कभी दिल्ली का इकलौता पोस्टमार्टम हाउस हुआ करता था अरुणा आसफ अली अस्पताल
पुलिस हास्पिटल को 1984 में नया नाम मिला सिविल हास्पिटल 1994 में हास्पिटल एक्सटेंशन के लिए आधारशिला रखी गई लेकिन जब 1996 में बनकर तैयार हुआ तो उसका नाम अरुणा आसफ अली हास्पिटल कर दिया गया...अब इसी नाम से इसकी पहचान है।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Fri, 21 May 2021 02:25 PM (IST)
विष्णु शर्मा। अरुणा आसफ अली ने जब से भारत छोड़ो आंदोलन में मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में अंग्रेजों को चकमा देकर तिरंगा फहराया था, अंग्रेजी पुलिस और गुप्तचर उनकी तलाश में थे। जब जेल में उनके पति आसफ अली काफी बीमार हो गए, उनको जेल से विलिंगटन हास्पिटल (आज का राममनोहर लोहिया अस्पताल) लाया गया तो अंग्रेजी पुलिस को पूरा भरोसा था कि अरुणा मिलने जरूर आएंगी, तभी उन्हें पकड़ लिया जाएगा। उनसे एक महिला मिलने आई तो उसे पकड़ भी लिया गया, पता चला कि वो अरुणा की बहन पूर्णिमा थीं। फिर आसफ अली को शिमला भेज दिया गया, वहां अरुणा उसी हास्पिटल में नर्स बनकर उनकी सेवा करती रहीं, जब भी पुलिस की कोई टीम आती, अरुणा की जगह कोई और नर्स बदल दी जाती थी।
उस वक्त तक अरुणा को ये एहसास भी नहीं होगा कि एक दिन कभी दिल्ली में उनके नाम पर भी कोई हास्पिटल होगा। हालांकि उनके नाम ये उपलब्धि 1996 में उनकी मौत के बाद हुई। और मेडिकल फील्ड में अरुणा का कोई तजुर्बा भी नहीं थी, लेकिन किशोरावस्था में उनके मन में मदर टेरेसा की तरह वैराग्य जरूर आ गया था, समाज सेवा के लिए।
कालका में पैदा हुईं अरुणा का परिवार बंगाल के बारिसाल (अब बांग्लादेश) से था, उनके नाना त्रिलोकनाथ सान्याल ब्रह्मो समाज के नेता थे, जबकि उनके चाचा धीरेंद्रनाथ गांगुली बंगाली फिल्म इंडस्ट्री के शुरुआती डायरेक्टर्स में से थे जबकि उनके एक मामा नागेंद्रनाथ की शादी रवींद्रनाथ टैगोर की बेटी मीरा देवी से हुई थी। अरुणा की बहन पूॢणमा बनर्जी संविधान सभा की सदस्य चुनी गई थीं। आसफ अली उनसे 23 साल बड़े थे, फिर भी दोनों ने शादी की। इतने उम्रदराज मुसलमान से शादी करने पर उनके मामा ने तब गुस्से में आकर उनको मृत घोषित करके उनका श्राद्ध तक कर दिया था और तब उनको ये तक नहीं पता था कि एक दिन अरुणा आसफ अली को भारत रत्न मिलेगा। आसफ अली कांग्रेस के नेता थे, ऐसे में अरुणा भी उन्हीं के साथ कांग्रेस में सक्रिय हो गईं।
दिल्ली की पहली मेयर भी रहीं अरुणा : 1931 में अरुणा जब जेल गईं तो गांधी-इरविन पैक्ट के बावजूद उनको नहीं छोड़ा गया। तब उनकी महिला साथियों ने रिहाई के बावजूद जेल से बाहर जाने से इन्कार कर दिया। ऐसे में गांधी जी ने दखल दिया, एक विरोध प्रदर्शन किया गया, तब वो बाहर आ सकीं, लेकिन अगले साल फिर तिहाड़ जेल भेजा गया तो जेल में उन्होंने कैदियों के साथ भेदभाव के मुद्दे पर भूख हड़ताल भी कर दी।
10 साल शांति से रहने के बाद जब भारत छोड़ो आंदोलन हुआ तो वो भी कूद गईं, मुंबई के ग्वालिया मैदान में सबको चकमा देकर झंडा फहरा दिया। फरारी के दौरान उनके सिर पर पांच हजार का इनाम रख दिया गया। उन दिनों अलग-अलग जगह वेश बदलकर रहने लगीं। यहां भी एक अस्पताल उनके काम आया, बीमार पड़ीं तो दिल्ली में करोल बाग के डा. जोशी अस्पताल में छिपीं। आजादी के बाद वो कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं, फिर कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर ली। हालांकि दिल्ली की पहली मेयर भी चुनी गईं। दिल्ली ने उनको 1996 में उनकी मौत के बाद इस अस्पताल का नाम रखकर उनको श्रद्धांजलि दी।
यहीं होते थे पूरी दिल्ली के पोस्टमार्टम : दिलचस्प बात ये है कि जो अंग्रेजी पुलिस उनके पीछे सालों तक पड़ी रही थी, उन पुलिस वालों के लिए विशेष तौर पर बना था ये अस्पताल। जो तीस हजारी कोर्ट के पास है, जिसे पहले 'पुलिस हास्पिटल' कहा जाता था, इतना ही नहीं दिल्ली के सारे पोस्टमार्टम यहीं होते थे। इस हास्पिटल के अभी भी तीन हिस्से हैं, एक है 'सब्जी मंडी शवदाह गृहÓ, ये दिल्ली-एनसीआर का सबसे पुराना और सबसे बड़ा शवगृह है, वो भी इसी हास्पिटल के हवाले है। 100 बेड का हास्पिटल तो है ही 1960 में स्थापित हुआ सेवा कुटीर कांप्लेक्स भी है। जिसमें फिलहाल केवल 20 बेड हैं, जो गरीबों के लिए है। 1970 में इसे मुख्य हास्पिटल से ही जोड़ दिया गया था
पुलिस हास्पिटल को 1984 में नया नाम मिला 'सिविल हास्पिटल', 1994 में हास्पिटल एक्सटेंशन के लिए आधारशिला रखी गई, लेकिन जब 1996 में बनकर तैयार हुआ तो उसका नाम अरुणा आसफ अली हास्पिटल कर दिया गया...अब इसी नाम से इसकी पहचान है।
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