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जानिए- 500 वर्ष से भी अधिक पुराने इस चर्चित भजन के बारे में, जिसे रोज गाते थे गांधीजी

इस महान कव‍ि का कृष्‍ण पर अटूट विश्‍वास था। इन्‍हें गुजराती साहित्‍य में वही स्‍थान मिला है जो हिंदी और बृज में महाकवि और कृष्‍ण के महान उपासक सूरदास को मिला है।

By JP YadavEdited By: Updated: Fri, 01 Feb 2019 11:45 AM (IST)
जानिए- 500 वर्ष से भी अधिक पुराने इस चर्चित भजन के बारे में, जिसे रोज गाते थे गांधीजी
नई दिल्ली [सुधीर कुमार पांडेय]। वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे (सच्चा वैष्णव वही है, जो दूसरों की पीड़ा को समझता हो। यह भजन बापू की दिनचर्या का अभिन्‍न अंग था। वह अक्‍सर यह भजन गाते थे। ऐसा हो भी क्‍यों न, इस भजन में जीवन का सार है। समाज को बराबरी पर लाने का प्रयास है। ऐसे समाज का निर्माण है, जहां न कोई द्वेष हो, न कोई कपट और छल हो। बहती हो तो सिर्फ प्रेम की धारा। जन जन में लोकप्रिय इस भजन को जानते हैं किसने लिखा है। इसके रचयिता हैं संत शिरोमणि नरसी मेहता। मध्‍यकाल के इस महान कव‍ि का कृष्‍ण पर अटूट विश्‍वास था। इन्‍हें गुजराती साहित्‍य में वही स्‍थान मिला है जो हिंदी और बृज में महाकवि और कृष्‍ण के महान उपासक सूरदास को मिला है। उन्‍हें मीराबाई और चैतन्‍य महाप्रभु के समतुल्‍य माना जाता है। नरसिंह मीरा युग के नाम से एक अलग युग का निर्धारण भी किया गया है।

नरसी मेहता का जन्‍म 1414 ईसवी में गुजरात के जूनागढ़ के तलाजा गांव में हुआ था। माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था। वह अपने चचेरे भाई के साथ रहते थे। अधिकतर संतों की मंडलियों के साथ घूमा करते थे और 15-16 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया। उनकी प्रमुख रचनाएं सुदामा चरित, गोविन्द गमन श्रृंगार माला, वंसतनापदो’, कृष्ण जन्मना पदो आदि हैं। वह अत्‍यंत निर्धर ब्राह़मण परिवार में जन्‍मे थे। मध्‍यकालीन के उस रुढि़वादी समाज में जब छुआछूत एक बीमारी के तौर पर फैली हुई थी, उस समय नरसी मेहता ने इसका घाेर विरोध किया। उनके इसी विरोध के चलते बिरादरी से उनका बहिष्कार तक कर दिया था, पर वे अपने पथ से डिगे नहीं।

मध्‍य काल हिंदी साहित्‍य का स्‍वर्ण काल

सूरदास की तरह नरसी मेहता भी अपने भाव में मग्‍न रहते थे। सूरदास ने कृष्‍ण को मन की आंखों से देखकर वात्‍सल्‍य का वर्णन किया तो नरसी ने भी उन्‍हें अंतर्मन की आंखों से देखा। भक्तिकाल को हिंदी साह‍‍ित्‍य का स्‍वर्ण काल भी कहा जाता है। इस काल में तुलसी, सूर, मीरा, नरसी, नानक का प्राकट़य हुआ। उस समय के रूढिवादी समाज में उन्‍होंने भक्‍ित के माध्‍यम से प्रहार किया। भक्‍ित साहित्‍य में एेसे शब्‍द पिरोये कि मन झंकृत हो जाए। प्रख्‍यात आलोचक मैनेजर पांडेय अपनी पुस्‍तक सूरदास में लिखते हैं कि सूरदास कवियों के कवि इसलिए भी हैं कि उन्‍होंने ब्रजभाषा काव्‍य की जो परंपरा निर्मित की, वह बाद के लगभग चार सौ सालों तक चलती रही।

भजन

वैष्‍णव जन तो तेने कहिये जे

पीड़ परायी जाणे रे

वैष्‍णव जन तो तेने कहिये जे

पीड़ परायी जाणे रे

पर-दुख्खे उपकार करे तोये

मन अभिमान ना आणे रे

वैष्‍णव जन तो तेने कहिये जे

पीड़ परायी जाणे रे

सकळ लोक मान सहुने वंदे

नींदा न करे केनी रे

वाच काछ मन निश्चळ राखे

धन-धन जननी तेनी रे

वैष्‍णव जन तो तेने कहिये जे

पीड़ परायी जाणे रे

सम-द्रिष्टी ने तृष्णा त्यागी

पर-स्त्री जेने मात रे

जिह्वा थकी असत्य ना बोले

पर-धन नव झाली हाथ रे

वैष्‍णवजन तो तेने कहिये जे

पीड़ परायी जाणे रे

मोह-माया व्यापे नही जेने

दृढ़ वैराग्य जेना मन मान रे

राम नाम सुन ताली लागी

सकल तिरथ तेना तन मान रे

वैष्‍णव जन तो तेने कहिये जे

पीड़ परायी जाणे रे

वण-लोभी ने कपट-रहित छे

काम-क्रोध निवार्या रे

भणे नरसैय्यो तेनुन दर्शन कर्ता

कुल एकोतेर तारया रे

वैष्‍णव जन तो तेने कहिये जे

पीड़ परायी जाणे रे

पर-दुख्खे उपकार करे तोये

मन अभिमान ना आणे रे

वैष्‍णव जन तो तेने कहिये जे

भजन का अर्थ

सच्चा वैष्णव वही है, जो दूसरों की पीड़ा को समझता हो। दूसरे के दु:ख पर जब वह उपकार करे, तो अपने मन में कोई अभिमान ना आने दे। जो सभी का सम्मान करे और किसी की निंदा न करे। जो अपनी वाणी, कर्म और मन को निश्छल रखे, उसकी मां धन्य-धन्य है।) जो सबको समान दृष्टि से देखे, सांसारिक तृष्णा से मुक्त हो, पराई स्त्री को अपनी मां की तरह समझे। जिसकी जिह्वा असत्य बोलने पर रूक जाए, जो दूसरों के धन को पाने की इच्छा न करे।

जो मोह माया में व्याप्त न हो, जिसके मन में दृढ़ वैराग्य हो। जो हर क्षण मन में राम नाम का जाप करे, उसके शरीर में सारे तीर्थ विद्यमान हैं। जिसने लोभ, कपट, काम और क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली हो! ऐसे वैष्णव के दर्शन मात्र से ही, परिवार की इकहत्तर पीढ़ियां तर जाती हैं, उनकी रक्षा होती है। 

बन चुकी है फिल्म
नरसी मेहता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर 1940 में फिल्म ‘नरसी भगत’ का निर्माण हुआ था। इसके डायरेक्‍टर विजय भट्ट थे। उस समय के चर्चित गायक-अभिनेता विष्णुपंत ने इस फिल्म में भक्त नरसी मेहता की भूमिका की थी। फिल्म में यह भजन विष्णुपंत और अमीरबाई कर्नाटकी ने अलग-अलग गाया था। फिल्म में गाए अमीरबाई के इस भजन को सुन कर महात्मा गांधी ने उनकी प्रशंसा भी की थी। नरसी मेहता के इस भजन को दक्षिण और उत्तर भारतीय, दोनों संगीत पद्यतियों में दक्ष प्रख्‍यात गायिका एमएस सुब्बुलक्ष्मी ने भी स्‍वर दिया है। इस गायिका को 1988 में भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘भारतरत्न’ से अलंकृत किया गया था।

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