'जज जनता से दूर रहें, लेकिन सामाजिक अपेक्षाओं से नहीं', नाबालिग से यौन शोषण मामले पर दिल्ली हाईकोर्ट ने दी नसीहत
दिल्ली हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा की अध्यक्षता वाली पीठ ने एक नाबालिग से यौन शोषण मामले में कहा कि जज भले जनता से दूर रह सकते हैं लेकिन अपनी सामाजिक अपेक्षाओं से उन्हें दूर नहीं रहना चाहिए। न्यायाधीश ने कहा कि अदालतों की जिम्मेदारियां अपराध या बेगुनाही के निर्धारण से परे है। उन्हें न्याय की रक्षा करने सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
जागरण संवाददाता, नई दिल्ली। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि न्यायाधीश जनता से दूर रह सकते हैं, लेकिन वे सामाजिक अपेक्षाओं से दूर नहीं रह सकते हैं। कोर्ट ने कहा कि अपराधियों को उनके गलत कार्यों के लिए दंडित किया जाना चाहिए। पॉक्सो मामले में 14 वर्ष की लड़की के साथ यौन शोषण करने के दोषी व्यक्ति द्वारा दायर याचिका को खारिज करते हुए कोर्ट ने यह टिप्पणी की।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि एक सतर्क दृष्टिकोण बनाए रखते हुए अदालतें यह सुनिश्चित करती हैं कि सत्य की खोज सर्वोपरि बनी रहे। न्यायाधीश ने कहा कि अदालतों की जिम्मेदारियां अपराध या बेगुनाही के निर्धारण से परे है। अदालतें न्याय की रक्षा करने, सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने और समुदाय पर आपराधिक कृत्यों के व्यापक परिणामों को संबोधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखते हुए न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि नाबालिग पीड़िता ने लगातार कहा था कि दोषी ने उसके साथ यौन शोषण बनाए थे। उसने पुलिस और मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज बयानों में भी यह बात कही। मामले में जिरह लगभग आठ माह के लिए स्थगित कर दी गई थी और अब पीड़िता अपने पहले के बयानों से मुकर गई है और उसकी मां ने भी बाद में अपनी गवाही में कहा कि उसने इस मामले में समझौता कर लिया था।
पीड़िता की मानसिक स्थित के प्रति सचेत रहे ट्रायल कोर्ट
पीठ ने कहा कि ट्रायल कोर्ट को पीड़िता के सामने पेश होने पर उसकी मानसिक स्थिति के प्रति सचेत रहना होगा और इस बात पर ध्यान देना होगा कि कभी-कभी वह यौन उत्पीड़न के पीड़ितों से जिरह के लिए मामले को लंबी तारीख के लिए स्थगित कर देते है। इस कारण नाबालिग के बयान अदालतों की चारदीवारी के बाहर संचालित होने वाले कई कारकों के कारण बदल सकता है।
ट्रायल कोर्ट की चूक न्याय के रास्ते में न आए
पीठ ने कहा कि न्यायाधीशों को किसी मामले का फैसला करते समय, कोई चीज घटित होने के क्यों और कैसे से परे जाना चाहिए। न्यायालयों को उन अलिखित बाधाओं के प्रति सतर्क रहना चाहिए, जो किसी मामले के वास्तविक तथ्यों और विकास को उजागर करने की उसकी प्रतिबद्धता की बात करती है। पीठ ने कहा कि ट्रायल कोर्ट की चूक उसके लिए न्याय सुनिश्चित करने के रास्ते में नहीं आ सकती है। ऐसे मामलों से सख्ती से निपटना आवश्यक है। कानून को उस पीड़िता के साथ मजबूती से खड़ा होना होगा। चूंकि नाबालिग पीड़ित मामले में खुद के लिए खड़ा नहीं हो पा रहा है।
दोषी को दस साल के कारावास की सजा
पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह स्थापित करने में सफल रहा कि दोषी ने नाबालिग को गलत तरीके से कैद करने के बाद उसके साथ यौन उत्पीड़न किया था। दोषी व्यक्ति को आइपीसी की धारा 323, 342 और 377 और पाक्सो अधिनियम की धारा 4 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया था। दोषी को मामले में दस वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई थी।