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Mirza Ghalib Death Anniversary: लालकुआं न लिखा करो, बल्लीमारान में रहता हूं

Mirza Ghalib Death Anniversary आज हिंदुस्तान में एक आम समझ के हिसाब से उर्दू और गालिब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं पर हकीकत इससे बहुत जुदा है।

By JP YadavEdited By: Updated: Sat, 15 Feb 2020 10:24 AM (IST)
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Mirza Ghalib Death Anniversary: लालकुआं न लिखा करो, बल्लीमारान में रहता हूं
नई दिल्ली [नलिन चौहान]। Mirza Ghalib Death Anniversary :  'पूछते हैं वो के गालिब कौन है? कोई बतलाओ के हम बतलाएं क्या?' आज हिंदुस्तान में एक आम समझ के हिसाब से उर्दू और गालिब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, पर हकीकत इससे बहुत जुदा है। मिर्जा असदुल्ला बेग गालिब अपने आपको फारसी का कवि मानते रहे। इन कवियों की परंपरा अमीर खुसरो से प्रारंभ होती है। गालिब भी इसी परंपरा के थे।

उल्लेखनीय है कि कई शदियों तक हमारे देश में हजारों परिवारों के लिए फारसी केवल शासन की भाषा ही नहीं थी। इन परिवारों ने उसे सांस्कृतिक भाषा के रूप में भी स्वीकार किया था। जो मुसलमान विदेश से आए थे उनकी सबकी मातृभाषा फारसी नहीं थी। जो विदेशी मुस्लिम राजवंश दिल्ली की गद्दी पर बैठे उनमें से अधिकांश फारसी नहीं बोलते थे। फिर भी फारसी का प्रभाव दिन पर दिन बढ़ता गया।

इसी पृष्ठभूमि में गालिब के मित्रों ने यह सुझाव रखा था कि वे उर्दू में भी लिखें, जिससे सामान्य जनता उनकी रचनाओं से लाभ उठा सके। इस प्रकार के सुझाव के संबंध में आरंभ में गालिब का विचार था-मैं उर्दू में अपना कमाल क्या जाहिर कर सकता हूं। उसमें गुंजाइश इबारत आराई (अलंकरण की) कहां है? बहुत होगा तो ये होगा के मेरा उर्दू बनिस्बत औरों के उर्दू के फसीह होगा। खैर, कुछ करूंगा और उर्दू में अपना जोरे कलम दिखाऊंगा। ये विचार गालिब ने वर्ष 1858 में मुंशी शिवनारायण को लिखे गए पत्र में व्यक्त किए थे। एक तरह से, गालिब के गद्य का स्वरूप उनके पत्रों में देखा जा सकता है। ये पत्र एक समय में एक व्यक्ति को नहीं लिखे गए।

गालिब की ओर से जिन लोगों को पत्र लिखे गए हैं, उनमें से अधिकांश व्यक्ति साहित्यिक हैं, किंतु उनकी रुचियों में समानता नहीं है, उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी भिन्न है और उन लोगों के साथ गालिब का संबंध भी एक जैसा नहीं है। उनका जीवन दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह और बड़े-बड़े सामंतों के साथ व्यतीत हुआ था। उन्होंने जब उर्दू में लिखना शुरू किया तो एक नई शैली को जन्म दिया। 19 वीं सदी के पांचवे दशक के शुरुआती वर्षों से गालिब हिंदी में (गालिब अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले तक उर्दू के लिए हिंदी शब्द का ही प्रयोग करते रहे) पत्र लिखने लगे। इससे पहले वे फारसी में ही पत्र लिखा करते थे। संभवत उनका अंतिम पत्र वर्ष 1868 का है। 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के बाद उन्होंने फारसी लिखना बहुत कम कर दिया था। गालिब के पत्र हिंदी और उर्दू की मिलीजुली संपत्ति हैं। गालिब ने लिखा है कि मैंने वो अंदाजे तहरीर (लिखने का ढंग) ईजाद किया है (निकाला है) के मुरासिले (पत्र) को मुकालिमा (बातचीत) बना दिया है। ‘हजार कोस से बजबाने कलम (लेखनी की जिह्वा) से बातें किया करो। हिज्र (वियोग) में विसाल (मिलन) के मजे लिया करो।’

दिल्ली में अपनी रिहायश के बारे में 12 मार्च 1852 को लिखे एक खत में गालिब लिखते हैं, ‘मैं काले साहब के मकान से उठा आया हूं। बल्लीमारान के मुहल्ले में एक हवेली किराए पर लेकर उसमें रहता हूं। वहां का मेरा रहना तखफीफे (किराए की कमी) किराए के वास्ते न था। सिर्फ काले साहब की मोहब्बत से रहता था वास्ते इत्तला के तुमको लिखा है, अगर मेरे खत पर हाजत मकान के निशान की नहीं है, दर देहली ब असदुल्लाह ब रसद (पहुंचे) काफी है, मगर अब लाल कुआं न लिखा करो, मुहल्ले बल्लीमारान लिखा करो। एक दूसरे खत में वे लिखते हैं, हां साहब, ये तुमने और बाबू साहब ने क्या समझा है, के मेरे खत के सरनामे पर इमली के मुहल्ले का पता लिखते हो। मैं बल्लीमारान में रहता हूं। इमली का मुहल्ला यहां से बेमुबालिगा (निसंदेह) आध कोस है। वो तो डाक के हरकारे मुझको जानते हैं, वर्ना खत हिरजा (व्यर्थ) फिरा करे। आगे काले साहब के मकान में रहता था, अब बल्लीमारान हूं किराए की हवेली में रहता हूं। इमली का मुहल्ला कहां और मैं कहां?’

गौरतलब है कि एक जमाने में बल्लीमारान को बेहतरीन नाविकों के लिए जाना जाता था इसीलिए इसका नाम बल्लीमारान पड़ा यानी बल्ली मारने वाले। इसी तरह, 5 दिसंबर 1857 के खत में भी गालिब आपने रहने के स्थान के बारे में बताते हैं कि ‘और मैं जिस शहर में हूं, उसका नाम भी दिल्ली और उस मुहल्ले का नाम बल्लीमारान का मुहल्ला है, लेकिन एक दोस्त उस जन्म के दोस्तों में से नहीं पाया जाता! वल्लाह! ढूंढ़ने को मुसलमान इस शहर में नहीं मिलता! क्या अमीर क्या गरीब, क्या अहले (दस्तकार) हिर्फा। अगर कुछ हैं, तो बाहर के हैं। हुनूद (हिन्दू) अलबत्ता कुछ आबाद हो गए हैं। अब पूछो के तू क्यों कर मसकने (पुराना निवास स्थान) कदीम में बैठा रहा। साहबे बंदा, मैं हकीम मुहम्मद हसन खां मरहूम (स्वर्गीय) के मकान में नौ दस बरस से किराए पर रहता हूं और यहां करीब क्या बल्के दीवार ब दीवार हैं घर हकीमों के, और वौ नौकर हैं राजा नरेंद्रसिंह बहादुर वाली (पटियाला नरेश) ए-पटियाला के। राजा ने साहबाने आलीशान से अहद (वचन) ले लिया था के बरवक्त (दिल्ली के विध्वंस के बाद) गारते देहली ये लोग बचे रहें। राजा के सिपाही आ बैठे और ये कूचा महफूज रहा, वरना मैं कहां और ये शहर कहां?

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