दिल्ली आकर तस्करी के जाल में फंस रहे यूपी-बिहार के लाल, पढ़िए- यह दर्द भरी स्टोरी
देश के पिछड़े इलाकों के परिजनों को गुमराह कर उनके बच्चों को दिल्ली लाकर उनसे बंधुआ मजदूरी कराई जा रही है। इनमें सर्वाधिक बच्चे बिहार और यूपी से हैं।
नई दिल्ली [लोकेश चौहान]। जरूरतों ने मजबूर किया, तो इसी मजबूरी को कुछ लोगों ने धंधा बना लिया और पढ़ने-खेलने की उम्र में बच्चों को मजदूर बना दिया गया। मजदूर भी ऐसा, जिन्हें काम के एवज में पैसे की बजाय कभी गालियां तो कभी बेरहमी से मार पड़ती। न भरपेट खाना मिलता, न सुकून की नींद नसीब होती। जिन आंखों में सुनहरे भविष्य के सपनों की चमकी होनी चाहिए थी, उन आंखों में निराशा का स्याह अंधेरा दिखता। इन बच्चों ने तो उम्मीद भी छोड़ दी थी कि कभी उन्हें खुला आसमान देखने को मिलेगा। यह किसी गुजरे जमाने का किस्सा नहीं, जब लोगों को बंधुआ मजदूर बनाया जाता था। यह 2019 की हकीकत है। वह भी राजधानी दिल्ली में यह सब हो रहा है।
देश के पिछड़े इलाकों के परिजनों को गुमराह कर उनके बच्चों को दिल्ली लाकर उनसे बंधुआ मजदूरी कराई जा रही है। मासूमों को बंधुआ मजदूरी के गर्त में धकेलने वाले भी कोई गैर नहीं, बल्कि उन परिवारों के जानने वाले ही होते हैं। इनमें से कई तो ऐसे हैं, जो बाकायदा बच्चों के तस्कर के ठेकेदार के रूप में कार्य कर रहे हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश से दिल्ली आने वाले ऐसे बच्चे जब अपनी व्यथा सुनाते हैं तो उनकी आंखे नम होती हैं साथ ही मजदूरी के नाम पर यातनाओं का दंश देने वाले लोगों के प्रति उनकी आंखें गुस्से से लाल हो जाती हैं। बंधुआ मजदूर के रूप में काम करने वाले इन बच्चों को एनजीओ की मदद से छुड़ाया गया। इनकी काउंसिलिंग की गई और इनकी मेहनत का पैसा भी दिलाया गया। मानसिक रूप से प्रताड़ित इन बच्चों के सामान्य होने के बाद उनके परिजन को सौंप दिया गया।
केस स्टडी-एक
बिहार के सुपौल जिले के छोटे से गांव का 12 वर्षीय बच्चा कक्षा चार में पढ़ता था। उसके परिवार के एक परिचित ने दिल्ली ले जाकर बच्चे के बेहतर भविष्य के सपने दिखाए। तीन भाई-बहनों में वह सबसे छोटा था। दस माह पहले उसके परिजनों ने इस उम्मीद में दिल्ली भेज दिया कि वह वहां कुछ कमाएगा और उसकी बहन की शादी के लिए जो कर्ज लिया गया था, उसे चुकाने में आसानी होगी। दिल्ली लाकर उसे एक ढाबे पर छोड़ दिया गया। लोगों को खाना देने के साथ गंदे बर्तन साफ करने के अलावा उसे ढाबा संचालक की मार भी सहनी पड़ती थी। बचपन बचाओ आंदोलन द्वारा उसे वहां से छुड़ाया गया और बुराड़ी स्थित मुक्ति आश्रम में उसकी काउंसिलिंग कराई गई। एनजीओ की मदद से उसे ढाबा संचालक से एक लाख 33 हजार रुपये उसके काम के एवज में दिलाए गए। जब वह मुक्ति आश्रम से अपने घर गया तो उसने अपनी पढ़ाई आगे जारी रखने की बात भी कही।
केस स्टडी-दो
उत्तर प्रदेश के रायबरेली के रहने वाले नौवीं कक्षा के छात्र को परिवार का सहारा बनने के लिए तैयार करने के नाम पर दिल्ली लाया गया। उसके घर की माली हालत खराब थी। पिता के दिव्यांग होने के बाद उसकी और पांच भाई-बहनों की जिम्मेदारी उसकी मां पर आ गई। मां की बीमारी से मौत होने के बाद परिवार के सामने खाने का भी संकट खड़ा हो गया। उसके हालात को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हुए एक एजेंट उसे दिल्ली ले आया। उसे दिल्ली में चूहों का पिंजरा बनाने वाली जगह पर काम में लगा दिया गया। केमिकल के साथ घुटन भरे माहौल में काम करने से उसे त्वचा का संक्रमण हो गया। पूरे शरीर पर छाले पड़ने के बाद भी उससे लगातार काम लिया गया और उसे मजदूरी के नाम पर पैसा भी नहींे मिली। उसे जनवरी 2019 में वहां से छुड़ाया गया। शारीरिक रूप से कमजोर होने के साथ ही वह मानसिक रूप से भी टूट चुका था। मुक्ति आश्रम में लगातार काउंसिलिंग के साथ 18 दिन तक उसका इलाज भी चला।
केस स्टडी-तीन
बिहार के मधेपुरा के छोटे से गांव के रहने वाले बच्चे को कब और कौन दिल्ली लेकर आया, वह खुद भी नहीं जानता। बचपन बचाओ आंदोलन एनजीओ ने जब उसे छुड़ाया तो उसे सिर्फ इतना पता था वह एक जरी की फैक्ट्री में 52 बच्चों के साथ एक कमरे में काम करता था। वहां न खिड़की थी न दरवाजा। धूप और हवा आने की कोई जगह नहीं थी। वहीं काम करते और वहीं सो जाते। वह सिर्फ इतना सोचता था कि पांच वर्ष तक लगातार काम करेगा तो इतना पैसा कमा लेगा कि घर जाकर कुछ नया काम शुरू कर सकेगा, लेकिन उसे काम के एवज में एक रुपया भी नहीं मिला। उसे जब मुक्त कराया गया तो उसे चीफ मिनिस्टर रिलीफ फंड से 25 हजार रुपये मिले थे। वह डॉक्टर बनना चाहता है और कहता है कि जो कष्ट उसने ङोला, उसे कोई और ने ङोले, इसके लिए पूरा प्रयास करेगा। इस समय वह अपने गांव में बनाई गई सतर्कता समिति का प्रमुख है।
केस स्टडी-चार
जूस की दुकान पर काम करने के एवज में चार हजार रुपये वेतन का वादा करके 15 वर्ष के किशोर को बिहार के दरभंगा जिले से दिल्ली लाया गया। यहां उससे प्रतिदिन 13-14 घंटे काम लिया जाता। उसे कोई पैसा नहीं दिया। जब उसे छुड़ाया गया। मुक्ति आश्रम में रहने के दौरान उसका खाता खुलवाया गया और उसके द्वारा काम किए जाने के एवज में मिले पैसों का डिमांड ड्राफ्ट बनवाकर उसके परिजन को दिया गया। परिवार की हालत ठीक नहीं थी तो उसके गांव जाने के कुछ दिन बाद तस्करी करके नेपाल ले जाकर उसे ईंट के भट्टे पर काम पर लगा दिया गया। इतना ही नहीं उसके बैंक खाते के कागजात और डिमांड ड्राफ्ट नासमझी में उसके परिजनों ने भट्टे पर काम दिलाने वाले व्यक्ति को दे दिए। इसके बाद उसे छुड़ाने वाले समाजसेवी ने उसके बैंक के कागज वापस लिए और डिमांड ड्राफ्ट को उसके खाते में जमा कराया। इसके अलावा जिलाधिकारी द्वारा दिया गया 20 हजार रुपये का डिमांड ड्राफ्ट भी उसके खाते में जमा कराया गया। इसके बाद समाजसेवी ने उसे भट्टे से मुक्त कराया और गांव में वापस लेकर गया।
दिल्ली-NCR की ताजा खबरें पढ़ने के लिए यहां पर करें क्लिक
अब खबरों के साथ पायें जॉब अलर्ट, जोक्स, शायरी, रेडियो और अन्य सर्विस, डाउनलोड करें जागरण एप