दिल्ली की फिरोजशाह बावली की खूबसूरती के क्या कहने, इसके बारे में कितना जानते हैं आप?
बावली की खूबसूरती बनावट के आकर्षण को देखना है तो सबसे नायाब नमूना है फिरोजशाह कोटला की बावली। अद्भुत आकृति है। गोलाई में बनी इस बावली के वास्तु और बनावट तसल्ली से कुछ देर तक महसूस जरूर करेंगे कि पत्थरों को कितनी खूबसूरती से आकार दिया जा सकता है।
By GeetarjunEdited By: Updated: Fri, 19 Aug 2022 05:23 PM (IST)
गुरुग्राम [प्रियंका दुबे मेहता]। बावली की खूबसूरती, बनावट के आकर्षण को देखना है तो सबसे नायाब नमूना है फिरोजशाह कोटला की बावली। अद्भुत आकृति है। गोलाई में बनी इस बावली के वास्तु और बनावट तसल्ली से कुछ देर तक महसूस जरूर करेंगे कि पत्थरों को कितनी खूबसूरती से आकार दिया जा सकता है।
चौदहवीं शताब्दी में फिरोज शाह तुगलक द्वारा बनवाई इस बावली के बारे में 'दिल्ली हेरिटेज टाप टेन बावलीज' में विक्रमजीत सिंह ने लिखा है फिरोजशाह को सिंचाई का पितामह माना गया था क्योंकि उसने कई भवन और जल निकाय बनवाए थे। उन्हीं में से एक फिरोजशाह कोटला बावली थी। यह बावली पिरामिड के आकार के ढांचे के पास स्थित है, जहां अशोक स्तंभ भी मिलता है।
मान्यता है कि यहां बैठकर मांगी मुराद पूरी होती है। यहां कई लोग अपनी मन्नतों को कागज के टुकड़े पर लिखकर दीवारों पर चिपका जाते हैं। कुछ वर्षों से यहां आना-जाना प्रतिबंधित है। लेकिन पुनर्जीवन से फिर उम्मीद बंधी है।कभी चिराग जलाती थी निजामुद्दीन बावली
चश्मा-ए-दिलकुशा के नाम से जानी जानी वाली यह बावली हजरत निजामुद्दीन औलिया दरगाह का हिस्सा है। इसके बारे में प्रचलित कथा है कि जब सूफी संतों को तेल देने के लिए गयासुद्दीन तुगलक ने मना कर दिया था तब इस बावली का पानी तेल बन गया था। महेश्वर दयाल की पुस्तक 'दिल्ली जो एक शहर है' में एक दौर के तैराकी के मेले का जिक्र मिलता है।
इसमें लिखा है कि हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के आहाते के उत्तरी दरवाजे पर एक बड़ी बावली है, जिसे पीर मुर्शिद के अनुयायी पवित्र मानते हैं। कहते हैं कि इस बावली के निर्माण के समय गयासुद्दीन तुगलक अपना किला बनवा रहा था। महबूब-ए-इलाही (निजामुद्दीन औलिया) अपने पड़ोसियों को ताजा और साफ पानी मुहैया कराते थे।बादशाह ने दिन के वक्त दरगाह की ओर श्रमिकों को जाने से मना कतर दिया ताकि कोई बावली निर्माण के कार्य में सहयोग न दे दे। ऐसे में श्रमिक उनके लिए रात को काम करते रहे। इसके लिए रात को बावली के पानी से चिराग जलाए जाते थे। जब बादशाह को इसका पता चला तो उसने दरगाह और बावली के लिए तेल की बिक्री पर पाबंदी लगा दी।
इसके बाद कहा जाता है कि बावली के पानी को तेल की तरह इस्तेमाल करके काम शुरू किया गया। 1321 ईस्वी में बावली का निर्माण कार्य पूरा हो गया था। 190 फीट लंबा और 120 फीट चौड़ा हौज अब एक बार फिर से अपने पवित्र और समृद्ध इतिहास की कहानी कहेगा।शिकारगाहों के लिए बनी थी हिंदू राव बावली14वीं शताब्दी की निर्मित बावली एमसीडी के हिंदू राव अस्पताल के पास स्थित है। एसपीए के अध्ययन के अनुसार यह फिरोजशाह तुगलक प्रथम द्वारा बनवाई गई थी। फिरोज शाह तुगलक के समय में कई शिकारगाह बनाए गए थे। इनमें से कुश्क-ए-शिकार भी एक था।
इस शिकारगाह में जलापूर्ति के लिए बावली बनाई गई थी, यह थी बाड़ा हिंदू राव की बावली। वर्ष 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यह बावली अंग्रेज अधिकारियों और सिपाहियों के लिए एक मात्र जल स्रोत था। 'दिल्ली हेरिटेज टाप टेन बावलीज' में लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक ने जन भवन और जल निकायों का निर्माण किया था।कभी जेल थी ये बावली327 वर्षों पुरानी इस बावली को 16 शताब्दी में शाहजहां द्वारा इसे बनवाया गया था। यह वर्षों से आमजन के लिए बंद थी। इतिहासकार विक्रमजीत के मुताबिक एक वक्त में यह बावली आजाद हिंद फौज के सैनिकों के लिए जेल के रूप में प्रयुक्त हुई थी। इसके निर्माण को लेकर इतिहासकारों में विभिन्न मत हैं। वैसे यह 14वीं शताब्दी यानी कि लोधी शासनकाल की मानी जाती है।
इतिहासकार और दिल्ली की बावलियों और जल निकायों पर काम करने वाले विक्रमजीत ने अपनी पुस्तक 'दिल्ली हेरिटेज टाप टेन बावलीज' में लिखा और बताया कि लाल किले की नींव 12 मई 1639 में रखी गई थी लेकिन यहां मौजूद बावली का ढांचा उससे भी तीन सौ वर्ष पहला है। किले के निर्माण के समय इसे इसके मौलिक स्वरूप में ही छोड़ दिया गया था। अगर सरकार इसे फिर से खोल देती है तो लोग स्वतंत्रता संग्राम के पन्नों को खोलकर नए अध्यायों से परिचित हो सकेंगे।
नौकायन के लिए पुराना किला झील16वीं शताब्दी की मानी जाती है। इसे नेशनल बिल्डिंग्स कंस्ट्रक्शन कारपोरेशन (एनबीसीसी) द्वारा संरक्षित और पुनर्जीवित किया गया था। पुराना किला स्थित बावली कभी नौकायन के लिए लोकप्रिय थी लेकिन एसपीए शोधकर्ताओं ने पाया कि यहां एल्गी (जलीय खरपतवार) की मात्रा बहुत बढ़ गई है। ऐसे में सिफारिश की जा रही है कि यहां पर नौकायन फिर से शुरू की जाए।
लूसी पेक की पुस्तक 'दिल्ली ए थाउजेंड ईयर्स आफ बिल्डिंग्स' में उल्लेख मिलता है कि पुराना किला झील पहले से ही एक खाई थी। तलाकी दरवाजा से बड़ा दरवाजा तक फैली यह झील कभी किले से घिरी एक खाई थी। किला यमुना के पास था तो इस झील में यमुना नदी से पानी आता था। बीतते वक्त में यमुना से दूरी बढ़ी तो यह झील सूखने लगी। फिर इसमें बोरिंग के माध्यम से पानी भरा जाने लगा। तकरीबन छह वर्ष पहले इस झील का कायाकल्प भी हुआ था लेकिन एल्गी की मात्रा बढऩे के साथ एक बार फिर से इसमें बोटिंग बंद कर दी गई।
पुनर्जीवित करने की तैयारीदिल्ली के पांच जल निकायों को शहरी विकास एवं आवासीय मामलों का मंत्रालय के अमृत सरोवर जल धरोहर योजना के तहत पुनर्जीवित करने की सिफारिश की गई है। इसके तहत लाल किला बावली, पुराना किला झील, फिरोजशाह कोटला बावली या कुंआ, निजामुद्दीन बावली, बावली और हिंदू राव को फिर से उसका पुराना और जीवंत स्वरूप लौटाने की इस कवायद में स्कूल आफ प्लाङ्क्षनग एंड आर्किटेक्चर (एसपीए) ने योजना का खाका तैयार कर लिया है। इन जल निकायों में से कुछ का इतिहास भ्रमित करता है, तो कुछ का पुरानी मान्यताओं की ओर ले जाता है।
उत्सव सरीखा था तैराकी का खेलआज मनोरंजन के साधनों के तमाम विकल्प हैं लेकिन एक दौर था जब दिल्ली के जल निकाय, खास तौर पर यमुना और बावलियां मनोरंजन स्थल के रूप में देखी जाती थीं। कह सकते हैं दिल्ली वालों के मनोरंजन का यह अहम जरिया था। बिलकुल वैसे ही जैसे मुंबई वालों की दही-हांडी प्रतियोगिता। तैराक अपने हुनर का प्रदर्शन करने के लिए इनमें कूदते और तमाम करतब दिखाते हुए लोगों का मनोरंजन करते थे।
पानी के खेल तमाशे आम तौर पर बावलियों और महरौली के झरनों में होते थे। जब जमुना का पानी ऊपर आ जाता तो तैराक और कहीं जाने की नहीं सोचते थे, अपनी पुस्तक में दिल्ली में तैराकी मेले का जिक्र करते हुए महेश्वर दयाल ने लिखा है कि बावलियों के किनारे तैराकों और उनके उस्तादों का जमावड़ा होता था। उन्होंने लिखा है कि तैराक नाक पकड़कर किसी मछली की तरह चक्कर काटकर वापस तट पर आ जाते तो तुरंत उस्ताद और खलीफा अपने शागिर्दों को शाबाशी देते और उन्हें प्रोत्साहित करते।जल निकायों का ऐतिहासिक महत्वआर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया के पूर्व निदेशक डा. बीआर मणि के मुताबिक जिन भी बावलियों और जल निकायों का ऐतिहासिक महत्व है, उनका समय-समय पर संरक्षण और पुनर्जीवन का काम हमेशा किया जाता रहा है। इतिहासकार विक्रमजीत सिंसह कहते हैं कि सरकार का यह कदम स्वागत योग्य है कि ऐतिहासिक बावलियों को फिर से जीवित किया जाएगा क्योंकि बावलियां केवल ऐतिहासिक ही नहीं, राजनीतिक महत्व की भी रही हैं।
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