दिल्ली मेरी यादें : तांगे से कनाट प्लेस घूमने का वो दौर...अब नहीं रही पहले जैसी रंगत
देखते ही देखते दिल्ली इतनी बदल गई कि पहले जैसा कुछ रहा ही नहीं। सदर बाजार से चांदनी चौक तक की गलियां तो वहीं हैं लेकिन बाजारों में पहले जैसी रंगत नहीं रही। मुझे याद है कि हम रोज सुबह-सुबह उठकर जनपथ से होते हुए इंडिया गेट जाते थे।
By Jagran NewsEdited By: Prateek KumarUpdated: Fri, 18 Nov 2022 04:23 PM (IST)
नई दिल्ली, जागरण संवाददाता। 30 जनवरी 1948 में पंजाब में जन्में इंदर मोहन कपाही 1950 में दिल्ली आ गए। यहा से उन्होंने सेंट स्टीफंस कालेज से भौतिक विज्ञान से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। 1969 से 2012 तक में किरोड़ीमल महाविद्यालय में भौतिक विज्ञान के अध्यापक रहे। लगभग 50 वर्षों से सामाजिक क्षेत्र और विश्वविद्यालय की गतिविधियों में सक्रिय थे। डूटा द्वारा शिक्षक प्रतिनिधि चुने गए। वर्ष 2015 में भारत सरकार द्वारा यूजीसी सदस्य के रूप में नामित किया गया। वर्तमान में कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों और यूजीसी समितियों के सदस्य हैं।
नहीं रही पहले जैसी रंगत
देखते ही देखते दिल्ली इतनी बदल गई कि पहले जैसा कुछ रहा ही नहीं। सदर बाजार से चांदनी चौक तक की गलियां तो वहीं हैं, लेकिन बाजारों में पहले जैसी रंगत नहीं रही। मुझे याद है कि हम रोज सुबह-सुबह उठकर जनपथ से होते हुए इंडिया गेट जाते थे। सात-आठ की उम्र रही होगी हमारी, करीब छह से सात किलोमीटर का चक्कर तो यूं लगा लिया करते थे। दिल्ली के चारों ओर बाग और खेत हुआ करते थे। दूर-दूर तक खुली जमीन, शुद्ध हवा और स्वच्छ वातावरण से मन आनंदित हो जाता था। पता ही नहीं चलता था कि कब हम कस्तूरबा गांधी से घूमकर वापस घर आ गए।
कनाट प्लेस-अशोक रोड जगहों पर लगे होते थे जामुन-इमली के पौधे
कनाट प्लेस, अशोका रोड, शाहजहां मार्ग और ऐसे जितने भी मार्ग थे उन पर प्लानिंग के साथ कहीं जामुन, कहीं शहतूत, इमली, नीम के पेड़ लगाए गए थे। उस समय एक अमेरिकी मेरा नया-नया दोस्त बना था। वो इंडिया गेट के पास क्लेरिज होटल में दो दिन रहा था। उसने उस समय राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट और कनाट प्लेस को देखा था। जब वो यहां से गया तो उसने सभी से यही कहा 'दिल्ली इज वन आफ द मोस्ट ब्यूटीफूल कैपिटल इंन द वर्ल्ड'। वैसे आज भी सुंदर तो है लेकिन उन दिनों की दिल्ली बहुत याद आती है।Delhi Trade Fair 2022: दिल्ली के ट्रेड फेयर में जाने से पहले नोट करें 7 जरूरी बातें, जाने कैसे बचेगा आपका पैसा
बात कॉलेज के दिनों की
अपने कालेज के दिनों की बात करता हूं। मेरे अंक अच्छे थे इसलिए एडमिशन भी आराम से मिल गया और कटआफ भी 50 प्रतिशत हुआ करती थी। मेरे तो 74 प्रतिशत अंक थे सो एडमिशन मिलना ही था। उस समय यूनिवर्सिटी के कालेज भी 20 ही थे और छात्रों की संख्या भी बहुत कम होती थी। पूरी यूनिवर्सिटी का भी जोड़ लें तो 25 हजार भी ज्यादा होंगे। आज देखें तो यह संख्या चार से पांच लाख हो गई है। इस वजह से हम टीचर के साथ खूब घूले-मिले थे।अंग्रेजों के नाम पर हुआ करती थी रोड
दिल्ली की अधिकांश सड़कों का नाम उस वक्त अंग्रेजों के नाम पर हुआ करता था, जिस रोड पर मैं रहता हूं उसका नाम कीलिंग रोड नाम था। आज लोग उसे टाल्स टाय रोड के नाम से जानते हैं। कस्तूरबा गांधी मार्ग का नाम कर्जन रोड हुआ करता था। आज के कर्तव्यपथ को किंग्सवे रोड के नाम से जानते थे। किंग्सवे पर ही उस समय के सारे सरकारी दफ्तर जैसे नार्थ एवन्यू, साउथ एवन्यू होते थे। किंग्स वे चारों ओर राजाओं की कोठियां होती थीं। उनकी एक-एक कोठियां पांच हजार गज से छह हजार गज में हुआ करती थीं। इसमें सारे बड़े अफसर रहते थे।
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