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Mirza Ghalib: दिल्ली में जिंदगी के आखिरी वक्त बिताए थे गालिब ने, वीरान पड़ी है बल्लीमारान की हवेली

गालिब को गुनगुनाने वाले सेंट स्टीफंस के प्रोफेसर डा शमीम अहमद कहते हैं कि मायूस होने का समय जरूर है पर निराश होने का नहीं है। दिसंबर में न सही माहौल ठीक रहा तो जनवरी में उनकी जयंती धूमधाम से मना लेंगे। गालिब भले ही नहीं हैं।

By Mangal YadavEdited By: Updated: Sun, 27 Dec 2020 02:29 PM (IST)
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एक अदद चिराग जलाने का इंतजाम नहीं है।
नई दिल्ली [नेमिष हेमंत]। बातों-ठहाकों में ही जहां रोजाना नज्मों की बरसात हो जाया करती थी। उस बल्लीमारान की हवेली में आज वीरानगी है। उसके सामने से बाकि दुनियादारी अपनी गति से चल रही है। पान से भरे खुशमिजाज चेहरे, पास से आती व्यंजनों की खुशबू के साथ गली के मुहाने पर खड़े लोगों में बातचीत का सिलसिला जारी है। पर हवेली के बड़े दरवाजे पर लटके ताले बाहर के कोलाहल को अंदर नहीं जाने दे रहे हैं। अजीब कश्मकश है। इस कोरोना काल में न जाने क्या-क्या देखने को मिला है। रविवार यानी आज उर्दू के अजीम शायर मिर्जा गालिब की जयंती है, लेकिन उनकी हवेली पर एक अदद चिराग जलाने का इंतजाम नहीं है।

लॉकडाउन के साथ दरवाजे पर जिस ताले ने कब्जा किया है। वह अभी तक जमे बैठा है। चंद लोग गालिब का पता पूछते इस हवेली तक आ रहे हैं। पर उन्हें निराशा हाथ लग रही है। इसमें गालिब ने अपने जीवन के आखिरी पल 1860 से 1869 तक गुजारे थे। इसकी हर दरों-दीवार से गालिब की महक आती है। उनकी लिखी गजलों की स्याही अभी भी सुर्ख है। उनको तलाशते लोग यहां चले आते हैं। जाने-आने वालों का सिलसिला चलता रहता है। 26 दिसंबर को गालिब की जयंती है। उनको चाहने वाले हर वर्ष यहां जश्न का इंतजाम करते हैं। पर इस बार ऐसा नहीं है।

गालिब को गुनगुनाने वाले सेंट स्टीफंस के प्रोफेसर डा शमीम अहमद कहते हैं कि मायूस होने का समय जरूर है पर निराश होने का नहीं है। दिसंबर में न सही, माहौल ठीक रहा तो जनवरी में उनकी जयंती धूमधाम से मना लेंगे। गालिब भले ही नहीं हैं। पर अपने नज्मों, शायरी से वह लोगों के दिलों में अमर हैं। किस्से ऐसे जो चटखारे के साथ सुनने को मिल जाएंगे। बात गालिब की हो रही है तो यह उनके जमाने के मशहूर दूसरे शायर जौक के बिना कहां पूरी होने वाली है। जौंक को बादशाह बहादुर शाह जफर ने अपना उस्ताद बना लिया था। एक दिन गालिब नई सड़क पर एक दोस्त के यहां बैठे थे। सामने से खुली पालकी में जौंक गुजरते हैं तो उन्हें देख गालिब कहते हैं हुआ है शह का मुसाहिब फिरे हैं इतराता।

'जौंक जाकर इसकी शिकायत बादशाह से करते हैं कि गालिब इतने नीचे गिर गए हैं कि राह चलते तंज कसते हैं। बादशाह गालिब को बुलावा भेजते हैं। बादशाह के पूछने पर गालिब कहते हैं कि वह तंज कहा कस रहे थे। अपनी शायरी पढ़ रहे थे। बादशाह शायरी पढ़ने को कहते हैं तो वह अगली लाइन पढ़ते हैं कि Þवर्ना शहर में गालिब की आबरू क्या है।'जौंक ठगे से खड़े रहते हैं।  

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