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छलका एक मां का दर्द- बेशक, मुझे कष्ट देना पर ऐसी संतान मत देना

मुरादाबाद की रहने वाली कुसुम आज भी अपने बेटे को याद करती हैं। उसे याद कर उनकी आखें भर आती हैं। उन्होंने बताया कि मेरा एक छोटा सा परिवार था। जिसमें एक बेटा, दो बेटियां व पति थे।

By Edited By: Updated: Mon, 01 Oct 2018 01:51 PM (IST)
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छलका एक मां का दर्द- बेशक, मुझे कष्ट देना पर ऐसी संतान मत देना

नोएडा (पारुल रांझा)। भगवान अगले जन्म में अगर मेरे कर्म बुरे हो तो बेशक मुझे कष्ट देना पर ऐसी संतान मत देना। वृद्ध आश्रम में रहते कई साल हो गए हैं। अब तो यही अपना घर लगता है। यहां पर मन लगता नहीं पर लगाना पड़ता है। जब जवान थे तो कभी सोचा नहीं था कि कल भगवान ये दिन दिखा दें। शायद ये किस्मत का ही कसूर है जो आज वृद्ध आश्रम में रहना पड़ रहा है, लेकिन सब आपस में मिल कर रहें यही चाह है। ये कुछ शब्द उन बूढ़े शरीरों में दफन घुटन को साफ बयां करते हैं जिन्होंने अपने बच्चों को 9 माह तक पेट में रखकर जन्म दिया और आज उन्हीं के बच्चे 9 मिनट देने को तैयार नहीं।

शहर में एनजीओ की ओर से चलाए जा रहे कई वृद्ध आश्रम है, जहां पर दर्जनों ऐसे बुजुर्ग है, जिन्हें जब लाठी के सहारे की जरुरत हुई तो अपनों ने ही ठोकर मार दी। इनके बेटे बेशक अपने माता पिता के प्यार दुलार के लिए न तड़पते हो लेकिन वे आज भी अपने बेटे की राह देखते हैं। उनकी आखों में एक आस हमेशा रहती है कि शायद आज कोई मेरा अपना मुझे घर लेने आया हो। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। दैनिक जागरण ने सेक्टर-55 स्थित वृद्ध आश्रम की कुछ ऐसी वृद्ध महिलाओं से बात की जिन्होंने अपने दर्द को भुलाकर जीना सीखा है। भले ही आखों में आंसुओं की बूंदे छलक रही हो लेकिन अपने बच्चों के लिए उनका प्यार कम नहीं हुआ।

आखिर भगवान ने क्यों मेरे अपनों को ही छीना
मुरादाबाद की रहने वाली कुसुम आज भी अपने बेटे को याद करती हैं। उसे याद कर उनकी आखें भर आती हैं। उन्होंने बताया कि मेरा एक छोटा सा परिवार था। जिसमें एक बेटा, दो बेटियां व पति थे। बेटियों की शादी के बाद पति का देहांत हो गया। बस बेटा ही एक सहारा बचा था। लेकिन शायद भगवान को मुझे अकेला ही करना था। कुछ सालों बाद कैंसर के कारण बेटे की मृत्यु हो गई। अब तो केवल यही वृद्ध आश्रम मेरा सहारा बन चुका है। यहां पर सभी आपस में बात कर मन बहला लेते हैं। समय कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता। छोटी छोटी चीजों में खुशियां मिल जाती है। जीवन में केवल एक ही दर्द है कि मेरा क्या कसूर था जो भगवान ने मेरे अपनों को ही छीन लिया।

आए भी अकेले थे और जाएंगे भी अकेले
दिल्ली की रहने वाली 79 साल की कमलेश खुराना ने बताया कि बेटा साल में एक बार मिलने आ जाता है। मिलकर एक सुकुन सा मिलता है। केवल एक ही चाह है कि मेरे बच्चे जहां भी रहे बस मिल-झूल कर रहें। उन्होंने बताया कि वे 25 साल एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका के पद पर तैनात थी। उसके बाद कुछ विपरीत परिस्थितियों के चलते उन्हें वृद्ध आश्रम आना पड़ा। अब तो यहां पर रहते 2 साल हो गए है। सप्ताह में पूजन, भजन-कीर्तन होता रहता है। इसी मे मन लगा रहता है। आश्रम में बाहर से भी मिलने बहुत लोग आते हैं, उनसे ही अपने दुख-सुख शेयर करती हूं। जीवन में आए भी अकेले है और जाना भी तो अकेले ही है।

अपनों के आने की आस तो रहती ही है
पंजाब की रहने वाली विजय माला को सेक्टर-55 के वृद्ध आश्रम में रहते हुए 5 साल हो गए। वे पहले आगरा के एक स्कूल में अध्यापिका थी। विजय माला ने बताया कि जिंदगी में बहुत दर्द है लेकिन यहां पर दूसरे लोगों को बच्चे की तरह हंसता खिलखिलाता देख कर सारे गम दूर हो जाते हैं। ऐसा महसूस होता है कि इन्होंने भी तो दर्द को भूलकर जीना सीखा है। कभी कभी आस तो रहती है कि कोई अपना आएगा और घर ले जाएगा। पर मुझे नहीं लगता की घर पर ज्यादा समय रह पाऊंगी। उन्होंने बताया कि बच्चों से कई यादें जुड़ी है। उन्हीं अच्छे पलों के बारे में सोच दिन गुजर जाते हैं।

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