Gulzar Birthday: कुछ तो जादू है उनकी बातों में, 18 बरस के जवान और 80 साल के बुजुर्ग भी हैं दीवाने
Happy Birthday Gulzar गुलजार ने हिंदी फिल्मों को कई शानदार गाने दिए हैं वो गीत जो कान में पड़ जाएं तो कदम ठिठक जाते हैं और दिल चाहता है कि कुछ देर सुन लिया जाए। यह सिलसिला अब भी जारी है।
By Jp YadavEdited By: Updated: Thu, 18 Aug 2022 08:13 AM (IST)
नई दिल्ली, जागरण डिजिटल डेस्क। Happy Birthday Gulzar: हमें अगर किसी के बारे में 'सब कुछ' मालूम हो और फिर उस शख्सियत के बारे में 'कुछ' लिखना पड़े तो यह सबसे मुश्किल होता है। लिखने वाला सोचता है कि आखिर वह क्या परोस दूं जो ताजा और नया लगे। ऐसी ही एक शख्सियत हैं संपूरण सिंह कालरा, जिन्हें ज़माना गुलजार के नाम से जानता है।
दरअसल, मशहूर गीतकार और फिल्मकार गुलजार 18 अगस्त को अपना जन्मदिन मनाने जा रहे हैं। दिल्ली में बल्लीमारान की तंग गलियों से लेकर मुंबई में खुले आसमान की सैर अपने गानों के जरिये कराने वाले गुलजार की सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह दशकों से गाने लिख रहे हैं बिना थके-बिना रुके।
आवाज में कुछ बात तो है
टेलीविजन विज्ञापनों और फिल्मी गीतों में जब उनके हिंदी और उर्दू के शब्दों में संवाद सुनने को मिलते हैं तो दिल खुश हो जाता है। मंचों पर जब वह कुछ कहते हैं तो वह बात ही शायरी की तरह लगती है, इसलिए टेलीविजन पर आने वाले विज्ञापनों में गुलजार साहब की आवाज का इस्तेमाल निर्माताओं ने जानबूझकर किया है। दरअसल, गुलजार की बातें भी किसी जादू से कम नहीं लगती हैं जो दिल को पसीज देती हैं।
लाजवाब है गुलजार की शायरी का अंदाज
गुलजार की आवाज में सोशल मीडिया पर मौजूद शायरी सुनकर लोगों के कदम थम जाते हैं। उनकी आवाज का ही जादू है कि 18 साल का जवान और 80 साल का बुजुर्ग दोनों साथ में बैठकर गुलजार की नज़्में सुनते हैं और सराहते हैं। यह गुलजार साहब की लोकप्रियता ही है कि वह मचों पर जब नज़्म पढ़ते हैं तो चुपचाप-ख़ामोश होकर सिर्फ उन्हें ही सुनते हैं।
दिल्ली की गलियां और ग़ालिब आज की दिल्ली कभी सिर्फ पुरानी दिल्ली तक ही सिमटी थी। यहां पर शायरी भी खूब होते हैं। महीन कहने वाले तो जहीन सुनने वाले होते थे। वह दौर गुलजार की आंखों के सामने गुजरा तो उनकी शायरी में नज़र भी आया। दिल्ली में गुलजार साहब का बचपन गुजरा है और उन्होंने बचपन को कुछ इस अंदाज में जिया कि वह उनके जेहन में छप गया।यही वजह है कि ग़ज़लों, नज़्मों और फिल्मों गीतों में भी दिल्ली के गलियों का जिक्र हुआ है। डेढ़ दशक पहले आई अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्य बच्चन अभिनीत फिल्म 'बंटी बबली' में 'कजरारे-कजरारे' गीत में 'बल्लीमारान की गलियों' का जिक्र है। पूरी गीत सुनियो तो आपको लगेगा कि गीत में बल्लीमारान की गलियों का जिक्र अनायास ही नहीं होता है। अच्छी बात यह है कि गीत में यह शब्द कुछ इस अंदाज में बुना गया है कि वह सुनने के दौरान शहद की तरह कानों में घुल जाता है।
दिल्ली में रहे तो ग़ालिब की शायरी से कर ली गलबहियां दिल्ली के 1000 साल के इतिहास में बहुत सी शख्सियतें हैं कुछ लुभाती तो कुछ डराती हैं, लेकिन शायर मिर्जा गा़लिब वह शख्स हों जो लोगों के भीतर समा गए हैं। दिल्ली में रहने के दौरान गुलजार साहब भी मिर्जा ग़ालिब से अलग ना रख सके और उनकी शायरी से इश्क कर बैठे। गुलजार साहब की मानें तो वह जब दिल्ली के एक स्कूल में पढ़ते थे तो उन्हें उर्दू के प्रति गहरा लगाव हो गया। उसकी एक बड़ी वजह थे ग़ालिब। किस्मत ऐसी ही एक मौलवी मुजीबुर्रहमान उर्दू पढ़ाते थे।
उनकी खूबी थी कि वह एक ग़ज़ल को तरन्नुम के साथ पढ़ते थे। यह अंदाज गुलजार को खूब भाता था। इसके अलावा मौलवी साहब एक-एक शेर के मायने बताते थे। समझ नहीं आने पर उसे दोबारा बताते-समझाते थे। इस दौरान मौलवी साहब ने ग़ालिब के बारे में भी पढ़ाया तो भा गई उनकी ग़ज़लें और नज्में। यही से ग़ालिब और उनकी शायरी से संपूर्ण सिंह कालरा यानी गुलजार साहब इश्क कर बैठे। यह इश्क अब भी जारी है।खुद को बताया है कल्चरली मुसलमान
झेलम नदी के किनारे बसे झेलम शहर के दीना में मक्खन सिंह के घर 18 अगस्त, 1934 को जन्में संपूर्ण सिंह कालरा की शायरी में दर्द और खुशी दोनों की बराबर की कशिश देखने को मिलती है। दरअसल, पाकिस्तान -भारत के बंटवारे में गुलजार का परिवार भारत आ गया। बंटवारे का दर्द उनकी शायरी में है। एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद को कल्चरली मुसलमान बताया है। इसके पीछे हैं हिंदी और उर्दू का वह संगम। गुलजार का बतौर फिल्मी गीतकार सफर 1963 में आई बिमल रॉय की फिल्म 'बंदिनी' से शुरू हुआ। गुलजार का लिखा और फिल्म में नूतन पर फिल्माया गया गाना 'मोरा गोरा रंग लइले' इतना मशहूर हुआ कि बतौर गीतकार गुलजार साहब चले निकले और अब भी उसी तरह चल रहे हैं।
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