Move to Jagran APP

उप्र के हाथ, हरियाणा की मिट्टी दिल्ली को करते हैं जगमग

अर¨वद कुमार द्विवेदी, दक्षिणी दिल्ली दिवाली की तैयारियों के लिए बाजार सज गए हैं। बाजार में चाइनीज

By JagranEdited By: Updated: Wed, 31 Oct 2018 10:54 PM (IST)
Hero Image
उप्र के हाथ, हरियाणा की मिट्टी दिल्ली को करते हैं जगमग

अर¨वद कुमार द्विवेदी, दक्षिणी दिल्ली

दिवाली की तैयारियों के लिए बाजार सज गए हैं। बाजार में चाइनीज लाइ¨टग, झालर व लड़ियों से लेकर चाइनीज पटाखे तक बेचे जा रहे हैं, लेकिन राजधानी में मिट्टी के दीये के कद्रदानों की भी कमी नहीं है। चाइनीज दीये भले ही सस्ते हैं, लेकिन उनमें न तो मिट्टी की महक आती है और न ही त्योहार की भावना। दिल्ली के गांवों के लोगों का तो कहना है कि मिट्टी के दीये के आगे चाइनीज दीये नहीं टिक पाएंगे। दीये बनाने वाले परिवार के लोग भी यही मानते हैं कि उनके दीये लाखों में एक हैं। इन्हें बनाने में ज्यादा मेहनत और ज्यादा लागत जरूर आती है, लेकिन ये भारतीयता की खुशबू से भरे हैं। मैदानगढ़ी गांव में तो पांच-छह परिवार आजकल दिनरात दीये बनाने में जुटे हैं, ताकि वे दिवाली पर इनकी आपूर्ति कर सकें।

अपने काम से प्यार है

मूलरूप से उत्तर प्रदेश के मथुरा निवासी अर¨वद ने बताया कि उनके पिता भोपाल यहां पर कई साल से मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते थे। उन्हीं से उन्होंने यह काम सीखा। बुधवार को भी पिता के साथ चाक पर दीये बना रहे अर¨वद ने बताया कि पहले हाथ से चाक चलाना पड़ता था, लेकिन अब इलेक्ट्रिक चाल उपलब्ध है। इसलिए इन पर काम तेजी से होता है। उन्होंने बताया कि बड़ा दीया थोक भाव में करीब एक रुपये प्रति पीस बिकता है, लेकिन मार्केट में यह लोकेशन व दुकान के हिसाब से डेढ़ से दो रुपये प्रति पीस बिकता है, वहीं, दो बाती व चार बाती वाले दीये करीब दो रुपये प्रति पीस बाजार में मिलते हैं। उन्होंने बताया कि चाइनीज दीये आने से भी मिट्टी के दीयों की बिक्री पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। उन्होंने बताया कि लोग काम व कला की कद्र करते हैं। त्योहार को अपनी परंपराओं के अनुसार मनाते हैं। इसलिए मिट्टी के दीये ले जाते हैं। गांव के प्रधान महावीर ¨सह ने बताया कि बहुत से लोग यहां पर खरीदारी के समय अपने बच्चों को भी साथ लाते हैं, ताकि उन्हें पता चल सके कि मिट्टी के दीये व बर्तन कैसे बनते हैं। चाक पर गीली मिट्टी से बने बर्तन को धागे से काटकर अलग करना, चरखी से उस पर डिजाइन बनते देखना बच्चे के लिए काफी रोमांचकारी होता है।

हरियाणा से आती है मिट्टी

यहां वर्षो से मिट्टी के बर्तन बनाने वाले रमेश ने बताया कि उन्हें अपने पिता स्व. देवीलाल से काम सीखा था। रमेश ने बताया कि वे बचपन से ही बर्तन बनाने लगे थे। उन्होंने बताया कि दीये व अन्य बर्तन बनाने के लिए दिल्ली की मिट्टी उपयुक्त नहीं है। हरियाणा के माड़व गांव से काली (मजबूत) मिट्टी आती है। यह चिकनी मिट्टी होती है, वहीं पलवल से हल्की पीली मिट्टी आती है। यह अपेक्षाकृत कमजोर होती है। ये दोनों तरह की मिट्टी 10 हजार रुपये प्रति ट्राली मिलती है। दोनों को कूटकर महीन किया जाता है। फिर दोनों मिट्टी को बराबर-बराबर मिलाते हैं और सानकर गोंदा बनाते हैं। फिर इसे चाक पर चढ़ाकर बर्तन और दीये बनाए जाते हैं। बर्तन बनाने के बाद उसे सूखने में दो-तीन दिन लगते हैं। फिर उसे भट्ठी में पकाया जाता है जिसमें दो-तीन घंटे लगते हैं। वहीं, सुजान ¨सह ने बताया कि यहां पर दीये के अलावा दही जमाने की परात, गमला, गुल्लक, मटका, कलश, घड़े, मैरखुजा (पैर साफ करने के लिए) आदि बनाया जाता है। बलबीर, गजराज व मूलचंद आदि ने बताया कि वे यहां पर वर्षो से बर्तन व दीये बनाते आ रहे हैं। यहां से लोग फुटकर व थोक दोनों मात्राओं में सामान ले जाते हैं।

आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।