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खानाबदोश जनजाति की आवाज बनकर उभरीं दीपा पवार, पांचवें मार्था फेरेल अवार्ड से नवाजी गईं

दीपा कई अभियानों से जुड़ी रही हैं। फिर वह शिक्षा स्वास्थ्य समान भागीदारी संवैधानिक अधिकार दिलाने से संबंधित मुद्दा हो या जमीनी स्तर पर युवाओं के नेतृत्व क्षमता के विकास की बात हो। मैंने सावित्री बाई फुले डा. आंबेडकर को बहुत पढ़ा है। उनसे प्रेरणा मिली है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Wed, 15 Dec 2021 11:36 AM (IST)
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दीपा से हुई बातचीत के प्रमुख अंश...

अंशु सिंह, नई दिल्ली। महिला सशक्तीकरण एवं उनके न्यायिक अधिकारों के लिए सतत् कार्य करने वाली मुंबई की युवा सामाजिक कार्यकर्ता दीपा पवार को हाल ही में पांचवें ‘मार्था फेरेल अवार्ड- ‘मोस्ट प्रोमिसिंग इंडिविजुअल’ से नवाजा गया है। खानाबदोश (घुमंतू) जनजाति (नोमैडिक-डीनोटिफाइड ट्राइब) से ताल्लुक रखने वाली दीपा ने वर्ष 2016 में ‘अनुभूति चैरिटेबल ट्रस्ट’ की नींव रखी थी।

यह खानाबदोश जनजाति की किसी महिला द्वारा संचालित पहला संगठन है, जो महिलाओं एवं युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य, उनके सशक्तीकरण, शिक्षा, नेतृत्व क्षमता के विकास एवं रोजगार जैसे मुद्दों पर काम करता है। दीपा के शब्दों में यह पुरस्कार काफी मायने रखता है, क्योंकि यह सिर्फ उनका नही, बल्कि पूरे समुदाय का सम्मान है। इससे उन्हें एक नयी शक्ति मिली है। उनकी जिम्मेदारी और बढ़ गई है। दीपा से हुई बातचीत के प्रमुख अंश...

घुमंतू जनजातियां हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा रही हैं, लेकिन विकास की दौड़ में वे आज भी बहुत पीछे हैं। बात शिक्षा की हो, स्वास्थ्य, सामाजिक भागीदारी या रोजगार की, यह समुदाय बमुश्किल अपना संवैधानिक अधिकार प्राप्त कर सका है। इसी समुदाय के गाड़िया लोहार जनजाति से आती हैं 35 वर्षीय दीपा पवार, जिनका परिवार पिछली शताब्दी के आठवें दशक के आखिर में राजस्थान से महाराष्ट्र आ बसा। लेकिन 14 वर्ष की आयु में ही दीपा ने तय कर लिया था कि वह न सिर्फ पढ़ेंगी, बल्कि अपने समाज के उत्थान के लिए हर संभव प्रयास भी करेंगी। वह बताती हैं, ‘बचपन में हम सभी एक पुल के नीचे रहते थे। पिता लोहार का काम करते थे। मैं उनका हाथ बंटाने के साथ-साथ पढ़ाई भी करती थी। आप कह सकती हैं कि मैं एक किताबी कीड़ा थी। सातवीं कक्षा तक तो सब ठीक से चला। फिर स्कूल की 700-800 रुपये की फीस भरना अभिभावकों के लिए मुश्किल हो गया और सवाल पूछे जाने लगे कि क्या पढ़ना जरूरी है? बहुत विरोध हुआ। लेकिन मैं कहां कमजोर पड़ने वाली थी। भूख हड़ताल कर दी। किसी तरह मजदूरों के बच्चों के लिए संचालित एक स्कूल में जाना शुरू किया। दिक्कतें खत्म नहीं हुईं। फिर एक स्वयंसेवी संस्था की मोबाइल लाइब्रेरी के साथ जुड़ना हुआ। घर-घर जाकर किताबें बांटती थी। खुद भी पढ़ने लगी। इससे मेरे अंदर एक नेतृत्व क्षमता विकसित हुई। मैंने विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों के साथ प्रशिक्षक, मोबिलाइजर के रूप में कार्य किया। काम को मैं एक बौद्धिक आय के रूप में देखती हूं। सामाजिक जिम्मेदारियां उठाते हुए खुशी मिलती है।‘ 14 से 28 वर्ष की आयु में ही इन्होंने पांच-छह संगठनों के साथ काम करने का अनुभव बटोरा। लेकिन जब देखा कि किसी भी संगठन का खानाबदोश जनजाति (एनटी-डीएनटी) के उत्थान पर ध्यान नहीं है। उनके मुद्दों के प्रति एक प्रकार की असंवेदनशीलता है। समाज के साथ इतना भेदभाव होता है, बावजूद इसके आवाज उठाने वाला कोई नहीं है। यह सब सोचकर 2016 में दीपा ने अनुभूति चैरिटेबल ट्रस्ट की शुरुआत की।

संघर्षों के बीच तय किया अपना रास्ता: एक अति पिछड़े समुदाय में अपनी अलग जगह एवं स्थान बनाना कतई आसान नहीं होता। दीपा के साथ भी ऐसा ही हुआ। 18 वर्ष की आयु में उनकी शादी करा दी गई। पिता का साया सिर से उठ जाने एवं बाढ़ में अस्थायी ठिकाने के डूब जाने के कारण परिवार पर जैसे मुश्किलों का पहाड़ टूट पड़ा। तब दीपा ने आजीविका के लिए मिठाई फैक्ट्री, कपड़ा फैक्ट्री, शराब के ठेकों जैसे तमाम स्थानों पर कार्य किया। कभी हार नहीं मानी या घबराकर अपना रास्ता नहीं बदला। बताती हैं दीपा, ‘जब मैंने स्वयंसेवी संगठनों के साथ ग्रासरूट लेवल पर काम करना शुरू किया, तो महिलाओं एवं युवाओं से संबंधित अनेकानेक समस्याओं से रू-ब-रू हुई। मैंने गैर-बराबरी को बेहद करीब से देखा। इन सबसे अपनी एक विचारधारा विकसित हुई। साल 2010 से मेरे भीतर एक विचार पनप रहा था कि कुछ अपना करना है। लेकिन डर लग रहा था कि क्या कर पाऊंगी? 2013-14 की बात है। मैंने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया। विडंबना यह हुई कि तभी मेरे पति की भी नौकरी चली गई। लेकिन चुनौती ले ली थी, सो पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं खुद को बौद्धिक रूप से तो आगे मानती हूं, लेकिन आर्थिक रूप से बहुत कुछ करना है।‘ संगठन शुरू करने के लिए दीपा को पहले एक साथी मिली। फिर संपन्न समाज से ताल्लुक रखने वाली तीन-चार अन्य साथी जुड़ीं। इन्होंने ठाणे जिले के बदलापुर में किराये पर कमरा लिया। एक-डेढ़ वर्ष बिना किसी आय के, अपनी जमा पूंजी के सहारे गांव और शहर की बस्तियों में कार्य किया। फिर कुछ फेलोशिप एवं स्कालरशिप से मदद मिली। सबसे बड़ी चुनौती समाज में संगठन की एक विश्वसनीयता कायम करने की रही, क्योंकि इनके साथ क्षेत्र का कोई स्थापित मेंटर नहीं था। लेकिन कहते हैं न कि नेक काम करने वालों को सराहना जरूर मिलती है। 2018 में बर्कले यूनिवर्सिटी के ‘टेल हर स्टोरी’ प्रतियोगिता में दीपा को बड़ा पुरस्कार मिला। उसी वर्ष सीआइआइ फाउंडेशन के वूमन एग्जेंप्लर अवार्ड की वह फाइनलिस्ट भी रहीं। दीपा कहती हैं, ‘इन पुरस्कारों व सम्मान ने ही मुझे प्रतिस्थापित किया। हमारी एक विश्वसनीयता बनी।‘

शिक्षा के साथ लीडरशिप के विकास पर है जोर: दीपा कई अभियानों से जुड़ी रही हैं। फिर वह शिक्षा, स्वास्थ्य, समान भागीदारी, संवैधानिक अधिकार दिलाने से संबंधित मुद्दा हो या जमीनी स्तर पर युवाओं के नेतृत्व क्षमता के विकास की बात हो। मानसिक न्याय, स्वच्छता (विशेषकर राइट टु पी कैंपेन) आदि मुद्दों पर भी गंभीर रूप से सक्रिय दीपा कहती हैं, ‘जब किसी विचारधारा के साथ शिक्षा का मेल होता है तो उससे बहुत शक्ति मिलती है। मैंने सावित्री बाई फुले, डा. आंबेडकर को बहुत पढ़ा है। उनसे प्रेरणा मिली है। उनके विचारों का प्रभाव पड़ा है। जितना भेदभाव हुआ, उसने नयी ऊर्जा दी। अगर हम इंसान बनकर जीना चाहते हैं तो उसके लिए लीडरशिप जरूरी है। यह शिक्षा प्राप्त करने के बाद ही विकसित हो सकती है अर्थात शिक्षा ही हमारा एकमात्र लोकतांत्रिक हथियार बन सकता है। इसलिए मैं युवाओं को विशेषकर आगे बढ़ने, अपनी आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित करती हूं।‘ अपने समुदाय व समाज के लिए मिसाल बनना आसान नहीं होता है। मातृप्रधान समाज से आने के कारण दीपा को उनकी मां, जो एक सिंगल मदर थीं, उनसे काफी प्रोत्साहन मिला। उन्होंने सभी बेटियों की परवरिश एवं शिक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी। वे सब आज उच्च शिक्षा प्राप्त कर वकालत जैसे सम्मानजनक पेशे में हैं। इससे समाज की अन्य लड़कियों को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली है। मिसालें दोहरायी जा रही हैं। अनुभूति संस्था पूर्ण रूप से स्त्रियों द्वारा ही संचालित है। महिला वालंटियर्स रिसर्च, राइटिंग, एडवोकेसी जैसे तमाम कार्य कर रही हैं। दीपा के शब्दों में यह एक संगठन नहीं, बल्कि आंदोलन है। हालांकि उनके अनुसार, अभी लंबा रास्ता तय करना है। क्योंकि समाज के लोग बिखरे हुए हैं।

घुमंतू समुदाय के पुनर्वास से सूरत बदलने की ख्वाहिश: कहते हैं कि ब्रिटिश राज से पहले घुमंतू जनजातियों का जीवन बेहद संपन्न था। उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते थे। परिवहन, मनोरंजन, चिकित्सा से लेकर सूचनाओं तक के लिए समाज इन पर निर्भर था। फिर वह बंजारे हों, गाड़िया लोहार, बावरिया, नट, कालबेलिया, भोपा, कुचबंदा या कलंदर। दीपा बताती हैं कि गाड़िया लोहार का काम जगह-जगह जाकर औजार बनाना एवं बेचना था। लेकिन औद्योगिक विकास के कारण इनका व्यवसाय मंद पड़ गया। प्लास्टिक के खिलौने बनने से कुचबंदा समुदाय के मिट्टी के खिलौनों का अस्तित्व खत्म हो गया। लेकिन सरकारों की ओर से इस दिशा में पुनर्वास के कोई उपाय नहीं हुए। अशिक्षा के साथ गरीबी की दर भी बढ़ती चली गई। स्कूल ड्रापआउट दर तेजी से बढ़ रहा है। हमारे समुदाय के लोग रास्तों पर रहते हैं। अपनी कोई जमीन या घर नहीं होते हैं। लड़कियों-महिलाओं की सुरक्षा पर हमेशा प्रश्नचिह्न लगा रहता है। जागरूकता के अभाव में हिंसा व अन्य समस्याएं हैं सो अलग। दीपा कहती हैं, ‘घुमंतू समुदाय का व्यवसाय एवं जीवन ही घूमने से चलता था। आज वह सब समाप्त हो चुका है। इसलिए ये लोग बसना चाहते हैं। लेकिन जब तक प्रशासन द्वारा जमीन उपलब्ध नहीं करायी जाएगी, तब तक पुनर्वास संभव नहीं है। चुनौती यह भी है कि आरक्षण मिलने के बावजूद इनके पास किसी प्रकार का प्रमाण पत्र नहीं है। यहां तक कि आधार कार्ड एवं मताधिकार भी नहीं है। समझ सकती हैं कि जिन जनजातियों के अधिकतर लोगों की गिनती देश के नागरिकों में नहीं, वैसे में इनके नागरिक अधिकार इन्हें कैसे मिलेंगे? हमारी कोई आवाज नहीं, पहचान नहीं। किसी सामाजिक एवं राजनैतिक संगठन में प्रतिनिधित्व नहीं। इसलिए जब तक राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव होगा, तब तक स्थिति में बदलाव लाना कठिन है।

मार्था फेरेल अवार्ड: लैंगिक समानता एवं महिला सशक्तीकरण के मुद्दे पर काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता मार्था फेरेल की याद में 2016 से मार्था फेरेल अवार्ड दिए जा रहे हैं। वर्ष 2015 में काबुल (अफगानिस्तान) में एक आतंकी हमले में मार्था की मृत्यु हो गई थी, जब वह आगा खान फाउंडेशन की ओऱ से वहां जेंडर इक्वेलिटी को लेकर एक कार्यशाला कर रही थीं।

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