देश के पहले लोकसभा चुनाव में बाहरी दिल्ली सीट से जीता था यह 'गांधी'
देश के पहले लोकसभा चुनाव में बाहरी दिल्ली सीट से एक ऐसे शख्स निवार्चित हुए थे जिसे सब दिल्ली का ‘गांधी’ कहते थे। उनका नाम था सीके नायर।
By JP YadavEdited By: Updated: Sat, 30 Mar 2019 11:47 AM (IST)
नई दिल्ली [विवेक शुक्ला]। अब कितने दिल्ली वालों को मालूम होगा कि देश के पहले लोकसभा चुनाव में बाहरी दिल्ली सीट से एक ऐसे शख्स निवार्चित हुए थे, जिसे सब दिल्ली का ‘गांधी’ कहते थे। उनका नाम था सीके नायर। उस चुनाव में बाहरी दिल्ली से दो प्रत्याशियों को निर्वाचित करने का प्रावधान था। नायर साहब मूलत मलयाली थे। उन्हें ग्रामीण दिल्ली का गांधी भी कहा जाता था। वे दिल्ली के गांवों की जनता के बीच शिक्षा के प्रसार और दहेज प्रथा तथा जात-पात जैसी कुरीतियों के खिलाफ जनजागरण किया करते थे। वे गांधी जी के करीबी थे। 1942 के आसपास दिल्ली आए थे। बहरहाल, वे जब जीते थे तब बाहरी दिल्ली में 500 मलयाली वोटर भी नहीं रहे होंगे।
मलयाली और बंगाली को चुनने वाली दिल्लीजरा सोचिए कि 67 साल पहले 1952 में दिल्ली देश की पहली लोकसभा के लिए एक मलयाली और बंगाली को ससम्मान भाव से निर्वाचित कर रही थी। उस चुनाव में दिल्ली की तीन सीटों क्रमश: नई दिल्ली, दिल्ली शहर (जिसे आज का चांदनी चौक कह सकते हैं) और बाहरी दिल्ली के लिए दो उम्मीदवारों को निर्वाचित करने का प्रावधान था। यहां से एक सीट अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित थी। मतलब दिल्ली को चार सांसद चुनने थे। उस चुनाव में तीन सीटों पर चार सांसदों के लिए सिर्फ 19 उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें आठ निर्दलीय उम्मीदवार शामिल थे, पर दिल्ली के मतदाताओं ने चुनावों में काफी उत्साह दिखाया था। तब 57 फीसद से अधिक मतदान हुआ था।
नई दिल्ली में हारी थी कांग्रेसअगर बात नई दिल्ली सीट की करें तो इधर से सुचेता कृपलानी विजयी रही थीं। वो मूल रूप से बंगाली थीं, हालांकि उनका जन्म अंबाला में हुआ था। बता दें कि इस सीट पर 1971 में कांग्रेस की एक बंगाली महिला उम्मीदवार मुकुल बैनर्जी जीती थीं। सुचेता तो कट्टर कांग्रेसी थीं और गांधी जी के साथ नोआखाली गई भी थीं। लेकिन देश की आजादी के बाद वो कांग्रेस से अलग हो गई थीं। सुचेता ने पहला लोकसभा चुनाव किसान मजदूर पार्टी से लड़ा। चुनाव जीता, लेकिन इसके बाद वह कांग्रेस में चली गईं। इसी नई दिल्ली सीट से 1957 का चुनाव कांग्रेस के टिकट पर जीती थीं। उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार मन मोहिनी सहगल को 7671 मतों से हराया था। निर्दलीय प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी। कहते हैं, तब इसी नई दिल्ली सीट पर ही मुकाबला कड़ा हुआ था। मनमोहिनी यहां की प्रमुख कांग्रेस कार्यकर्ता थीं। हालांकि कहने वाले ये भी कहते रहे हैं कि उस चुनाव में कांग्रेस ने अपनी उम्मीदवार के हक में अच्छी तरह से कैंपेन ही नहीं किया था। जिसके चलते उसे ये सीट गंवानी पड़ी थी। एक बात और हैरान करने वाली हुई थी कि कांग्रेस ने इस सीट के लिए डॉ. सुशीला नैयर जैसी शख्सियत को अपना उम्मीदवार ना बनाकर सबको चौंकाया था। वो गांधी जी की निजी चिकित्सक रही थीं। उन्हें सारा शहर जानता था। उन्हें तब लोकसभा चुनाव के साथ दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया था। जहां तक दिल्ली शहर सीट का सवाल है, तो वहां से कांग्रेस के उम्मीदवार राधा रमन की विजय तय मानी जा रही थी। उन्होंने भारतीय जनसंघ के रंग बिहारी लाल को 23 हजार से अधिक मतों से हराया था। राधा रमण को सब दादा कहते थे। वे पक्के कांग्रेसी और गांधीवादी थे। जनता से जुड़े हुए थे।
स्वाधीनता आंदोलन वाले नेताबाहरी दिल्ली से अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट पर नवल प्रभाकर विजयी रहे थे। वे भी स्वाधीनता सेनानी थे। देखा जाए तो उस चुनाव में खड़े हुए सभी उम्मीदवार स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा रहे थे। उनकी पत्नी सुंदरवती नवल प्रभाकर आगे चलकर कांग्रेस की टिकट पर करोल बाग से 1989 में निर्वाचित हुई थीं। तब करोल बाग अनुसूचित जाति के लिए सीट आरक्षित हो गई थी। वो 1972 से 1984 तक दिल्ली महानगर परिषद की मेंबर भी रहीं थीं। बहरहाल, नायर साहब को एक लाख 18 हजार और प्रभाकर को एक लाख पांच हजार से अधिक वोट मिले। इन्होंने अपने भारतीय जनसंघ के प्रत्याक्षियों क्रमश: पंडित मौलीचंद और पात राम सिंह को बुरी तरह से हरा दिया था।
(लेखक साहित्यकार भी हैं)
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