरती 

दिल्ली को इन प्रेम के धागों में गुंथा रहना चाहिए इन्हें चटकाना नहीं चाहिए। इन्हें स्मृतियों के पटल पर सजाकर रखना जरूरी है। मैंने दिलों से दिलों को मिलाती दिल्ली देखी है, पुरानी दिल्ली देखी है...बढ़ती...बदलती... संवरती दिल्ली देखी है। उत्तम नगर की ओर बढ़ती दिल्ली देखी है और इस छोर पर आजादपुर के बाद शालीमार बाग से आगे को चलती दिल्ली देखी है। पूरी दिल्ली धीरे-धीरे नन्हे पांवों से उम्र के साथ पली और बढ़ी है। बहरहाल 1971 में मैं दिल्ली आ गया था और सन् 72 में मैंने सत्यवती कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दिया। कुछ दिन तक सब ठीक था लेकिन तब उम्र ऐसी थी... और तब वामपंथी विचारधारा...सामाजिक मुद्दों से जुड़ी होती थी। बन गए थे क्रांतिकारी। कॉलेज में यह बात रास नहीं आई। सामाजिक मुद्दों पर कॉलेज की अव्यवस्थाओं पर आवाज उठाने के साथ थियेटर भी किया करता था।

साहित्यकारों का जमघट लगने लगा

फिर कुछ समय बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्ट फैकल्टी का रूम नंबर 22 ऐसी जगह बन गया जहां साहित्यकारों का जमघट लगने लगा। प्रगति नाम की गोष्ठी होने लगी। यह सिलसिला सन् 75 तक चला था। उन्हीं दिनों हरियाणा के अध्यापकों ने बहुत बड़ी हड़ताल की थी, देशभर के शिक्षक उनके समर्थन में आए थे। मैंने भी मन बना लिया वहां जाने का। उन दिनों सत्यवती कॉलेज के प्रिंसिपल थे डॉ हलधर, उन्होंने मेरे जाने पर विरोध जताया लेकिन मैं वहां चला गया। और इसी पर उन्होंने मुझे आगे कॉलेज में पढ़ाने का अवसर नहीं दिया।

उन दिनों रहने का ठिकाना दिल्ली विवि होता था

अब यह मेरे संघर्ष का दौर था लेकिन मुझे वह अपना स्वर्णकाल लगता है क्योंकि उसने इतना कुछ सिखाया, लिखाया जिसका आज तक धनी हूं। पैसे की थोड़ी तंगी थी तो उन दिनों रहने का ठिकाना भी दिल्ली विवि में ही होता था। कई सारे अध्यापक थे। अब सभी अविवाहित थे तो एक ही साथ रहते थे। कभी वहां नागार्जुन आ रहे हैं कभी कोई बड़े लेखक आ रहे हैं। सुधीश पचौरी मेरे अच्छे मित्र थे। मुझे बीड़ी पीने की बहुत तगड़ी तलब थी।

एक बार 5 रुपये का कोट ले आया था

रोज का एक बंडल तो होता ही था, इसका जिम्मा था सुधीश जी पर क्योंकि वो कमा रहे थे। वो मेरा महीने का कोटा यानी एक पैकेट दे देते थे, उसमें बंडल होते थे 25 महीने में दिन हुए 30, शुरू में तो पूरा कोटा चलता था बस जब माह के पांच दिन बचते तो डोज थोड़ी कम कर देता था ताकि कोटा महीने के अंत तक चला सकूं। अद्भुत दिन थे वो। अरे जामा मस्जिद पर बढ़िया-बढ़िया पुराने कपड़ों की दुकान लगती थीं, वहां से मैं एक बार 5 रुपये का कोट ले आया था बढ़िया पीस था उसे कभी नागार्जुन पहनते, कभी मैं और सुधीश जी। कोई भी अभाव में नहीं था सब मस्तमगन होकर जीते थे। एक दिन मेरे पास विवि के उस रूम की चाबी नहीं थी और बाकी मित्र सब बाहर थे, तो मैं वहां विवि के बाहर फुटपाथ पर ही सो गया। लेकिन उस जिदंगी में अभाव के बावजूद आनंद था।

मुद्रिका बस सेवा को मुद्रिका नाम मैंने ही दिया था

मुझे दिल्ली की बसों से बेहद लगाव है। मैंने अध्यापक रहते भी बस से ही वो छात्रों वाला पास बनवाया हुआ था। सन् 75 की बात होगी जामिया में मेरी अध्यापक की नौकरी लग गई थी मैं जनकपुरी से तीन बसें बदल कर आता था। बेहद रोमांचित होता था बस का सफर। तभी तो कई सारे कविताएं मेरी इन्हीं बसों की यात्राओं पर भी हैं। तब कनॉट प्लेस को सेंटर मानकर एक सुगम बस सेवा भी शुरू हुई थी जिसका मकसद था केंद्र से परिधि से छूने वाली सेवा। और दूसरी मुद्रिका, वृत्त बनाने वाली मुद्रिका सेवा। आपको एक और दिलचस्प बात बताता हूं, यह श्रेय लेने की बात नहीं, मुद्रिका बस सेवा को मुद्रिका नाम मैंने ही दिया था। दरअसल एक लेखक थे रमेश कौशिक वो कमलापति त्रिपाठी को भी जानते थे। एक दिन उनके यहां एक गोष्ठी थी तो तभी मैंने बातों-बातों में मैंने उन्हें यह मुद्रिका नाम सुझाया और उन्होंने कमलापति जी को बता दिया उन्होंने तय कर दिया। उन दिनों बसों के नंबर भी 1 से 10 नंबर तक ही होते थे।

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