Move to Jagran APP

Delhi News: मुस्लिम बच्चों को शिक्षा में पीछे रखने का षड्यंत्र? NCPCR के पूर्व अध्यक्ष ने बताई सच्चाई

नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (NCPCR) की एक रिपोर्ट गार्जियन ऑफ फेथ आर ओप्रेसर्स ऑफ राइट्स कांस्टीट्यूशनल राइट्स ऑफ चिल्ड्रेन वर्सेस मदरसा यानी आस्था के संरक्षक या अधिकारों के बाधक काफी चर्चा में है। इस रिपोर्ट में मदरसों को मिल रही सरकारी फंडिंग पर रोक लगाने और मदरसों के बच्चों को स्कूलों में भेजने का सुझाव दिया गया है। इस रिपोर्ट पर राजनीतिक घमासान भी मचा हुआ है।

By Nimish Hemant Edited By: Monu Kumar Jha Updated: Sat, 26 Oct 2024 06:55 PM (IST)
Hero Image
मुस्लिम बच्चों को शिक्षा में पीछे रखने का षड्यंत्र आजादी पूर्व से: प्रियांक कानूनगो। जागरण
नेमिष हेमंत, नई दिल्ली। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) की एक रिपोर्ट 'गार्जियन आफ फेथ आर ओप्रेसस आफ राइट्स' कांस्टीट्यूशनल राइट्स आफ चिल्ड्रेन वर्सेस मदरसा' यानी 'आस्था के संरक्षक या अधिकारों के बाधक' काफी चर्चा में है। उसपर राजनीतिक घमासान भी मचा हुआ है। रिपोर्ट मदरसों को मिल रही सरकारी फंडिंग को बंद कर मदरसों के बच्चों को स्कूलों में डालने का कठोर सुझाव देता है।

69 पेज की यह रिपोर्ट देश में मदरसों के आरंभ से लेकर मौजूदा दशा, इसके अंधेरे पक्ष और मुस्लिम समाज को आजादी के पहले से शिक्षा के मामले में पीछे रखने की गहरी साजिश से पर्दा उठाता है। जिसपर राजनीतिक कारणों से कोई भी बात करने से कतराता है, लेकिन एनसीपीसीआर के पूर्व अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो ने यह हिम्मत दिखाई है। इस रिपोर्ट को लेकर दैनिक जागरण दिल्ली के वरिष्ठ संवाददाता नेमिष हेमंत ने उनसे विस्तार से बातचीत की।

मदरसे पर रिपोर्ट तैयार करने की आवश्यकता क्यों पड़ी, क्या उनकी स्थिति इतनी चिंताजनक है?

 मदरसा व्यवस्था के नाम पर बच्चों के साथ बड़ा छल हो रहा है। इसमें काफी कुछ जटिल और कई अंधेरा क्षेत्र बनाकर रखा गया है। देश में मदरसों के संचालन में श्वेत-श्याम जैसा कुछ भी नहीं है और यह आजादी के पहले से है। जैसे कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि मुस्लिम समाज के चार प्रतिशत बच्चे मदरसे में हैं।

कमेटी की यह रिपोर्ट एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली ( यूडाइस) के आधार पर है, जिसमें काफी विरोधाभाष है। यूडाइज कोड किसी स्कूल को तब दिया जाता है, जहां शिक्षा के लिए आधारभूत संरचना व सुरक्षा के इंतजाम हों। कक्षा, श्यामपट्ट, बेंच, शौचालय, खेल का मैदान, पुस्तकें तथा योग्य शिक्षक हों, लेकिन अधिकतर मदरसे इन मानक को पूरा नहीं करते हैं। पहला सवाल यह है कि उसे कोड कैसे मिल गया है?

इसे लेकर हमने सभी राज्यों को नोटिस जारी किया, जिसमें सुझाव दिया कि आप यूडाइस में मदरसे को रखना चाहते हो, तो आप उसका अलग वर्ग तय कर दो, लेकिन स्कूल के तौर पर मदरसों को मान्यता मत दो। ऐसा करना बच्चों के साथ धोखा है। दूसरा, मदरसों की ऐसी शृंखला है, जो वक्फ बोर्ड से संबंद्ध है। सवाल यहां यह कि वक्फ बोर्ड जिसका अकादमिक गतिविधियों से कोई वास्ता नहीं है, वह शैक्षणिक प्रमाण पात्रता कैसे बांट सकता है?

तीसरा, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में जिन चार प्रतिशत बच्चों के आंकड़े दिए हैं, वह उन मदरसों के आंकड़े हैं जो मदरसा बोर्ड से संबद्ध हैं और जिनका किसी मस्जिद से जुड़ाव नहीं है, जबकि मदरसा बोर्ड केवल आठ राज्यों में ही है। अब सवाल कि जिन राज्यों में मदरसा बोर्ड नहीं है।

एनसीपीसीआर के पूर्व अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो। फोटो जागरण

उन राज्यों में मदरसा कैसे संचालित हो रहे हैं? ऐसे बहुत सारे स्याह पक्ष हैं। वास्तविकता यह कि बड़ी संख्या में मदरसे बिना पंजीकरण व शिक्षण मानचित्र पर आए बिना और सरकारों की बिना जानकारी के चल रहे हैं। सरकारें भी उनके बारे में जानकारी रखना नहीं चाहती है। कोई यह देखने नहीं जाता है कि वहां बच्चों को कैसी शिक्षा दी जा रही है?

देशभर में ऐसे मदरसो में करीब सवा करोड़ बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। जो पूरी तरह से औपचारिक शिक्षा प्रणाली से बाहर हैं। हम जब भी राज्य सरकारों से मदरसों की सूची मांगते हैं, तो वह मदरसा बोर्ड या वक्फ बोर्ड से संबंद्ध मदरसों की सूची भेज देते हैं। इतने सालों से शिक्षा के मानचित्र से गायब उन मदरसों की बात कोई नहीं करता है। जहां करोड़ों बच्चे पढ़ रहे हैं जो भारत का भविष्य हैं।

क्या देश में मदरसा बोर्ड प्रभावी नहीं है?

वास्तविकता यह कि मदरसा बोर्ड सफेद हाथी की तरह हैं। मिसाल के तौर पर भारत में चलने वाले सबसे बड़े इदारे दारुल उलुम देवबंद है। मदरसा अशरफिया बरेलवी व लखनऊ का दारुल उलूम नदवतुल है। देशभर में ऐसे बड़े अन्य इदारे हैं, जो मदरसा बोर्ड के साथ संबंद्ध नहीं है। ये सब आजाद हैं। ये मुल्क के आजाद होने के पहले से खुद को आजाद मान चुके हैं। अगर मदरसा बोर्ड इतनी प्रभावी संस्था है, तो ये जो मदरसा संचालन के बड़े इदारे हैं, वे उससे पंजीकृत क्यों नहीं हुए? अब जब ये उनको पंजीकृत नहीं करा पाई तो यह संस्थाएं सफेद हाथी हुई न।

सवाल: शिक्षा के मानचित्र से गायब ऐसे मदरसों को लेकर राज्य सरकारों का क्या रुख है? कई सरकारों ने रिपोर्ट का विरोध किया है?

जवाब: हमने रिपोर्ट मांगी थी। केवल गुजरात ने ऐसे मदरसों का सर्वेक्षण कर पहचान कराकर बच्चों को स्कूलों में पंजीकृत कराने की बात कही है। चिंताजनक यह कि केरल की वामपंथी सरकार ने हमारे सुझावों का विरोध किया है। यह स्थिति तब है कार्ल माक्स ने कहा था कि धर्म एक नशा है। सरकार को तो हमारी बात मानते हुए ऐसे मदरसों को बंद करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इसके उलट तुष्टिकरण की राजनीति में केरल सरकार इसका विरोध करने में लगी हुई है। ऐसे लोग बच्चों की शिक्षा का और संविधान प्रदत शिक्षा के अधिकार का विरोध कर रहे हैं। आखिरकार, शिक्षा से बड़ी क्या बात हो सकती है?

वह भी तब जब ऐसे मदरसों में शिक्षा लेने वाले हजारों बच्चे हिंदू हों। विरोध करने वालों में ऐसे कई मुस्लिम नेता भी है जिनके खुद के बच्चे अधिवक्ता व डॉक्टर है। विदेश में पढ़ रहे हैं, लेकिन वह गरीब मुस्लिम बच्चों को मदरसे में रखना चाहते हैं। उनको शिक्षा का अधिकार नहीं देना चाहते हैं।

सवाल: जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसी संस्थाएं कहती हैं कि उनके मदरसों में औपचारिक शिक्षा दी जा रही है?

जवाब: यह एकदम झूठ है। हम किसी भी राज्य का उदाहरण लें। एक भी मदरसा बोर्ड से संबद्ध मदरसों में एनसीआरटी किताबें नहीं पढ़ाई जाती हैं। किताबें सजाकर रख देना भर ही शिक्षा नहीं है। स्कूल का मतलब कि शिक्षा देने वाला शिक्षक योग्य व प्रशिक्षित हो। एक कक्षा हो जिसमें ब्लैक बोर्ड और बेंच हो।

एक स्थान जहां बच्चों के बैठने की व्यवस्था हो। स्कूलों वाला माहौल हो। रंगीन किताबें हों। मदरसे में पढ़ने वाले एक छात्र ने बताया कि मदरसों में रंगीन चित्रों वाली किताबें नहीं लेते हैं। किसी ने कह दिया कि चित्रात्मक तस्वीरों वाली किताबें नहीं लेनी हैं। असल में मदरसों में स्कूलों वाला माहौल नहीं है।

अध्यापन शैली जानने वाला व मूल्यांकन का तरीका समझने वाले शिक्षक नहीं हैं। मदरसों में हिलहिलकर याद करना, बच्चों को सजा के तौर पर छड़ी से पीटना जैसे कृत्य आम है। दारुल उलूम देवबंद ने तो एक फतवा दिया हुआ है कि मदरसों में बच्चो को अनुशासन में रखने के लिए एक वक्त में तीन थप्पड़ मारना जायज है।

सवाल: मदरसों में ऐसा क्या पढ़ाया, सिखाया जा रहा है, जिसे आप सही नहीं मानते हैं?

जवाब: इन्हीं मदरसों में अशरफ अली थानवी की किताब पढ़ाई जा रही थी, जिसमें लिखा था कि बच्चों के साथ सेक्स करने के दौरान क्या सावधानी बरतनी चाहिए। बिहार सरकार से आर्थिक सहायता प्राप्त एक मदरसे में किफायत उल्लाह देहलवी की वह किताब पढ़ाई जा रही है, जिसमें लिखा है कि एक अल्लाह को मानने वाला ही ठीक है। जो एक अल्लाह के अलावा दूसरे को मानता है, वह काफिर कहलाएगा।

काफिर को मुक्ति नहीं बल्कि सजा मिलेगी। यह किताब तालीम उल इस्लाम है, जिसे पाकिस्तान से छपवाकर, मंगवाकर यहां पढ़ाई जा रही है। देश के करदाताओं के पैसे से पाकिस्तान में छपी हुई किताबों से हमारे देश के बच्चों को मदरसों में यह पढ़ाया जा रहा है। वहां पढ़ने वाले हिंदू बच्चे भी यही पढ़ रहे हैं।

सवाल: क्या इस रिपोर्ट का हवाला देते हुए मदरसों को बंद करने की मांग की गई है?

जवाब: हम धार्मिक शिक्षा के विरोधी नहीं हैं। हमारा सुझाव साफ है कि 14 वर्ष की उम्र तक बच्चों को चार से छह घंटे स्कूली शिक्षा जरूर मिले, बाकि के घंटों में और कोई भी शिक्षा दीजिए। बाबा भीमराव आंबेडकर का लिखा संविधान स्पष्ट कहता है कि छह से 14 साल के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा देना शुरू करेंगे। हमारा शिक्षा का अधिकार यह कहता है।

सवाल: क्या मदरसों की वर्तमान स्थिति पहले से भी बदतर है? कौन जिम्मेदार है?

जवाब: सोचिए, बाबा साहेब आंबेडकर के संविधान में यह बात लिखे होने के बावजूद देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने उत्तर प्रदेश के एक मदरसे में खड़ा होकर बोला था कि मुस्लिम बच्चों को दीनी तालीम मिलना ही जरूरी है। स्कूल, विश्वविद्यालयों की शिक्षा उनके लिए नहीं है। जबकि, उस वक्त देश में दो दर्जन विश्वविद्यालय थे।

सवाल: इसका असर मुस्लिम बच्चों की शिक्षा पर क्या पड़ा?

जवाब: अंतर देखिए, वर्तमान में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति दोनों वर्गों के करीब 20 प्रतिशत बच्चे उच्च शिक्षा में हैं। यह हम केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा के आंकड़ों के आधार पर बता रहे हैं, जबकि उच्च शिक्षा में मुस्लिम बच्चों की भागीदारी मात्र 5.5 प्रतिशत ही है। बाबा साहेब ने शिक्षा के महत्व को खूब समझा इसलिए कहा कि शिक्षा शेरनी का दूध है, जो भी पीएगा वह दहाड़ेगा। वे पूरे समाज को शिक्षा की तरफ लेकर गए, जिसका परिणाम है कि 20 प्रतिशत बच्चे उच्च शिक्षा में है।

वहीं, शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद ने कह दिया कि तुम्हारे लिए स्कूल कालेज नहीं है, इसलिए उच्च शिक्षा में मुस्लिम बच्चे 5.5 प्रतिशत ही रह गए। यह नेतृत्व का फर्क है। आजादी के 20 वर्ष तक मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि ही देश के शिक्षा मंत्री थे, लेकिन वे मुस्लिम बच्चों को शिक्षा की तरफ नहीं लेकर गए। वह भी तब जबकि कुरान का पहला शब्द ही 'इकरा' मतलब पढ़ना होता है। मुस्लिम नेता गरीब मुस्लिमों को शिक्षा के जरिए सशक्त बनाने के पक्ष में नहीं है, वे उन्हें गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं।

सवाल: मदरसे को स्कूली ढांचे में लेकर आ रहे हैं तो क्या दिक्कत है?

जवाब: यह सफेद झूठ है। मैं, सुबह चार घंटे पढ़ाऊंगा मदरसा में, बाद के एक घंटे कंप्यूटर और एक घंटे गणित। पहले के चार घंटे में पढ़ा रहा हूं कि पृथ्वी चपटी है। उसमें बता रहा हूं कि मनुष्य का जन्म मांस के लोथड़े से हुआ। पृथ्वी के इईगिर्द सूरज चक्कर लगाता है। फिर, दुनियावी शिक्षा में बताऊंगा कि पृथ्वी गोल है। इस स्थिति में बच्चा भ्रमित नहीं होगा क्या? इस तरह की अन्य बातें है, जो दोनों शिक्षाओं को दो धड़े पर खड़ा करती है।

वर्ष 2004 में उप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने मदरसा बोर्ड बनाया था, जिसके 20 वर्ष गुजर गए। यदि इस तरह की विसंगतियां नहीं होती तो अब तक मदरसा शिक्षा इतनी बेहतर हो गई होती तो उनके पुत्र अखिलेश यादव के बच्चे स्कूलों में नहीं मदरसों में पढ़ रहे होते। बीस साल में मदरसों का आधुनिकीकरण और मिश्रण नहीं हो पाया है।

सरकार का पैसा गलत चीजों पर जाया होने से बचाया जाना चाहिए। धार्मिक दीनी तालीम की ऊंचाई मुफ्ती है, जो फतवा देने लायक हो जाता है। मान लीजिए, किसी ने एआइ पर सलाह मांगा तो वह बिना उसकी पढ़ाई किए हुए क्या राय देगा?

सवाल: आरोप लगता है कि मदरसों में देशविरोधी शिक्षा दी जाती है?

जवाब: मदरसों की शिक्षा में शरीया कानून की बात होती है। जैसे, फतवा-ए-आलम गीरी कहता है कि छोटी जाति के मुस्लिम व हिंदू छात्र अगर कोई गलती करे तो उनके लिए कोड़े मारने यहां तक की हाथ काटने का प्रविधान है। वही फतवा- ए-आलमगीरी में कहा गया है कि देश को चलाने का काम, मौलाना, आलीम, मौलव्वी जैसे धर्म के नेता करेंगे बादशाह केवल कठपुतली होंगे। मदरसा का पाठ्यक्रम इस तरह से तैयार किया गया है कि ऐसे लोग तैयार हो, जो मुल्क को शरीयाई रीति-रिवाज से चला सकें।

पुरानी दिल्ली में मदरसा-ए-रहिमिया चलाने वाले शाह वलीउल्लाह देहलवी ने मुगल साम्राज्य के पतन के बाद संकल्प लिया कि मुझे शरीया कानून के हिसाब से देश को चलाना है, इसलिए अहमद शाह अब्दाली को पत्र लिखकर उसे भारत में गजवा- ए- हिंद के लिए आमंत्रित किया। जिसने लाखों लोगों का कत्ल किया, लेकिन भारत का भाग्य अच्छा कि शरीयाई लिहाज से देश नहीं चला।

फिर वर्ष 1866 में सहारनपुर के पास नानौता गांव में एक बैठक हुई, जिसमें तय हुआ कि वलीउल्लाह देहलवी ने जो उद्देश्य तय किए थे, उस शरीयाई आधार पर मुल्क चलाने के लिए मदरसा की स्थापना की जाए। फिर जो मदरसा स्थापित हुआ, उसका नाम पड़ा दारुल उलुम देवबंद।

इस मदरसे के शुरुआती सिद्धांतों में लिखा गया है, जो वहां बच्चों को आज भी पढ़ाया जा रहा है कि कोई सरकार भले ही मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व देती हो, लेकिन वह इस्लामिक तौर तरीके से नहीं चलाई जा रही तो वह ठीक नहीं है। मतलब आप शरीयाई तौर तरीके से शासन लागू करना चाहते हैं।

सवाल: यहां औपचारिक शिक्षा संभव नहीं है?

जवाब: मदरसे के संचालक कुछ माडल सैंपल तैयार किए हैं, जिसमें दिखा रहे हैं कि देखों, उनका बच्चा जिलाधिकारी बन गया, नीट की परीक्षा निकाल ली। उनसे कोई पूछे कि क्या वह कभी स्कूल गया कि नहीं? जवाब होगा, गया है। हम यह नहीं कह रहे हैं कि दीनी तालीम पाने वाला जिलाधिकारी नहीं बन सकता है, लेकिन यह भी कह रहे हैं कि औपचारिक (दुनियावी) शिक्षा नहीं पाने वाला छात्र जिलाधिकारी नहीं बन सकता है।

सवाल: इसे सुधारने का क्या उपाय है?

जवाब: माता-पिता चाहे अपने बच्चों को कितनी भी दीनी तालीम दिलवाएं, लेकिन उन्हें देश, समाज व बच्चों के भविष्य को देखते हुए स्कूलों में भेजना चाहिए।

यह भी पढ़ें: Diwali 2024: दीवाली में आतंकी घटना की आशंका, दिल्ली पुलिस अलर्ट; बाजारों में लगातार कर रही बैठकें

आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।