कैसे दूर हो सकती है किसानों की गफलत? आइएआरआइ के निदेशक डॉ. एके सिंह ने एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में बताया
आइएआरआइ के निदेशक डॉ. एके सिंह के मुताबिक किसानों को नए कृषि कानूनों के विषय में अधिक जानकारी दिए जाने की जरूरत है। कड़वा सच यह है कि आंदोलन कर रहे किसानों ने इन कानूनों को ठीक से पढ़ा और समझा ही नहीं।
By JP YadavEdited By: Updated: Mon, 21 Dec 2020 07:55 AM (IST)
नई दिल्ली। नए कृषि कानूनों के विरोध में ठिठुरन भरी ठंड के बावजूद हजारों किसान दिल्ली की सीमाओं पर करीब 25 दिन से आंदोलन कर रहे हैं। हालांकि केंद्र सरकार उनकी हर आपत्ति का समाधान करने को तैयार है, कानूनों में संशोधन भी किए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं किसानों से विनम्र शब्दों में अपना आंदोलन वापस लेने की अपील कर चुके हैं, लेकिन किसान इन कानूनों को वापस लिए जाने की मांग पर अड़े हैं। ऐसे में इन कानूनों और किसान आंदोलन को लेकर संजीव गुप्ता ने भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आइएआरआइ) के निदेशक डॉ. एके सिंह से विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश :
कृषि कानून वापस लिए जाने की मांग पर अड़े किसानों और उनके आंदोलन को आप किस नजरिए से देखते हैं?- मेरा मानना है कि किसानों को नए कृषि कानूनों के विषय में अधिक जानकारी दिए जाने की जरूरत है। उनके इस आंदोलन की नींव ही गलतफहमी और अधूरी जानकारी पर पड़ी है। सच्चाई इसके विपरीत है। कड़वा सच यह है कि आंदोलन कर रहे किसानों ने इन कानूनों को ठीक से पढ़ा और समझा ही नहीं। अपना उल्लू सीधा करने के लिए राजनीतिज्ञों और आढ़ती-बिचौलियों ने उन्हें जैसा समझा दिया, वे उसे ही सच मानकर बैठ गए। अगर किसान पुराने कानूनों से इनकी तुलना करेंगे तो उन्हें तुरंत फर्क समझ आ जाएगा।
केंद्र सरकार किसानों की हर आपत्ति का समाधान करने, कानूनों में संशोधन करने और उनसे वार्ता करने का तैयार है, लेकिन किसान मानने को राजी नहीं। ऐसे में क्या किया जाए?- केंद्र सरकार को इन कानूनों के क्रियान्वयन को लेकर एक ब्लू प्रिंट तैयार करके उसे किसानों से साझा करना चाहिए। इस ब्लू प्रिंट में विस्तार से दिया जाए कि किस कानून के लागू होने पर मौजूदा व्यवस्था में क्या बदलाव आएगा। जब सब कुछ आईने की तरह स्पष्ट हो जाएगा तो संभवतया किसानों की गलतफहमी भी दूर हो सकेगी।
एक कृषि विशेषज्ञ के तौर पर आप इन तीनों कृषि कानूनों को किस रूप में देखते हैं?- तीनों ही कृषि कानून अच्छे और किसानों के लिए लाभप्रद हैं। ये कानून उनकी उन्नति का मार्ग ही नहीं खोलते, बल्कि कृषि जगत की बेहतरी का रास्ता भी दिखाते हैं। उदाहरण के तौर पर हर साल देश में 10 फीसद अनाज और 40 फीसद फल-सब्जियां भंडारण की व्यवस्था न होने से बर्बाद हो जाती हैं। इनकी कीमत करीब 80 हजार करोड़ रुपये बैठती है। भंडारण की व्यवस्था बगैर निजी निवेश के बेहतर नहीं हो सकती। नए कानूनों से अगर भंडारण व्यवस्था में सुधार होगा तो यह बर्बादी भी रुक जाएगी। इसका फायदा कृषि जगत को ही होगा। कृषि को उन्नत बनाने के लिए तकनीक का प्रयोग भी समय की मांग है। अनुबंध आधारित खेती के तहत यही फायदा होगा। मान लीजिए, अभी अगर किसी किसान ने एक हजार एकड़ में कोई फसल उगाई है और उसमें कहीं कीड़ा लग जाता है तो उस किसान को सारी फसल पर दवा का छिड़काव करना पड़ता है। लेकिन, सेंसर की सहायता से हमें तुरंत पता चल जाएगा कि कीड़ा किस हिस्से में लगा है। वहीं पर दवा छिड़क दी जाएगी। इसी तरह ड्रोन के प्रयोग से दवा का छिड़काव करने पर दवा बहुत कम लगेगी।
परंपरागत और कांट्रैक्ट फार्मिंग में क्या अंतर है?- परंपरागत खेती के तहत तो किसान अपनी मर्जी से फसल उगाते हैं और उसे आढ़तियों के माध्यम से मंडी में बेच देते हैं। जबकि कांट्रैक्ट फार्मिग के तहत किसान जिस कंपनी से अनुबंध करेंगे, उसकी मांग के अनुरूप खेती करते हैं। यहां किसान की फसल बिल्कुल भी बर्बाद नहीं होती। उसका मूल्य भी पहले से तय होता है। नए कानून में उन्हें यह भी छूट है कि किसान चाहें तो कभी भी कंपनी से अनुबंध तोड़ सकते हैं, जबकि कंपनी ऐसा नहीं कर सकती।
किसानों का कहना है कि नए कृषि कानून मंडियों को खत्म कर देंगे। सच क्या है?- ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। सच तो यह है कि अब किसानों को मंडी से बाहर भी फसल बेचने की छूट मिल गई है जो उनके लिए वरदान से कम नहीं है। अब वे आढ़तियों के चंगुल से बचकर जहां बेहतर दाम मिले, वहां पर अपनी फसल बेच सकेंगे। मसलन, बासमती चावल की पैदावार पर भारत का एकाधिकार है। अंतराष्ट्रीय बाजार में लोग बासमती के ऊंचे दाम तक देने को तैयार हैं। लेकिन, किसानों को ऊंचा दाम इसलिए नहीं मिलता क्योंकि उनसे सस्ते में फसल लेकर यह मुनाफा आढ़ती और बिचौलिये ले जाते हैं।
किसान इन कानूनों से अपनी आर्थिक स्थिति को कैसे बेहतर कर सकते हैं?- खेतीबाड़ी से अधिक मुनाफा कमाने के लिए उत्पादन लागत को कम करना बहुत जरूरी है। ऐसा तभी संभव है जब तकनीक का प्रयोग हो और किसान संगठित होकर खेती करें। यहां गुजरात के अमूल दूध का उदाहरण दिया जा सकता है। दुग्ध पालकों ने संगठित होकर एक सहकारी संस्था बनाई और आज इससे जुड़ा हर व्यक्ति बेहतर आर्थिक स्थिति में है। अगर किसान भी आपस में एकत्रित होकर समूह में खेती करेंगे, तकनीकों का प्रयोग करेंगे तो अपनी फसल की मनचाही कीमत पा सकेंगे और उनकी लागत भी काफी कम हो जाएगी।Coronavirus: निश्चिंत रहें पूरी तरह सुरक्षित है आपका अखबार, पढ़ें- विशेषज्ञों की राय व देखें- वीडियो
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