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Karwa Chauth 2020: करवा चौथ महिलाओं के सद्गुणों का प्रतीक, पुरुषों को उनका सम्मान करने के लिए भी करता हैं प्रेरित

Karwa Chauth 2020 याद रहे कि हस्तिनापुर की उस सभा में गंगापुत्र भीष्म जैसे महापुरुष भी विराजमान थे परंतु इतिहास कृष्ण को ही उनके सद्कर्म के कारण स्मरण करता है। करवा चौथ जैसे पर्व पर पुरुषों को भी उनके प्रति सम्मान प्रकट कर उनकी बेहतरी का संकल्प लेना चाहिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Wed, 04 Nov 2020 11:21 AM (IST)
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नारी सशक्तीकरण का अभीष्ट कैसे पूरा हो सकेगा।
रघोत्तम शुक्ल। Karwa Chauth 2020 करवा चौथ को लेकर कुछ विचार तरंगें मानस पटल पर आलोड़न-विलोड़न करने लगीं। स्त्रियां इस पर्व पर पति की दीर्घायु के लिये व्रत रखती हैं। यही नहीं और भी कई व्रत ऐसे हैं जो नारियां पति या पुत्र के शुभत्व हेतु रखती हैं, जैसे हरतालिका, जीवित पुत्रिका आदि। व्रत-उपवास आदि तो अच्छे होते हैं। ऊर्जा प्रदान करते हैं, किंतु ऐसा कोई व्रत नहीं है, जो पुरुष अपनी पत्नी, बहन या मां के हितार्थ रखता हो। क्या सारा ठेका नारियों का ही है। यह सामाजिक व्यवस्था पारस्परिक संतुलन, समानता और समरसता के लिए सही नहीं लगती। इसमें पुरुष प्रधानता और नारी की अधीनस्थता की गंध आती है। इस विषय में हमें भगवान शंकर से प्रेरणा लेनी चाहिए, जो पत्नी (माता पार्वती) को अपने शरीर के आधे भाग में प्रतिष्ठित कर ‘अर्ध नारीश्वर’ कहलाते हैं। वे स्त्री को पर्याप्त सम्मान देते हैं।

इतिहास में पांडवों को नायक माना गया है, परंतु देवताओं के मानस पुत्र पांडव भी महिलाओं के प्रति नजरिये की इस कसौटी पर संदिग्ध रहे। अपनी पत्नी द्रौपदी को वस्तु की भांति जुए में दांव पर लगाना किसी भी प्रकार से उचित नहीं था। यदि भगवान कृष्ण न होते तो पांचाली की प्रतिष्ठा तार-तार हो गई होती। इतना ही नहीं वेदों के ‘पुंसवन’ मंत्रों में भी पुत्र की ही कामना की गई है। आशीर्वाद में भी ‘पुत्रवती भव’ ही कहा जाता है। विश्लेषक यह कह देते हैं कि तत्समय भिन्न-भिन्न समूहों में युद्ध होते रहते थे, जिसमें रक्षा के लिए पुत्र सहायक होते थे और पुत्रियों की तो रक्षा का उल्टा दायित्व ही आन पड़ता था। ऐसे तर्क किसी भी प्रकार गले नहीं उतरते।

हमारे देश के समकालीन सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में भी स्थितियां बहुत अधिक नहीं सुधरी हैं। संवैधानिक व्यवस्था के तहत महिलाओं के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं में आरक्षित सीटों के रूप में स्थान सुनिश्चित करने की सराहनीय पहल की गई है। मगर इसका भी अपेक्षित लाभ नहीं मिला है। विशेषकर स्थानीय निकायों और पंचायतों के स्तर पर तो यह व्यवस्था भारी विसंगतियों का शिकार हो गई है। यहां वे नाममात्र की ही प्रतिनिधि होती हैं। इस प्रकार नारी सशक्तीकरण का अभीष्ट कैसे पूरा हो सकेगा। इस दिशा में केवल कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं होगा। सामाजिक स्तर पर सोच भी बदलनी होगी। इसमें नारियों को भी आगे आकर अपने अधिकारों के लिए मुखर होना होगा। पुरुषों को भी अवसर आने पर कृष्ण बनने के लिए तत्पर रहना चाहिए। 

(लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं)

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