Delhi Farmers Protest: देश की राजधानी दिल्ली पर हावी होती सस्ती राजनीति
किसी एक को उसका अधिकार दिलाने के नाम पर दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। पुलिस को भी कानून व्यवस्था बनाए रखनी चाहिए। प्रदर्शनकारियों को भी आत्म अनुशासन और स्वयं की जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Fri, 11 Dec 2020 10:57 AM (IST)
नई दिल्ली, संजीव गुप्ता। बार बार बंधक बनती दिल्ली का दुर्भाग्य यह है कि सस्ती राजनीति देश की राजधानी पर हावी होती जा रही है। इसे लोकतंत्र का नकारात्मक पक्ष भी कहा जा सकता है। जब जिसका जहां मन करता है, विरोध करने बैठ जाता है। नाम दिया जाता है शांतिपूर्ण प्रदर्शन का और बंधक बना दिया जाता है लाखों लोगों को। वोट बैंक की राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि विरोध खत्म करने के बजाए उसे और भड़काया जाता है। इस समस्या से निजात न तो सहज है और न ही मुमकिन।
मसला चाहे शाहीन बाग का हो या किसान आंदोलन का यह मुददा किसी भी स्तर पर दिल्ली वासियों से जुड़ा नहीं है। लेकिन केंद्र सरकार दिल्ली में ही बैठती है, इसलिए अपनी आवाज उन तक पहुंचाने के लिए विरोध करने वाले भी दिल्ली में डेरा डाल देते हैं। यहां उस विरोध को मीडिया में सुर्खियां भी मिल जाती है और शासन-प्रशासन का ध्यान भी आसानी से आर्किषत हो जाता है। लेकिन इन सब के बीच यह देखा ही नहीं जाता कि उनके विरोध की सफलता कितनों की परेशानी के दम पर सुनिश्चित हो रही है।
स्वस्थ राजनीति का अभाव : मौजूदा किसान आंदोलन की बात करें तो न तो दिल्ली और न ही यहां रहने वालों का ही खेतीबाड़ी या कृषि कानूनों से कोई लेना देना है। बावजूद इसके वे इस आंदोलन की आग में झुलस रहे हैं। बॉर्डर लगभग सील होने से दिल्ली वासी अन्य राज्यों से भी कट गए हैं। इस आंदोलन को शांतिपूर्ण भी नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शब्दों में जब हम दूसरे के अधिकारों का हनन करने लगते हैं तो वह भी एक तरह की हिंसा ही है। यहां भी ऐसा ही हो रहा है। विडंबना यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी को नीचा दिखाने के लिए विपक्षी पार्टियां भी ऐसे विरोध प्रदर्शनों में आग में घी डालने का काम करती रहती हैं।
अब सवाल यह है कि इस समस्या से निजात कैसे मिले? मेरा मानना है कि लिखित रूप में नियम कायदे सब बने हुए हैं, लेकिन उन पर अमल इतना सरल नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह सस्ती राजनीति है। राजनीति में आज विरोध के लिए विरोध होता है। विपक्ष इस बात को जानता और मानता है कि सत्ता पक्ष का निर्णय जनहित में है, फिर भी वह उसके नकारात्मक पहलुओं को ही उजागर करेगा। स्वस्थ राजनीति का अभाव किसी विवाद को सुलझने ही नहीं देता। विरोध प्रदर्शन के लिए जंतर मंतर और रामलीला मैदान निर्धारित हैं, लेकिन प्रदर्शनकारी वहां जाना नहीं चाहते, क्योंकि वे जानते हैं कि जब तक दूसरों के अधिकारों का हनन नहीं करेंगे, उनके जीवन को प्रभावित नहीं करेंगे, उन्हें भी उनके अधिकार नहीं मिलेंगे।
जिम्मेदारियों का हो एहसास : मेरे विचार में दिल्ली को बंधक बनने से बचाने के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार को मिलकर काम करना होगा। पुलिस केंद्र के अधीन है जबकि प्रशासन दिल्ली सरकार के अधीन। दोनों सरकारों को संयुक्त रूप से यह तय करना होगा कि दिल्ली के किन स्थानों पर कोई आंदोलन या प्रदर्शन नहीं हो। तय संख्या से ज्यादा लोग वहां एकत्रित न होने दिए जाएं। सुप्रीम कोर्ट के भी स्पष्ट निर्देश हैं कि ऐसे किसी भी रास्ते को बाधित नहीं किया जा सकता, जिससे आम जन जीवन अस्त व्यस्त होता हो।
दिल्ली सरकार को सोचना होगा कि उसकी बड़ी जिम्मेदारी दिल्ली वासियों के प्रति भी बनती है। अन्य राज्यों के निवासियों को सहूलियत देने की कीमत पर वह दिल्ली के निवासियों को परेशानी में नहीं डाल सकती। अन्य राजनीतिक पार्टियों को भी यह ध्यान रखना होगा कि दिल्ली देश की राजधानी ही नहीं, करीब दो करोड़ लोगों का बसेरा भी है। राजनीति का एक स्तर होना चाहिए। [उमेश सैगल, पूर्व मुख्य सचिव दिल्ली सरकार]Coronavirus: निश्चिंत रहें पूरी तरह सुरक्षित है आपका अखबार, पढ़ें- विशेषज्ञों की राय व देखें- वीडियो
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