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राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से 'भक्ति परंपरा का प्राच्यवादी पाठ' पुस्तक का विमोचन

जासं, नई दिल्ली : गुरु की भक्ति या गुरु के प्रति समर्पण का अर्थ यह नहीं है कि हम असहमति का अधिकार

By JagranEdited By: Updated: Tue, 03 Jul 2018 12:58 AM (IST)
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राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से 'भक्ति परंपरा का प्राच्यवादी पाठ' पुस्तक का विमोचन

जासं, नई दिल्ली : गुरु की भक्ति या गुरु के प्रति समर्पण का अर्थ यह नहीं है कि हम असहमति का अधिकार खो देते हैं। श्रद्धा भाव के बावजूद हमें असहमति व्यक्त करनी चाहिए। असहमति से ही तर्कशीलता का विकास होता है और ज्ञान की नई राह खुलती है। आज का समय 'नियो-इललिटरेसी' का हो चला है। हम बिना समझे, पढ़े या बिना तर्क किए चीजों को खारिज या स्वीकार कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति साहित्य, समाज, राजनीति सबके लिए घातक है।

यह बातें यूनियन पब्लिक सर्विस कमिशन (यूपीएससी) के पूर्व सदस्य एवं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के सभागार में रविवार को आयोजित डॉ. तृप्ति श्रीवास्तव की सद्य: प्रकाशित पुस्तक 'भक्ति परंपरा का प्राच्यवादी पाठ' के विमोचन के अवसर पर बतौर मुख्य अतिथि कहीं। प्रोफेसर अग्रवाल ने कहा कि औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने हिंदी और हिंदीयेतर भक्ति साहित्य का जिस तरीके से पाठ किया, निश्चित तौर पर उसकी आलोचना की जानी चाहिए, तकरें के आधार पर उन स्थापनाओं का खंडन किया जाना चाहिए, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बहुत सारा साहित्य ऐसा है जो अंग्रेजों के आने के बाद ही प्रकाश में आ सका। अशोक के शिलालेखों में क्या लिखा है, इसे औपनिवेशिक काल में ही समझा जा सका। उन्होंने कहा कि भारतीय भक्ति साहित्य के कबीर, तुलसी, तुकाराम का साहित्य आम लोगों की जुबान पर बरबस मौजूद है। यही भक्त कवियों की विशिष्टता है। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक भक्ति साहित्य के प्राच्यवादी पाठ-दृष्टि में विमर्श की नई संभावना तलाशती है।

कार्यक्त्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित भगत सिंह संग्रहालय एवं रिसोर्स सेंटर के संस्थापक प्रोफेसर चमन लाल ने कहा कि श्रद्धा एवं भक्ति, ज्ञान के शत्रु हैं। बिना विश्लेषणात्मक दृष्टि के ज्ञान का विकास संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक तकरें के आधार पर भक्ति साहित्य के औपनिवेशिक पाठ की कई स्थापनाओं पर सवाल खड़ी करती है, इसलिए महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि 'प्राच्यवाद' बहुत महत्वपूर्ण टर्म है। औपनिवेशिक काल ने जो 'नॉलेज' पैदा किया है, उसे यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता। उसे तकरें की कसौटी पर परखकर ही नई स्थापना प्रस्तुत की जा सकती है।

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के सहायक संपादक दीपक गुप्ता ने कहा कि नेशनल बुक ट्रस्ट ऐसे शोध को प्रोत्साहित करता है जो विमर्श की नई राह खोलते हैं। उन्होंने कहा कि नेशनल बुक ट्रस्ट ने हाल के वषरें में कई युवा लेखकों को प्रकाशन का अवसर दिया है और एनबीटी के दरवाजे हमेशा युवा लेखकों के लिए खुले हैं।

स्वागत संबोधन में कार्यक्त्रम का आयोजन करने वाली संस्था परिवर्तन के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार जगदीश लाल ने कहा कि आज प्रतिस्पर्धा का दौर है। साहित्य हो अथवा प्रत्रकारिता, तेजी के चक्कर में तथ्यों से समझौता किया जा रहा है। यह प्रवृत्ति साहित्य के शोधार्थी और समाज के शोधार्थी यानि पत्रकार दोनों के लिए घातक है।

पुस्तक की लेखिका एमिटी विश्वविद्यालय, नोएडा की असिस्टेंट प्रोफेसर, तृप्ति श्रीवास्तव ने कहा कि यह पुस्तक जेएनयू में अध्ययन के दौरान कक्षा और बहस-मुबाहिसों में उठने वाले तमाम प्रश्नों को लेकर मेरे मन में चल रहे द्वंद्व का एकालाप है। उन्होंने कहा कि यह मेरी शोधयात्रा का एक पड़ाव है। उन्होंने पुस्तक के प्रकाशन के लिए राष्ट्रीय पुस्तक न्यास और उसके अध्यक्ष बलदेव भाई शर्मा को आभार ज्ञापित किया।

एमिटी विश्वविद्यालय के विजिटिंग असिस्टेंट प्रोफेसर, प्रेमपाल ने कहा कि प्राच्यवाद एवं भक्ति परंपरा के बीच एक अंतरसंबंध है। यह पुस्तक उन संबंधों पर प्रकाश डालती है।

कार्यक्त्रम का आरंभ जगदीश लाल ने अतिथियों को शाल ओढ़ाकर एवं प्रतीक चिह्न देकर किया। कार्यक्त्रम का संचालन मोरारजी देसाई योग संस्थान में सहायक प्रोफेसर वंदना सिंह ने किया। कार्यक्त्रम में वरिष्ठ पत्रकार कमलेश त्रिपाठी, प्रमोद झा, संजय सिंह, दिनेश श्रीनेत, नीलम, सुमन अग्रवाल सहित बड़ी संख्या में साहित्यप्रेमी एवं शिक्षार्थी उपस्थित थे।

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