... जब खफा हो गए थे राव बिरेंद्र सिंह, मनाते रहे गांव के लोग
कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता वेदप्रकाश विद्रोही ने बताया कि एक बार वर्ष 1967 में राव पाली गांव में पहुंचे थे। ग्रामीण उनके बैठने का अनुरोध करते रहे लेकिन राव नहीं बैठे।
By Mangal YadavEdited By: Updated: Tue, 16 Apr 2019 03:11 PM (IST)
गुरुग्राम [सत्येंद्र सिंह]। वह चौधरियों के प्रभाव का जमाना था। जी हां, गांव के चौधरियों का। अब तो एक ही परिवार में चार-चार विचारधारा के साथ मतदान होता है, लेकिन तब परिवार का मुखिया नहीं बल्कि गांव के दो-चार बुजुर्ग वोटों की गारंटी दे दिया करते थे। कुछ उम्मीदवारों का जलवा तो ऐसा होता था कि वोट मांगने के लिए अनुनय-विनय करने की बजाय पूरी ठसक के साथ खरी-खोटी सुनाते थे और फिर भी समर्थक उनके साथ डटे रहते थे।
पूर्व मुख्यमंत्री राव बिरेंद्र सिंह का ऐसा ही आभामंडल था। तब सार्वजनिक कार्यक्रम पेड़ों के नीचे होते थे। कुर्सियों की बजाय नेताओं को मूढ़ों पर बिठाया जाता था। तब पेड़ की छांव और मूढ़े चौपाल की शोभा बढ़ाते थे। चुनावी सभाएं अक्सर गांव में पेड़ों के नीचे होती थी।अगर राव को अपनी नाराजगी प्रकट करनी होती थी तो वह संबंधित गांव में पहुंचकर खड़े हो जाते थे। यह उनका नाराजगी प्रकट करने का तरीका होता था। तब खफा राव को बैठने के लिए ग्रामीण मनाते रहते थे।
कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता वेदप्रकाश विद्रोही ने बताया कि एक बार वर्ष 1967 में राव पाली गांव में पहुंचे थे। ग्रामीण उनके बैठने का अनुरोध करते रहे, लेकिन राव नहीं बैठे। आश्चर्यजनक रूप से ग्रामीण उनसे नाराज नहीं हुए बल्कि हाथ जोड़कर बार-बार बैठने का अनुरोध करते रहे। विद्रोही के अनुसार पूरा गांव राव से अनुरोध करता रहा और राव गुस्से में कुछ कुछ कहते रहे। इसके बाद राव बैठ गए। चुनावों में राव बिरेंद्र सिंह का यह स्टाइल अक्सर हिट रहता था।
सिक्कों से तौलने की भी थी परंपरा
उस समय का दौर अलग था। पैसे का अभाव था। फिर भी राव की झोली नोटों से भर दी जाती थी। बुजुर्ग अपने घरों से कुछ न कुछ धनराशि लेकर आते थे और एकत्रित करके नेताओं को देते थे। नेताओं को सिक्कों से तौलने की परिपाटी लंबे समय तक चलती रही। राव के समर्थक पार्टी विशेष की बजाय परिवार के प्रति समर्पित थे।
आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।उस समय का दौर अलग था। पैसे का अभाव था। फिर भी राव की झोली नोटों से भर दी जाती थी। बुजुर्ग अपने घरों से कुछ न कुछ धनराशि लेकर आते थे और एकत्रित करके नेताओं को देते थे। नेताओं को सिक्कों से तौलने की परिपाटी लंबे समय तक चलती रही। राव के समर्थक पार्टी विशेष की बजाय परिवार के प्रति समर्पित थे।