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Chhawla Assault Murder Case: दिल्ली पुलिस के सबूत नाकाफी साबित हुए SC में, अभियुक्त को पहचान तक नहीं पाए गवाह

17 फरवरी 2014 को जब छावला सामूहिक दुष्कर्म मामले में द्वारका फास्ट ट्रैक कोर्ट में दोषियों के लिए सजा पर अंतिम बहस हो रही थी तब अभियोजन पक्ष ने दोषियों के लिए फांसी की सजा की मांग की थी।

By Vineet TripathiEdited By: JP YadavUpdated: Tue, 08 Nov 2022 09:06 AM (IST)
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सुप्रीम कोर्ट में गवाहों ने नहीं की दोषियों की पहचान।
नई दिल्ली, जागरण संवाददाता। दिल्ली के छावला दुष्कर्म मामले में दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय को पहलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हर पहलू पर पुलिस की जांच पर गंभीर सवाल उठाते हुए अहम पहलू पर निर्णय सुनाया। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने तीनों दोषियों को बरी  कर दिया, जिस पर पीड़ित परिवार बेहद दुखी है। सुप्रीम कोर्ट ने बरी करने के दौरान दिल्ली पुलिस की जांच पर भी कई सवाल खड़े किए हैं। 

पीड़िता पर चढ़ा दी थी गाड़ी

अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि नौ फरवरी 2012 को पीड़िता अपने दोस्त के साथ हनुमान चौक के पास टहल रही थी। इसके बाद रात आठ बजकर 45 मिनट पर लाल रंग की टाटा इंडिका कार उनके पास रुकी और कार में से निकले एक लड़के ने पीड़िता काे कार में खींच लिया, जबकि तीन लड़के कार के अंदर बैठे थे। मामले में गवाह विकास ने बचाव करने की कोशिश की थी और कार में बैठे लड़कों ने उसके साथ झगड़ा किया और पीड़िता के साथ विकास पर कार चढ़ा दी थी।

गवाहों ने नहीं की दोषियों की पहचान

अदालत ने कहा कि हालांकि, अभियोजन पक्ष की कहानी काफी हद तक संबंधित गवाहों पर आधारित है, लेकिन मामले में गवाह पूजा रावत व उसका भाई विकास, सरस्वती, और संगीता में से किसी भी अपने-अपने बयानों के दौरान अदालत में बैठे अभियुक्तों की पहचान नहीं की थी।

यहां तक ​​कि अपहरण के दौरान अभियुक्तों के साथ बीचबचाव करने वाले गवाह विकास भी अदालत में बैठे किसी भी आरोपित की पहचान नहीं कर सका। वहीं, पूजा रावत ने कहा था कि आरोपितों ने अपने चेहरे ढके थे, जबकि सरस्वती व विकास ने कहा कि अंधेरा होने के कारण आरोपितों के चेहरे नहीं पहचान सके था।

पिता ने आरोपितों को नहीं पहचानने का दिया था तर्क

वहीं, पीड़िता ने पिता ने बयान दिया था कि नौ फरवरी 2012 को गुरुग्राम से अपने दोस्त के साथ वापस आने के दौरान उनकी बेटी का अज्ञात लोगों ने अपहरण किया था, लेकिन क्योंकि वह घटनास्थल के पास नहीं थे, इसलिए वह भी आरोपितों की पहचान नहीं कर सके।

सबूतों में तालमेल की कमी

किसी भी जांच अधिकारी द्वारा अपनी संबंधित जांच के दौरान कोई टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (टी.आइ. परेड) भी नहीं की थी। इसलिए, अपीलकर्ता-अभियुक्त की पहचान विधिवत स्थापित नहीं होने के कारण, अभियोजन का पूरा मामला पहली ही कसाैटी पर धमाड़ हो गया क्योंकि कोई भी सबूत विधिवत साबित नहीं होता है और न ही अपीलकर्ता-अभियुक्त के खिलाफ ठोस सबूत है।

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