Ganesh Statue in Mosque: मस्जिद के ढांचे पर लगी सभी मूर्तियों का होगा अध्ययन, लोहे के जाल में कैद से बाहर आएंगे गणेश जी
Ganesh Statue in Mosque सूत्रों का कहना है कि कुतुबमीनार परिसर का यहां का पूरा इतिहास दर्शाया जाएगा। इसके लिए आधुनिक तकनीक का भी इस्तेमाल किया जाएगा जिसमें एक थियेटर भी होगा जिसमें फिल्म के माध्यम से लोग इतिहास को देख और समझ सकेंगे।
By Jp YadavEdited By: Updated: Tue, 24 May 2022 02:00 PM (IST)
नई दिल्ली [वीके शुक्ला]। Ganesh Statue in Mosque कुतुबमीनार परिसर में इंटरप्रेटेशन सेंटर (व्याख्या केंद्र) बनाया जाएगा। इसमें कुतुबमीनार परिसर का शुरू से लेकर अब तक का पूरा इतिहास प्रदर्शित किया जाएगा। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के आधिकारिक सूत्रों ने इसकी पुष्टि की है। अधिकारियों के अनुसार लालकिला में तैयार किए जा रहे इंटरप्रेटेशन सेंटर की तर्ज पर इसे विकसित किया जाएगा। लोहे के जाल में कैद गणेश जी बाहर आएंगे।।
मूर्ति के आसपास का माहौल ठीक किया जाएगा। इसके साथ ही कुतुबमीनार परिसर में स्थित कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के विवादित ढांचे में लगी मूर्तियों की पहचान और इनकी गणना भी की जाएगी। गणेश जी की मूर्ति से लोहे का जाल हटाया जाएगा। गणेश जी की मूर्ति के आसपास का माहौल ठीक किया जाएगा। वहां कल्चरल नोटिस बोर्ड लगाया जाएगा, जिस पर मूर्ति के बारे में जानकारी दी जाएगी। उल्टी लगी गणेश जी की मूर्ति को क्या सीधा कर लगाया जा सकता है इस बारे में भी विशेषज्ञों से राय ली जाएगी।
मस्जिद के ढांचे पर लगी सभी मूर्तियों का अध्ययन होगा और उनका टेडा तैयार किया जाएगा। संस्कृति मंत्रालय के आधिकारिक सूत्रों का कहना है कि उनकी ओर से वहां नमाज या पूजा पाठ के बारे में कोई आदेश नहीं दिए गए हैं।
वहीं कुतुबमीनार परिसर में खोदाई के भी कोई आदेश नहीं दिए हैं। इसी तरह लौह स्तंभ का इतिहास भी प्रमुखता से लिखा जाएगा कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के नाम के इस ढांचे के आंगन में यह लौह स्तंभ खड़ा है।जिस पर गुप्तकाल की लिपि में संस्कृत में एक लेख है। जिसे पुरालेखीय ²ष्टि से चतुर्थ शताब्दी का निधारित किया गया है।
अभिलेख में कहा गया है कि इसका निर्माण चंद्र नामक एक शक्तिशाली राजा की याद में बनवाया गया है।यह अभिलेख गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त द्वितीय के बारे में है। जिनका कार्यकाल 375 से लेकर 413 ईसवी तक रहा है।इसे विष्णु पद के रूप में विख्यात पहाड़ी पद भगवान विष्णु के ध्वज के रूप किया गया था। इस स्तंभ के ऊपर एक गहरा छेद यह संकेत देता है कि इसका एक अतिरिक्त भाग शायद गरुड़ की मूर्ति रही होगी।
जो विष्णु के ध्वज के रूप में विष्णु मंदिर का संकेत देने के लिए उस पर लगाई गई थी। इस अभिलेख को 1903 में पंडित विश्वेश्वर नाथ के पुत्र पंडित बांकेराय नवल गोस्वामी ने पढ़ा था। एएसआइ के अनुसार इसे किसी अन्य स्थान से यहां लाया गया है।इसे तोमर राजा अनंगपाल लेकर आए थे। इसकी ऊंचाई 7.20 मीटर है। जिसमें से 93 सेंटीमीटर जमीन के नीचे दबा हुआ है। इस स्तंभ की धातु लगभग विशुद्ध पिटवा लोहे जैसी पाई गई है। इतने विशाल लौह स्तभ का निर्माण आज से करीब 1800 साल पहले हुआ था, जिसमें आज तक नुकसान नहीं हुआ है।
यह स्तंभ प्राचीन भारतीयों के धातुकर्मीय कौशल का स्थायी रूप से साक्षी है।इसे कहां से लाया गया है इसे लेकर अलग अलग मत हैं। कुछ लोग इसे मथुरा से लाया गया बताते हैं तो मध्यकालीन भारतीय इतिहास पर शोध कर रहेभोपाल निवासी संगीत वर्मा और नेहा तिवारी का दावा है कि कुतुबमीनार में लगा लौह स्तंभ कहीं और से यहां नहीं लाया गया,यह स्तंभ यहीं बनाया गया और लगाया गया। वह कहते हैं कि विक्रमादित्य के समय से ही नहीं महाभारत काल के समय से ही भारत के लोहे को विशेष होने का जिक्र है।
प्राचीन काल में भारत का लोहा यूरोप और दूसरे देशों में निर्यात किया जाता था।इस लोहे की विशेषता है कि यह मुड़ जाता है, उदाहरण के लिए इस लोहे से बनने वाली तलवारें प्राचीन काल में हमारे यहां मुड़ी हुई मिलती हैं, जबकि पश्चिमी देशों में यह सीधी होती थीं।आज भी विदिशा में जनजातियां इस तरह का लोहा बनाती हैं जिस पर जंग नहीं लगता है।
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