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सिनेमा के लिए पागलपन जरूरी है : विनीत कुमार सिंह

स्मिता श्रीवास्तव, नई दिल्ली हिंदी सिनेमा में करियर बनाने के लिए मैं वर्ष 1999 में मुंबई गया था।

By JagranEdited By: Updated: Mon, 02 Jul 2018 09:13 PM (IST)
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सिनेमा के लिए पागलपन जरूरी है : विनीत कुमार सिंह

स्मिता श्रीवास्तव, नई दिल्ली

हिंदी सिनेमा में करियर बनाने के लिए मैं वर्ष 1999 में मुंबई गया था। अगर मैं निगेटिव रहता तो आगे बढ़ नहीं पाता। करीब चौदह वर्ष बाद अपने लिए स्क्रिप्ट लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। निर्माताओं से नहीं कह पाता कि मुझे हीरो लेकर फिल्म बना दो। यह पागलपन जरूरी है। यह पागलपन तभी हो पाता है, जब हम अपना जोश कायम रखें। यह बात अभिनेता विनीत कुमार सिंह ने नौवें जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान आयोजित परिचर्चा के दौरान कही। उन्होंने अपने द्वारा लिखित रैप गाने को भी सुनाया, जिसके बाद हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। उनके साथ मुक्काबाज की अभिनेत्री जोया हुसैन भी थीं। कार्यक्रम का संचालन दैनिक जागरण के एसोसिएट एडीटर (एंटरटेनमेंट) अनुज अलंकार ने किया।

विनीत आयुर्वेदिक डॉक्टर भी हैं। अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि मुंबई में मेरा कोई भी परिचित फिल्म इंडस्ट्री से नहीं था। बड़े फिल्म मेकर से मिलने के लिए उनके दफ्तर जाता था, लेकिन सिक्योरिटी गार्ड रोक देता था। एक महीने तक प्रयास करने के बाद गार्ड भी मुस्करा देता था। वह मुझे बताता था कि फला असिस्टेंट डायरेक्टर है। उसे भी मैं अपनी प्रगति मानता था। अगर मैं यह दृष्टिकोण नहीं रखता तो मुकाम हासिल नहीं कर पाता। मेरी कोशिश बेहतर चीजों को तलाशने की होती है। वही आपको खुश रखती है। मेरे संघर्ष को बच्चे भी देखते हैं। उन्हें लगता है कि अगर यह शख्स इतना संघर्ष कर सकता है तो क्या हम साइकिल की जिद छोड़कर पैदल नहीं जा सकते।

फिल्म मुक्काबाज के लेखन से भी विनीत सिंह जुड़े रहे हैं। वह बताते हैं कि फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर', 'बाबे टॉकीज' और 'अगली' के बाद मुझे वैसे किरदार ही ऑफर हो रहे थे। मैं खुद से सवाल करता कि क्या मैं मुंबई महज सामान्य रूप से जीने के लिए आया हूं। ऐसी बात है तो डॉक्टरी करता। मेरे पास अच्छी स्क्रिप्ट नहीं आती। मैं किसी पर अपनी फिल्म में लेने का दबाव नहीं बना सकता। मैंने खुद ही लिखना शुरू किया। अपने जीवन के रोचक अनुभवों को उठाया। खेल आधारित फिल्में तब बनती हैंजब खिलाड़ी बड़ा पदक जीत लेता है। पदक जीतने के बाद उसकी जिंदगी बदल जाती है, लेकिन उससे पहले उसे कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। मैं खुद राष्ट्रीय स्तर पर बॉस्केटबॉल का प्लेयर रहा हूं। उन कठिनाइयों से वाकिफ हूं। वहीं से मेडल जीतने के पहले की कहानी लिखने का आइडिया आया।

मुक्काबाज में जोया हुसैन ने मूक लड़की सुनैना का किरदार निभाया है। किरदार के बाबत जोया कहती हैं कि मैं थिएटर बैकग्राउंड से हूं। थिएटर में आवाज, भाव भंगिमाओं और बॉडी लैंग्वेज एक साथ काम करती है। मैं थोड़ा अंतर्मुखी हूं। लिहाजा मेरे लिए चुप रहना मुश्किल नहीं था। हिंदी सिनेमा में महिला प्रधान फिल्मों का दौर है। मुक्काबाज महिला प्रधान नहीं थी। इसके बावजूद उनका रोल अच्छा था। महिला किरदारों के संबंध में जोया कहती हैं कि मुझे नहीं लगता कि हर मुद्दा फेमिनिस्ट मुद्दा है। हमारे देश में हर मुद्दा फेमनिस्ट बना दें तो भी काफी नहीं है। हम सब तरह के हालात से वाकिफ हैं। यह फिल्मों में दिखाया भी गया है।

------------------------- दुविधा में पड़ी मा ने पूछा सवाल

विनीत के संघर्ष दास्तान को सुनकर दर्शक वर्ग में मौजूद एक मा भी दुविधा में पड़ गई। उन्होंने बताया कि उनके बेटे ने उनकी इच्छा पूरी करने के लिए इंजीनियरिंग और एमबीए किया। वह रात-रात गिटार बजाता था। एक्टिंग करता था। हमने उसे इस क्षेत्र में नहीं आने दिया। आप क्या सुझाव देंगे। विनीत ने उनके दर्द को समझते हुए कहा कि आप उसे दो महीने के लिए मामूली राशि के साथ मुंबई भेज दें। वहा जाकर संघर्ष करने दें। उन्हें समझ आ जाएगा कि क्या करना है।

---------------------------- मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी की छात्रा रही हूं। यहा पर चुनिंदा फेस्टिवल मसलन हैबिटेट और ओशियान फेस्टिवल का आयोजन होता था। फिर जागरण फिल्म फेस्टिवल का आगाज हुआ। मैं उसे देखने जाती थी। अब मेरी फिल्म 'मुक्काबाज' उसमें प्रदर्शित हुई है। अपनी खुशी को शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती। यह फेस्टिवल देश के 18 शहरों में जाता है। आम धारणा है कि छोटे शहरों में लोग कमर्शियल फिल्म देखते हैं। हालाकि वैसा नहीं है। जागरण फिल्म फेस्टिवल के माध्यम से छोटे शहरों में भी उम्दा सिनेमा पहुंच रहा है। यही उसकी यूएसपी है।

-जोया हुसैन

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