जीवन को मंगलमय बना रहा 800 एकड़ का समृद्ध जंगल
हेमंत कश्यप, जगदलपुर आर्थिकी और पारिस्थितिकी के बीच के संबंध को समझने के लिए हमें उन आदिम
By JagranEdited By: Updated: Mon, 28 May 2018 09:16 PM (IST)
हेमंत कश्यप, जगदलपुर
आर्थिकी और पारिस्थितिकी के बीच के संबंध को समझने के लिए हमें उन आदिम आदिवासी समाजों की ओर भी रुख करना होगा, जो नि:संदेह पारिस्थितिकी को हमसे कहीं बेहतर समझते आए हैं और बड़े जतन से इसका संरक्षण करते आए हैं। इसे भले ही आज उनका पिछड़ापन कहा जाए, लेकिन उन्होंने पारिस्थितिकी को सदैव प्राथमिकता दी, वहीं विज्ञान के बूते विकास की अंधी दौड़ में दौड़ता आया आधुनिक समाज आज जिस मोड़ पर आ खड़ा हुआ है, वहां न तो सांस लेने को हवा है और न ही पीने को पानी। भंट्टी की तरह तपते कंक्रीट के जंगलों में सड़ांध, घुटन और सैकड़ों बीमारियों के बीच वह जो जीवन जी रहा है, क्या यही विकास का मतलब है? पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण, मृदा संरक्षण, जैविक कृषि, प्रकृति का संरक्षण, जलवायु का संरक्षण के नारे चारों ओर गूंज रहे हैं। अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष शुरू हो चुका है। आज कौन अधिक समझदार साबित हुआ है, आदिम समाज या आधुनिक समाज? समझा रहे हैं संतुलित विकास के मायने छत्तीसगढ़ में बस्तर जिला मुख्यालय से नौ किलोमीटर दूर स्थित ग्राम भाटीगुड़ा और इसके आस-पास के सात गांवों के सैकड़ों ग्रामीण मिलकर गत चार दशक से 800 एकड़ के जंगल को सहेज रहे हैं। चार दशक पहले जब इस जंगल पर संकट आते दिखा, ग्रामीण इसकी हिफाजत को एकजुट हो गए। तब से सभी ग्रामीण मिलकर इस जंगल का संरक्षण कर रहे हैं। वे पेड़ों की सुरक्षा के लिए चौकीदारी करते हैं। यहा पेड़ काटने पर पूरी तरह प्रतिबंध हैं। साल का यह समृद्ध जंगल यहां के ग्रामीणों की जिंदगी बन चुका है। जंगल से ही ग्रामीणों का निस्तार होता है। यही जंगल उनकी मवेशियों का चारागाह भी है। इस जंगल से ही प्रख्यात बस्तर दशहरा के रथ के लिए पहली लकड़ी लाई जाती है।
54 साल से चल रही मुहिम
करीब 72 वर्षीय जयराम बघेल इनके प्रेरणास्त्रोत हैं। इनका मानना है कि पेड़ों की जिंदगी का मोल इंसानी जिंदगी से बिल्कुल कम नहीं। ये पेड़, ये जंगल ही जीवन का आधार हैं। हम इससे समझौता कभी नहीं करेंगे। भाटीगुड़ा निवासी जयराम बघेल ने आज से 54 साल पहले करीब 200 एकड़ में फैले गाव के साल के जंगल को बचाने की पहल की थी। उस समय वे सिर्फ 18 साल के थे। तब से हाथ में टंगिया लिए जंगल की रखवाली कर रहे हैं। आज भी वे रोजाना सुबह जंगल का एक चक्कर जरूर लगाते हैं। जंगल के प्रति उनका प्रेम देख बिलोरी, बहादुरगुड़ा, सुलियागुड़ा, बैदारगुड़ा, चितापदर व पोड़ागुड़ा के ग्रामीण भी प्रेरित हुए। वक्त केसाथ कारवां बनता गया।
चौकीदार भी रखे हैं, सालाना देते हैं पारिश्रमिक जयराम बताते हैं कि जंगल की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए उन्होंने चौकीदार भी रखे हैं। उन्हें सालाना आठ हजार रुपये पारिश्रमिक देते हैं। यह राशि धान बेचकर जुटाते हैं। सात गावों के लिए नियम बना दिया गया है कि प्रति वर्ष धान कटाई के बाद बड़े किसान 50 किलो, छोटे किसान 30 किलो, अन्य ग्रामीण 20 किलो धान कोठी में जमा करेंगे। लोग खुशी-खुशी इसमें योगदान करते हैं। ------------------- भाटीगुड़ा सहित सात गावों के ग्रामीण अपने साल के जंगल के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। इन जंगलों को सबसे अधिक खतरा जलाऊ लकड़ी बेचने वालों से है, परंतु ग्रामीण उनसे अपने स्तर पर निपट लेते हैं। इसीलिए जंगल सघन होता जा रहा है। जंगल को कांटेदार तार से संरक्षित कर लोकोपयोगी बनाने पर भी ग्रामीणों से चर्चा हो रही है। - वी. श्रीनिवास राव, मुख्य वन संरक्षक, जगदलपुर वनवृत्त।
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