मिर्ज़ा ग़ालिब की हर बात निराली थी, ग़ज़लों की तरह उनके ख़त भी मशहूर हुए थे
उर्दू के सबसे मजबूत दस्तखतों में से एक मिर्ज़ा ग़ालिब की आज जयंती है।
नई दिल्ली (अभिनव उपाध्याय)। जितनी प्रसिद्धि ग़ालिब के शेरों को मिली उतनी उनके खुतूत (पत्र) को नहीं, लेकिन ग़ालिब के ख़ुतूत उस दौर की दास्तां बयां करते हैं और प्रामाणिक साक्ष्य के तौर पर माने जाते हैं। शोधकर्ताओं ने भी माना कि यदि ग़ालिब शायर नहीं होते तो उनके खत ही प्रसिद्धि दिलाने के लिए काफी थे।
ग़ालिब का अंदाज़ ए बयां, तंज और कसीदे उनके हुनर बताते हैं। मिर्जा असदउल्लाह बेग ख़ां उर्फ ग़ालिब (27 दिसंबर 1796 से 15 फरवरी 1869) उर्दू और फारसी भाषा के महान शायर थे। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का जिक्र फारसी में लिखी उनकी रचना दस्तंबू में है।
इसमें गालिब ने उन तमाम घटनाओं को विस्तार से लिखा है जो न केवल उन पर बल्कि दिल्ली के अधिकतर निवासियों पर बीतीं। उन्होंने लिखा है कि मैं उन्हीं मजबूर और मुतास्सिर लोगों में एक था। अपने कमरे में बंद, बाहर का शोर और हंगामा सुनता रहा।
हर तरफ से सिपाहियों के दौड़ने और घोड़े के टापों की आवाज आ रही थी। घर से बाहर झांकने पर खून से भरी लाशें नजर आ रही थीं। गुलशन का हर कोना बहारों का कब्रिस्तान बन गया।
मौत से एक दिन पहले ग़ालिब ने नवाब लोहारू के ख़त का जवाब कुछ यूं लिखवाया- मुझसे क्या पूछते हो कि कैसा हूं? एक या दो दिन ठहरो फिर पड़ोसी से पूछ लेना।
अपने चाहने वालों को लिखे ख़त में ग़ालिब कहते हैं कि धीरे-धीरे घर में खाने-पीने का सारा सामान खत्म हो गया। हालांकि पानी बहुत संभालकर खर्च किया था, लेकिन अब किसी प्याले और बर्तन में पानी का एक कतरा भी नहीं था। अब सब्र करने की ताक़त भी खत्म हो चुकी है। हम लोग दिन रात भूखे और प्यासे रह रहे हैं।
11 मई 1857 के दिन की समाप्ति पर ग़ालिब ने लिखा, ख़ुदा-ख़ुदा करके उस अशुभ दिन का अंत हुआ। हर तरफ गहरा अंधेरा फैल गया। इन बर्बरों और हत्यारों ने शहर में जगह-जगह पड़ाव डाला। किले के भीतर वाले बाग को घोड़ों का अस्तबल बनाया और राज-सिंहासन को चारपाई।
रफ्ता-रफ्ता दूर-दूर के शहरों से खबरें आने लगीं कि मुख्त़लिफ फौजों के सैनिकों ने हर छावनी में अफसरों को कत्ल कर दिया है। गिरोह के गिरोह चाहे सिपाही हों या किसान सब इकट्ठे हो गए और किसी निश्चित कार्यक्रम के बिना ही दूर और नजदीक हर जगह एक ही काम के लिए कमर कस ली। और फिर कैसी मजबूती से कमरें कसी थीं कि सिर्फ लहू की नदी की वे तरंगें ही उन्हें खोल सकती थीं जो कमरों से गुजर जाएं।
लगता था कि जिस तरह झाड़ की बहुत सी सीकों को एक ही सुतली से बांधा जाता है, उसी तरह इन अनगिनत लड़ने वालों की कमरें भी एक ही कमरबन्द से बंधी हुई थीं। अंग्रेजों ने जब दिल्ली में मारकाट मचाई तो गालिब ने बयां किया, शहर में 15 सितंबर 1857 से हर घर का दरवाजा बंद है। दुकानदार और खरीदार गायब हैं।
न गेहूं बेचने वाला है कि गेहूं खरीदें, न धोबी है कि कपड़े धुलने को दें। हजाम को कहां खोजें और मेहतर को कहां से ढूंढकर लाएं। आजकल हम लोग अपने आप को कैदी समझ रहे हैं। ग़ालिब इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ.सैयद रजा हैदर ने बताया कि गालिब के खुतूत 18वीं सदी का इतिहास बयां करते हैं।
उस जमाने की सियासत को भी यदि समझना है तो गालिब के खतों को पढ़ना ही पड़ेगा। गालिब के पत्र में 1857 के गदर का काफी जिक्र है। ग़ालिब के ख़त चार खंडों में छपा है। उन्होंने 200 से अधिक लोगों को ख़त लिखा। उन्होंने सबसे अधिक ख़त अपने शागिर्द हरगोपाल तफ्ता को लिखे।