युवा छात्र वोटरों को रिझाने के लिए किसी मॉल में पार्टी दी जाती है तो कहीं सिनेमा हॉल में कॉलेज भर के लिए सीटें बुक की जाती है। महंगी और युवाओं को आकर्षित करने वाली गाड़िया भी छात्र नेताओं और प्रत्याशियों के पास होना तो आम बात सी हो गई है, लेकिन 1970 से 2000 के बीच वर्षों में छात्र राजनीति व्यक्तिगत संबंधों पर निर्भर करतीं थी।
वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाषण देने से लेकर जो छात्रों की समस्याओं के लिए एकजुट होकर कार्य करने वाले लोग छात्र राजनीति में आते थे। आपातकाल के बाद 1977 में डूसू के अध्यक्ष चुने गए पूर्व केंद्रीय मंत्री विजय गोयल कहते हैं कि डूसू में इस तरह से प्रत्याशी घोषित किए जाते थे जो भाषण दे सकें और आंदोलनों का नेतृत्व कर सकें।
कॉलेजों के बाहर और अंदर ऊंचे स्थान पर छात्रों के बीच भाषण देकर प्रचार होता था। इतना ही नहीं बाजारों में जहां बड़ी संख्या में युवा आते थे और एकजुट होते थे वहां पर भी प्रचार करने जाया करते थे।
उस समय बहुत ही सीमित लोगों के पास लैंडलाइन फोन हुआ करता था। ऐसे में डायेक्ट्री में से नंबर निकालना और फिर छात्रों से संपर्क किया जाता था। गोयल छात्र राजनीति के दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि गिनी चुनी गाड़िया होती थी।
खुली जीप से कॉलेजों के बाहर किया जाता था रोड शो
खुली जीप के माध्यम से भी कॉलेजों के बाहर रोड शो और प्रचार किया जाता था। उन्होंने कहा कि उस समय जाति आधारित छात्र राजनीति नहीं हुआ करती थी। न ही राजनीतिक दलों का छात्र संगठनों पर हस्तक्षेप होता था। वह छात्र संगठन स्वयं ही अपने बीच के उन कार्यकर्ताओं को प्रत्याशी बनाते थे जो छात्रों के बीच ज्यादा संपर्क और संबंध रखते थे।
एनएसयूआइ सीधे तौर पर चुने गए पहले अध्यक्ष बने अजय माकन कहते हैं कि उस समय का प्रचार कॉलेज में छात्रों के दाखिला प्रक्रिया से ही शुरू हो जाता था। छात्र संगठन कॉलेजों के बाहर दाखिले के समय हेल्प डेस्क और इन्फोरमेशन डेस्क लगाते थे। इस दौरान ही बहुत सारे छात्र संपर्क में आ जाते थे तो चुनाव में उनमे से ही कार्यकर्ता तैयार हो जाते थे।
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DUSU Election 2023: DU को 64 साल में मिलीं सिर्फ 10 महिला अध्यक्ष, आखिरी बार नूपुर शर्मा बनीं थीं प्रेसीडेंटमाकन ने कहा कि वर्ष 1985 में उन्होंने एबीवीपी से विजेंद्र गुप्ता को चुनाव हराया था। इस दौरान उनकी जेएनयू के तर्ज पर अध्यक्षीय डिबेट किरोड़ीमल कॉलेज और मिरांडा हाउस कॉलेज में हुई थी। पहले इस तरह का प्रणाली डूसू में हुआ करती थीं। उन्होंने बताया कि मदन सिंह बिष्ट का सात नंबर बैलेट आया था तो उस दौरान कैंपस में सात हाथी घुमाकर उन्होंने बिष्ट ने प्रचार किया था और वह जीत भी गए थे।
एनडीएमसी के उपाध्यक्ष ने बताया किस्सा
नई दिल्ली नगरपालिका परिषद (एनडीएमसी) के उपाध्यक्ष सतीश उपाध्याय ने बताते हैं कि वर्ष 1982-83 में डूसू से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के पैनल पर उपाध्यक्ष पद पर उतरें थे। वह साउथ कैंपस के आत्मराम सनातन धर्म कॉलेज (एआरएसडी) के छात्र थे।इस दौरान जब उन्हें प्रत्याशी बनाया गया तो साउथ कैंपस में एबीवीपी के पैनल को जिताने के लिए उन्होंने कॉलेजों में प्रचार किया। उस समय प्रचार के साधन इतने नहीं थे। उन्होंने बताया कि कॉलेज के दिनों में छात्र पैनल के बैलेट को कागजों पर रंगों से लिखते थे।
क्लास टू क्लास जाकर करते थे प्रचार
हालांकि पर्चा जरुर छपा हुआ मिलता था, लेकिन वह सीमित था। साथ ही वह प्रत्येक कॉलेज में जाकर क्लास टू क्लास प्रचार करते थे। साथ ही अपने मुद्दों को छात्रों को बताते थे। छात्र प्रत्याशी के भाषण के आधार पर निर्भर करते थे कि वह किसे वोट देंगे। इसलिए मुद्दों का अच्छे से अध्ययन किया जाता था।साथ ही अपनी बात कम समय में छात्रों तक पहुंचाने के लिए भाषण तैयार किया जाता था। वहीं, बातें कक्षाओं में जाकर बोली जाती थी। उन्होंने बताया कि आज तो महंगी-महंगी गाड़िया होती है पर उस समय एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज जाने के लिए प्रत्याशियों के लिए सबसे बढ़िया माध्यम दिल्ली परिवहन निगम द्वारा चलने वाली यू स्पेशल बस होती थी।
यह बसें विभिन्न कॉलेजों के रूट को कवर करते हुए जाती थी। इस दौरान बस में सवार होकर जो छात्र बस में मिलते थे उनहें संपर्क किया जाता था। फिर दूसरे कॉलेजों में जाकर प्रचार करते थे। उपाध्याय ने बताया कि विद्यार्थी परिषद का हर कॉलेज में संगठन होता था। वहां का संगठन में जो विद्यार्थी पदाधिकारी होते थे वह काफी मददगार होते थे। इसलिए एबीवीपी के पैनल को जिताने में उनके आचरण का भी लाभ मिलता था।
संसाधनों से परिपूर्ण हो गई है आज की छात्र राजनीति- अल्का लांबा
वहीं, 1995 में डूसू से अध्यक्ष पद पर जीती कांग्रेस नेता अल्का लांबा कहती है कि आज की छात्र राजनीति संसाधनों से परिपूर्ण तो हो गई है, लेकिन वह समय कुछ अलग ही था। व्यक्तिगत संबंधों से छात्रों से वोट मांगे जाते थे। यही वजह है कि उस समय मतदान प्रतिशत भी काफी अच्छा रहता था।आज डूसू में मतदान प्रतिशत कम होने की वजह है कि छात्र नेताओं के व्यक्ति संबंध उतने नहीं होते हैं जितने उस समय होते थे। आज के समय में इंटरनेट मीडिया का भले ही उपयोग किया जाता है, लेकिन उस समय कॉलेजों में छात्रों को रिझाने के लिए ढपली का उपयोग किया जाता था। ढपली बजाते हुए छात्रों के बीच में से गुजरते थे।
जहां ज्यादा छात्र होते थे वहां पर ढपली पर गाना गाकर छात्रों को इकट्ठा किया जाता था। उस दौरान फिर छात्रों को प्रत्याशी अपने मुद्दे बनाते थे। उन्होंने कहा कि उस समय फोटो का जमाना आ गया था तो कमला मार्केट में प्रेम स्टूडियों से ब्लैक एंड वाइट फोटो खिचा करती थी।
अरुण जेटली ने 1974 में लड़ा था डूसू के अध्यक्ष पद का चुनाव
छात्र वहां से पहले अपनी बढ़िया फोटो खिचवा कर उन्हें पोस्टरों पर उपयोग करते थे। दिन में कॉलेज में प्रचार होता था। तो वहीं रात को होस्टल में जाकर एक-एक छात्र से मिलना होता था। अरुण जेटली 1974 में डूसू के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे थे तो विद्यार्थी परिषद ने जिन लोगों को उनके प्रचार की जिम्मेदारी दी उसमें पूर्व महापौर सुभाष आर्या भी दे।उन्होंने बताया कि उस समय संसाधन कम थे। पर उनके पास एक फीएट गाड़ी थी। वह पोस्टर आदि लगाने के साथ ही प्रचार में सक्रिय थे तो विरोधी छात्रों ने उनकी गाड़ी पर पथराव कर दिया। उन्होंने बताया कि जैसे-तैसे वह वहां की स्थिति से उन्होंने अपना बचाव किया।उन्होंने कहा कि आज तो फेसबुक और ट्वीटर के जमाने में लोग रील्स आदि से प्रचार कर रहे हैं, लेकिन उस समय व्यक्तिगत संंबंधों के आधार पर प्रचार किया जाता था। उस समय का पता रहता था कि कौन से मोहल्ले में कितने छात्र रहते हैं।वहां पर मोहल्ले में छात्रों को इकट्ठा कर प्रत्याशी मुलाकात करते थे। इतना ही नहीं उनके घर भी जाया करते थे। उन्होंने कहा कि इस दौरान छात्रों के बीच भाषण आदि हुआ करते थे। भाषण को पंसद करके भी छात्र वोट देने के लिए प्रत्याशी को चुनते थे।