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Jagran Film Festival: 'कला के ऊपर पैसों को तवज्जो मिलने लगी है', फिल्म फेस्टिवल में बोले निर्देशक सुभाष घई

सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में चल रहे जागरण फिल्म फेस्टिवल के 11वें संस्करण के दूसरे दिन पहुंचे फिल्म निर्देशक सुभाष घई ने ये बातें कहीं। इस कार्यक्रम का आयोजन रजनीगंधा और उत्तर प्रदेश सरकार के सहयोग से किया जा रहा है। दो बड़े कलाकारों को पर्दे पर एक साथ लाकर काम कराने की चुनौतियों पर बोलते हुए घई ने कहा पहले जमाना और था अब काफी बदल गया है।

By Ritika MishraEdited By: Abhi MalviyaUpdated: Sat, 05 Aug 2023 02:28 PM (IST)
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जागरण फिल्म फेस्टिवल के 11वें संस्करण के दूसरे दिन पहुंचे फिल्म निर्देशक सुभाष घई।
नई दिल्ली, रीतिका मिश्रा। ''जिस वक्त आप पैदा होते हैं उस समय आपका दिमाग बहुत क्रिएटिव होता है। जब आप तीन या चार साल के होते हैं तब आपकी रचनात्मकता आहिस्ता-आहिस्ता विलीन होती जाती है, चूंकि बच्चा फिर मां-बाप के हिसाब से चलने लगता है। मैं समझता हूं हर बालक में रचनात्मकता है, लेकिन उम्र बढ़ने के साथ ये खत्म होने लगती है।''

सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में चल रहे जागरण फिल्म फेस्टिवल के 11वें संस्करण के दूसरे दिन पहुंचे फिल्म निर्देशक सुभाष घई ने ये बातें कहीं। इस कार्यक्रम का आयोजन रजनीगंधा और उत्तर प्रदेश सरकार के सहयोग से किया जा रहा है। दो बड़े कलाकारों को पर्दे पर एक साथ लाकर काम कराने की चुनौतियों पर बोलते हुए घई ने कहा पहले जमाना और था अब काफी बदल गया है। अब का जीवन काफी भौतिकतावादी हो गया है सरलता, सहजता, सहनशीलता है ही नहीं। पहले पति परमेश्वर होता था अब पति पार्टनर हो गया है। उस समय के लोग एक दूसरे की बहुत कद्र करते थे। वो कहते थे बहुत अच्छा होगा हम साथ काम करेंगे, लेकिन अब दो बड़े हीरों एक साथ एक फिल्म में काम करने से परहेज करते हैं।

उन्होंने कहा कि अब कला के ऊपर पैसों को तवज्जो मिलने लगी है। उन्होंने सिनेमा में अपना करियर बनाने के बारे में बातचीत करते हुए बताया मेरी माता ने मेरे जीवन में बड़ा अहम किरदार निभाया है। उन्होंने मुझे वो बनने दिया जो मैं बनना चाहता था। उन्होंने बताया कि उन्हें बचपन से सिनेमा और थिएटर का शौक था। वो कहानियां लिखते और पढ़ते थे।

उन्होंने कहा कि जब वो आठवीं में थे तब दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म से रोज एक उपन्यास पढ़ने के लिए चार आने में लेते थे। उनके पिता चाहते थे कि वह सीए बनें, लेकिन एक दिन पिता के पूछने पर मैंने बताया कि फिल्मों में जाना चाहता हूं। फिर उन्होंने एक अखबार थमाकर उसमें पुणे स्थित फिल्म इंस्टीट्यूट का विज्ञापन दिखाया और कहा यहां दो वर्ष पढ़ाई करो फिर फिल्मों में जाओ।

मैंने पुणे इंस्टीट्यूट की एक-एक ईंट, एक-एक पौधे के साथ अपना रिश्ता बनाया और बहुत कुछ सीखा। उन्होंने बताया कि मैंने वहां जो सीखा वो मुझे आज तक काम आया। शिक्षक आपको शिक्षा नहीं देता ये विद्यार्थी है, जो शिक्षा लेता है। कॉमर्शियल सिनेमा को बतौर करियर चुनने पर कहा कि मुझे सफलता की बहुत जरूरत थी, पिता को रुपये वापस लौटाने थे और काफी दबाव था इसलिए इसे चुना। शुरुआती दिनों में काफी संघर्ष किया है।

जब आप दुनिया में जाते हैं तो पूरी दुनिया सामने खड़ी होती है, कुछ लोग साथ होते हैं, कुछ विरोध में। कुछ अपमानित करते हैं, कुछ प्यार करते हैं, लेकिन आपको बहुत मजबूत बनना पड़ता है। समझना पड़ता है कि सारे अच्छे हैं और जब ये सोचते हैं कि सभी अच्छे हैं तो दुश्मन भी आपको अच्छा समझने लगते हैं। कर्ज फिल्म पर उन्होंने कहा कि ये फिल्म रिलीज हुई तो नहीं चली।

मैंने फिल्म के बारे में उत्तर प्रदेश के एक थिएटर वाले को फोन लगाया। उसने बताया कि सब उठ-उठ कर जा रहे हैं, कह रहे हैं कि सुभाष घई को क्या हो गया, कैसी फिल्म बना दी। फिल्म में मरा राजकिरण है, ये ऋषि कपूर को क्या तकलीफ है। मैंने पहली बार उस फिल्म में प्रयोग किया था कि पुनर्जन्म के बाद आपका शरीर तो अलग होगा, लेकिन आत्मा वही रहेगी। अगली बार हम विषय को एक पीढ़ी आगे ले जाते हैं। ताल के बारे में याद करते हुए सुभाष ने बताया कि इस फिल्म के संगीत की रचना के लिए उन्हें एआर रहमान के साथ 71 रातें लगी थी।

-सुभाष घई, फिल्म निर्देशक

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