Move to Jagran APP

पूर्वोत्तर में स्वाभिमान की लौ जलाने वाली महज 13 साल की रानी गाइडिन्ल्यू

Amrit Mahotsav मणिपुर में पैदा हुईं रानी गाइडिन्ल्यू ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विद्रोह करने वाली नागा नेता थीं। वह केवल 13 साल की थीं जब अंग्रेजों द्वारा लोगों के शोषण को देखकर आंदोलन में कूद पड़ी थीं...

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Fri, 05 Nov 2021 02:59 PM (IST)
Hero Image
रानी देश के भीतर पारंपरिक नागा रीति-रिवाजों, मान्यतओं और परंपराओं की सुरक्षा के लिए निरंतर काम करती रहीं।

मनु त्यागी। स्वातंत्र्य आंदोलन की अंगड़ाई ले स्वाभिमान की रीढ़ देश की हर दिशा से मजबूत हो रही थी। इसमें उत्तर पूर्वी क्षेत्र भी था। वहां भी भगत सिंह और चंद्रशेखर सरीखे आजादी के मतवालों की भांति बाजुओं में दम भरने वाली रानी गाइडिन्ल्यू थीं। जिन्होंने महज 13 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के हर अत्याचार का इस कदर विरोध किया कि वह कुछ ही दिन में उनकी आंखों में खटकने लगीं।

रानी द्वारा जलाई गई स्वाधीनता की मशाल का उजियारा सिर्फ एक जगह तक सीमित नहीं था। बीसवीं सदी के दूसरे दशक के दौर में क्या युवा, क्या बुजुर्ग, क्या पुरुष और क्या महिलाएं हर कोई गाइडिन्ल्यू के संग हो चला था। संघर्ष और अखंडता के उनके जीवन ने उन्हें एक ऐसी प्रतिभा का रूप दिया कि पूरा पूर्वोत्तर उनसे प्रेरित हुआ और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए स्वाभिमान जाग्रत होता गया।

रानी गाइडिन्ल्यू ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विद्रोह करने वाली एक आध्यात्मिक और राजनीतिक नागा नेता थीं। हेराका पंथ के भीतर उन्हें देवी चेराचमदिनलिउ के अवतार के रूप में माना जाता था। रानी का जन्म 26 जनवरी 1915 को मणिपुर में हुआ था। वह केवल 13 वर्ष की थीं जब अंग्रेजों द्वारा जनजातियों लोगों और नागाओं के शोषण को देखकर अशांत हुईं। जंगल में रहने वाले आदिवासियों के अधिकार छिन रहे थे। इससे उनका जीवन भयभीत और दयनीय हो रहा था। यह वह समय था जब भारत स्वतंत्रता आंदोलन की हुंकार के साथ आगे बढ़ रहा था।

ïबीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंतिम वर्षों में ब्रिटिश अधिकारियों ने रानी के आंदोलन को गहरे संदेश के साथ देखना शुरू किया, क्योंकि उन्होंने पाया कि यह आंदोलन उनके अधिकारों को कमजोर कर रहा है। रानी द्वारा चलाया गया आंदोलन ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ एक लोकप्रिय विद्रोह बन गया। कारण, अंग्रेज न केवल लोगों को मजबूर कर श्रम करवा रहे थे, बल्कि उनका उत्पीडऩ भी कर रहे थे। इसके साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाला हर शख्स भी अंग्रेजों के अत्याचार का शिकार हो रहा था।

रानी गाइडिन्ल्यू को भी कुचलने की कोशिश हुई, लेकिन जिसके साथ आजादी के सैकड़ों मतवाले हों उस प्रेरणास्पद नारी को अंग्रेजों के षड्यंत्र भला कैसे छू लेते। अंग्रेजों ने उम्मीद नहीं की थी कि रानी जैसी एक लड़की स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर सकती है। रानी ने ब्रिटिश हितों के खिलाफ काम कर रहे सशस्त्र गुरिल्ला बल का नेतृत्व किया और आजादी की मांग की। यह हुंकार सिर्फ उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में मणिपुर या जनजातीय क्षेत्र तक नहीं थी। यह पूरे देश के लिए आजादी के साथ संयोजन के रूप में थी।

रानी गाइडिन्ल्यू ने अंग्रेजों द्वारा लगाए गए करों का भी खुला विरोध किया। इससे पूर्वोत्तर के लोग उनसे बहुत प्रेरित हुए और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के लिए काम करने से मना किया। इससे परेशान अंग्रेजों ने जब उनकी खोज शुरू की तो वह भूमिगत हो गईं। हालांकि वह चुपचाप लोगों में जागरूकता फैलाने हेतु मणिपुर और नगा पहाड़ी क्षेत्रों में विभिनन्न स्थानों का दौरा करती रहीं। लोग कैसे अंग्रेजों का विरोध कर सकते हैं यह बीज भी आमजन के बीच बोतीं। काफी खोजने के बाद भी जब अंग्रेजों को वह नहीं मिलीं तो उन पर 500 रुपये का पुरस्कार घोषित किया गया। उन दिनों यह एक बड़ी राशि थी, लेकिन लोग इसके प्रलोभन में नहीं पड़े। इसके साथ ही रानी जिस गांव में होतीं, वहां ब्रिटिश सैनिकों के आने पर पूरा गांव उनकी रक्षा के लिए खड़ा हो जाता था। हताश-निराश अंग्रेज जब रानी को नहीं खोज सके तो उन्होंने एक गांव के लिए दस साल के करों से मुक्ति भी घोषित की ताकि रानी के बारे में कोई जानकारी सामने आए, लेकिन उनका यह छलावा भी नहीं चल सका।

गांवों व जंगलों में छिपते-छिपाते और आंदोलन के विस्तार की योजना बनाते हुए पूर्वोत्तर के ही एक गांव पुलोमी में 17 अक्टूबर 1932 को ब्रिटिश सेना ने एक षड्यंत्र के तहत रानी को गिरफ्तार कर लिया था। हालांकि रानी जेल में भी आराम से नहीं बैठीं और स्वतंत्रता आंदोलन के एक अनुभवी नेता के रूप में उभरीं। रानी ने मणिपुर क्षेत्र में गांधी जी के संदेश को भी फैलाया और लोगों को आगे आने और आंदोलन में योगदान देने के लिए प्रोत्साहित किया। वह सिर्फ जेल से ही अपने आंदोलन को पोषित नहीं कर रही थीं। इतने वर्षों में उन्हें जो जन सहयोग मिला था, वह उनके जेल जाने पर आजादी के संघर्ष को और मजबूत बनाता रहा।

रानी के कारावास के दौरान भी उनकी लोकप्रियता को कम नहीं किया जा सका, बल्कि वह और लोकप्रिय हो गईं। उनकी लोकप्रियता की सीमा इस तथ्य से आंकी जा सकती है कि उनके कारावास का मुद़्दा ब्रिटिश हाउस आफ कामंस में उठाया गया था। जवाहलाल नेहरू ने वर्ष 1937 में शिलांग जेल का दौरा किया और उनकी रिहाई के लिए प्रयास करने का वादा किया। रानी देश की आजादी के लिए लड़ रही थीं। कई बार हां करने के बावजूद उन्हें अंग्रेजों द्वारा रिहा नहीं किया गया और उनकी रिहाई होती तब तक देश आजाद हो चुका था।

स्वाभिमान की लौ जलाकर स्वाधीनता हासिल करने के बाद स्वालंबन को बनाए रखना भी तो जरूरी था वर्ना जो आंदोलन सैंकड़ों वर्ष चला था वो निराधार रहता। इसलिए रानी देश के भीतर पारंपरिक नागा रीति-रिवाजों, मान्यतओं और परंपराओं की सुरक्षा के लिए निरंतर काम करती रहीं। एक खास बात यह भी है कि नेहरू ने ही उन्हें रानी का खिताब दिया था। 17 फरवरी 1993 को रानी गाइडिन्ल्यू का मणिपुर में निधन हुआ। उन्हें कई सम्मान और पुरस्कार भी मिले। यही नहीं हिंदुस्तान शिपयार्ड लिमिटेड ने 6 नवंबर 2010 को विशाखापत्तनम में रानी गाइडिन्ल्यू नामक एक गश्ती जहाज का भी शुभारंभ किया।

आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।