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मिलिए दिल्ली की ललिता 'मां' से, GB रोड की यौन कर्मियों के बच्चों को 30 साल से दे रहीं शिक्षा

जीबी रोड की गलियों में कोठों पर पड़े पर्दों की दीवारों के बीच आपको एक कोना बचपन का भी दिखेगा जहां एक समय में 85 से अधिक बच्‍चे एक साथ रह सकते हैं। सोचिए दो वर्ष से 18 वर्ष तक इन बच्‍चों की परवरिश कितनी बड़ी चुनौती होगी।

By Manu TyagiEdited By: GeetarjunUpdated: Tue, 11 Apr 2023 06:57 PM (IST)
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मूल रूप से कर्नाटक की ललिता(65) ने 1991 में यौन कर्मियों के बच्चों के लिए की थी शिक्षा-दीक्षा की शुरुआत।
नई दिल्‍ली [मनु त्‍यागी]। जीबी रोड। यहां अदाएं बिकती हैं। जिस्‍म का सौदा होता है। मजबूरियों की बुनियाद से आज पेशा बन चुके इस मोहल्‍ले में ममता फिर भी खुलकर सांस लेती है। कह सकते हैं गनीमत है ममता के पालने का संरक्षण करने वाला कोई है। कभी सोचा है इनके बच्‍चों का क्‍या होता होगा? लेकिन ईश्‍वर ने जीवन दिया है तो उसकी अंगुली थामने वाला कोई न कोई हाथ भी जरूर बनाया है। तीन दशक पहले मूल रूप से कर्नाटक की ललिता ने इन बच्‍चों के अधिकार के लिए ये शुरुआत की थी। ये पहल आज तीन हजार से अधिक बच्‍चों का जीवन संरक्षित कर चुकी है। बच्‍चों का पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, संस्‍कार, विवाह सब जिम्‍मेदारियों को पूरा कर रही है। यहां के बच्‍चे दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के कालेज में पढ़ रहे हैं और कई बेटे-बेटियां तो अपनी मांओं को यहां से निकाल कर ले गए और एक स्‍वस्‍थ घरेलू जीवन जी रहे हैं।

जीबी रोड की गलियों में कोठों पर पड़े पर्दों की दीवारों के बीच आपको एक कोना बचपन का भी दिखेगा, जहां एक समय में 85 से अधिक बच्‍चे एक साथ रह सकते हैं। सोचिए दो वर्ष से 18 वर्ष तक इन बच्‍चों की परवरिश कितनी बड़ी चुनौती होगी। लेकिन एक ‘मां’ ने तीस साल पहले जो जिम्‍मा लिया उससे अपनी उम्र के 65 वर्ष के पड़ाव पर भी थकने नहीं दिया और संबल ही दिया। उनके द्वारा पोषित, संरक्षित किए गए बच्‍चों से युवा बन चुके आज उनके साथ हाथ थामे इस मुहिम को बढ़ाने में भी भूमिका निभा रहे हैं।

कोठे-कोठे जाकर बच्‍चों की हिम्‍मत बंधाई

ललिता यौन कर्मियों के बच्‍चों का ही संरक्षण करने के विषय में बताती हैं कि मैं महिला एवं बच्‍चों से जुड़े कार्य कर्नाटक में एक संस्‍था में करती थी। 1988 में एक बार दिल्‍ली आना हुआ। उसी दौरान एक डाक्‍टर रेड लाइट एरिया में सेक्‍स वर्कर्स पर काम करना चाहते थे। मुझे जीबी रोड भेजा गया, वहां एक आदमी उन बच्‍चों को पीट रहा था, तभी एक सेक्‍स वर्कर आई और मेरे आगे हाथ जोड़कर रोते हुए अपने बच्‍चे के जीवन उद्धार की विनती करने लगी। उस दिन मैंने संकल्‍प लिया जो मुझे आज हजारों बच्‍चों की ममता से बांधे हुए है।

परिवार का भी पूरा साथ मिला

शुरुआत में तीन साल तक कोठे-कोठे जाकर, सेक्‍स वर्कर्स से बात करती थी, उनके बच्‍चों को उनके सामने देखरेख करती थी। बच्‍चों को अच्‍छी बातें सिखाना, शिक्षित करना अच्‍छे संस्‍कारों से पोषित करने लगी तो वे मुझसे जुड़ने लगे। तब एक आत्‍मीयता संबंध बन जाने के बाद वर्ष 1991 में सोसाइटी फार पार्टिसिपेटरी इंटीग्रेटेड डेवलप्ड- (एसपीआईडी-एसएमएस) बच्चों के लिए एक सुरक्षित, संरक्षित स्थान के रूप में बनाया गया। है। मैं उन यौन कर्मियों से एक ही बात कहती थी कि इन बच्‍चों का क्‍या दोष है इन्‍हें अपना जीवन मिलना चाहिए। इन्‍हें साहसी और आत्‍मनिर्भर बनाना है।

ललिता बच्‍चों को अपने पास रखने की सुरक्षा के सवाल पर कहती हैं कि उस समय सोशल वेलफेयर था तो उनके सहयोग से शुरुआत की थी। अब वात्‍सल्‍य के मानकों तहत इस मिशन को पूरा कर रहे हैं। बच्‍चों का बाल कल्‍याण समिति के तहत पंजीकृत कराने के बाद ही अपने पास रखती हैं।

चुनौतियां के आगे दृढ़ संकल्‍प

कहती हैं आसपास के थाने से पुलिस का हमेशा सहयोग मिलता है। बच्‍चों को अस्‍पताल ले जाना है, उसमें भी मदद मिलती है, लेकिन उन्‍हें अस्‍पताल ले जाने तक के साधन-सुविधा का अभाव है। स्‍कूलों में बच्‍चों को दाखिला कराना सक्षम परिवारों के लिए ही मुशिकल होता है यहां तो और भी बड़ी चुनौती रही। सोशल वेलफेयर के पत्र को दिखाकर ही बच्‍चों को दाखिला दिया जाता है लेकिन स्‍कूलों की बहानेबाजी ये बच्‍चे बाकी बच्‍चों के साथ कैसे समन्‍वय बैठाएंगे, हमारे स्‍कूल के बच्‍चे इनसे क्‍या सीखेंगे?

इस तरह की परेशानियां खड़ी करते हैं। लेकिन जब तय किया हुआ है तो अब हमारे वालंटियर भी सीख गए हैं, उन्‍हें उनके हिसाब से ही जवाब देते हैं बच्‍चों को पहली से 12वीं तक अच्‍छे स्‍कूलों में पढ़ाते हैं। कई छात्र-छात्राएं तो दिल्‍ली विश्‍विद्यालय में भी पढ़ाई कर चुके हैं, अब भी कर रहे हैं। वालंटियर अपनी इच्‍छा से जुड़ते हैं और यहां सेंटर में बच्‍चों को प्री-नर्सरी जितनी शिक्षा, नैतिक शिक्षा, कंप्‍यूटर आदि सिखाते हैं।

आगे एक बच्‍चे की मदद की दक्षिणा

यहां पर मौजूद किशोर-किशोरी उम्र वर्ग वालों की देखभाल करने वाली आया बताती हैं कि इन बच्‍चों को बचपन में ही थोड़ा देखभाल करने, समझाने में दिक्‍कतें आती हैं। बाकी तो धीरे-धीरे इस माहौल में इतना घुलमिल जाते हैं समझते हैं कि अपने छोटे साथियों को खुद पढ़ाते हैं। उनकी देखरेख में भी मदद करते हैं। किशोरवस्‍था में बच्‍चों के शारीरिक, मानसिक बदलाव भी होते हैं तो उन्‍हें उसी हिसाब से चिकित्‍सक और मनो विशेषज्ञ से उनकी लगातार काउंसलिंग भी कराई जाती है ताकि किसी गलत दिशा में नहीं भटकें।

ललिता कहती हैं कि मैं बहुत किस्‍मत वाली हूं सभी बच्‍चे मुझे मां कहते हैं और 18 वर्ष की उम्र के बाद यहां से विदा लेने के बाद ‘एक बच्‍चे की मदद’ करने के संकल्‍प को मेरी गुरु दक्षिणा की तरह पूरा करते हैं। आज मैं कह सकती हूं कि मेरी तीसरी पीढ़ी शुरू हो चुकी है। कई बच्‍चों ने यहां से पढ़ लिखकर अपना करियर बनाया, मैंने उनकी शादी की। एक सुखद वैवाहिक जीवन जी रहे हैं।

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