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नामी लेखिका अजीत कौर का छलका दर्द, 'कभी भोली भाली थी दिल्ली अब पैंतरेबाज हो गई'

अमृता प्रीतम हमारी हिरोइन थीं। वे नए लेखकों के लिए प्ररेणा थीं। वे कविताएं लिखती थीं उपन्यास व कहानियों का लेखन तो उन्होंने बहुत बाद में किया।

By JP YadavEdited By: Updated: Thu, 26 Dec 2019 11:32 AM (IST)
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नामी लेखिका अजीत कौर का छलका दर्द, 'कभी भोली भाली थी दिल्ली अब पैंतरेबाज हो गई'
नई दिल्ली [प्रियंका दुबे मेहता]।  लाहौर से दिल्ली और फिर एक आम लेखिका से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साहित्य समाज की अग्रदूत बनने तक के सफर में व्यक्तिगत जीवन की दुश्वारियों, दिल्ली के देव नगर से निकलकर सिरी फोर्ट रोड तक की यात्रा में उतार चढ़ावों का वृतांत... बात हो रही है पंजाबी कहानीकार...लेखिका साहित्य अकादमी और पद्मश्री सम्मान विजेता अजीत कौर की। उन्होंने दिल्ली को उस दौर में देखा जब कहीं जंगल तो कहीं चट्टान ही थे। सड़क किनारे लगे वृक्ष फलों से लदे रहते थे। दिल्ली की गलियां... साइकिल का सफर... अब भोली भाली दिल्ली का दिल बदलने लगा है। इन सभी यादों पर प्रियंका दुबे मेहता ने पंजाबी लेखिका अजीत कौर से बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः

लाहौर को देखने जीने गुनने वाली लड़की जब दिल्ली आई तो इस शहर से कैसे कदम मिलाए?

आप तो मुझे एकदम ऐसी जगह ऐसे वक्त में ले गईं, जो वक्त हर पल मेरे जेहन में जीवंत रहता है, सजा और थमा रहता है। लाहौर को उस दौर में एशिया का पेरिस कहा जाता था। वहां की हरियाली और प्राकृतिक छटा का कोई सानी नहीं था। विभाजन के कुछ महीनों पहले हम शिमला आए फिर जालंधर गए और उसके बाद पिता जी के मित्रों के आग्रह पर हम दिल्ली आ गए। जीवन अस्तव्यस्त हो गया था लेकिन दिल्ली ने जैसे हमें संभाल लिया। मुझे आज भी याद है सबसे पहले देव नगर में छोटा सा कमरा लिया था और बाद में पटेल नगर में क्लेम मिला और घर बनवाया। धीरे-धीरे दिल्ली की हरियाली में लाहौर के सुकून की तलाश पूरी होने लगी मन यही रम गया। दिल्ली ने हमें और हमने दिल्ली को दिल से अपना लिया था।

वैसे आपने लिखना तो बहुत कम उम्र में शुरू किया लेकिन उसे किताबी शक्ल मिलने में खासा वक्त लग गया?

हम सब सोचते हैं बस बल्ला रूपी कलम उठाएं और सचिन तेंदुलकर की तरह पिच पर उतर जाएं। लेकिन हर लेखक को हमेशा याद रखना चाहिए रियाज, प्रैक्टिस बहुत मायने रखती है। आप एकदम स्नातक में नहीं पहुंचते न, उससे पहले कितनी क्लास पढ़नी होती हैं। उससे शिक्षा के संस्कार मिलते हैं। ऐसे ही लेखन है उसके लिए भी रियाज जरूरी है। शुरुआत दस वर्षों में जो लेखन किया उसका प्रकाशन नहीं कराया क्योंकि मुझे लगता है कि हर क्षेत्र में रियाज बहुत जरूरी होता है। यह केवल गायकों के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि लेखकों को भी पकना पड़ता है। दस वर्ष के लेखन में जो चुनिंदा हुआ उसे फिर प्रकाशन के लिए दिया। पहली किताब मेरी ‘गुलबानो’ छपी थी। सबसे पहले मैंने जो कहानी लिखी थी वह अपने प्रोफेसर को यह जताने कि लिए लिखी थी कि वे मुझे बच्चा न समझें। मुझे वे इतने पसंद थे लेकिन मैं मात्र पंद्रह वर्ष की थी और वे मुझसे बच्चों का सा स्नेह देते थे। जब मैंने वह कहानी लिखी और कॉलेज के मंच पर पढ़ी तो तालियां मिलीं। बाद में एक चिट मिली जिसमें लिखा था कि कहानी अच्छी है और इसे मुझे दे दो। वह कहानी उनकी मैगजीन ‘नवियां कीमतां’ में छपी। इसके बाद मेरे लेखन का सफर आगे बढ़ता गया।

उस दौर में महिला लेखकों को लेकर एक तरह का पूर्वाग्रह होता था, प्रकाशक बड़ी मुश्किल से मिलते थे, आपके साथ भी कुछ ऐसा हुआ?

लोग कहते हैं कि महिला लेखकों को दिक्कतें आती हैं। मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ। मैं कभी प्रकाशकों के पीछे नहीं भागी बल्कि प्रकाशक स्वयं मेरे पीछे भागते थे। उस समय हैदराबाद में महिला लेखकों का सम्मेलन हुआ और मुझे भी बुलाया गया। सभी ने अपनी परेशानियां रखीं लेकिन मुझे कोई परेशानी थी नहीं तो मुझे अलग बैठने को कह दिया गया। नवयुग प्रकाशन के बाब प्रीतम सिंह सबसे बड़े पंजाबी प्रकाशक थे। मुझे याद है कि वे एक कहानी लिखवाने के लिए मुझे डिनर पर ले जाते थे। वे उनकी बेटी, मैं और मेरी बेटी। हम इकट्ठे जाते थे। मेरा कहने का मतलब है कि उस समय भी महिला या पुरुष होना मायने नहीं रखता था, जो चीज मायने रखती थी वह थी आपके लेखन में दम कितना है, आप कितने मकबूल हैं।

पंजाबी साहित्य में अमृता प्रीतम जैसी लेखकों का प्रभाव था, ऐसे में आपने अपनी जगह कैसे बनाई? उनसे कब मिलना हुआ था?

अमृता प्रीतम हमारी हिरोइन थीं। वे नए लेखकों के लिए प्ररेणा थीं। वे कविताएं लिखती थीं, उपन्यास व कहानियों का लेखन तो उन्होंने बहुत बाद में किया। मैंने छह साल की उम्र से उन्हें देखा था। मेरे पिता जी होम्योपैथिक डॉक्टर थे। अमृता जी को टीबी हो गया था। उस समय इस बीमारी का कोई इलाज नहीं था। केवल होम्योपैथिक में ही था। हम सोचते थे कि कितनी सुंदर लड़की है, इसे टीबी क्यों हो गया, भगवान उन्हें जल्दी ठीक कर दें। तब वे अमृत कौर हुआ करती थीं।

अच्छा अब दिल्ली शहर की बात करते हैं, कैसी थी आपके युवा दिनों की दिल्ली?

उस दौर में दिल्ली बहुत खूबसूरत थी। गंगाराम अस्पताल से लेकर वैलिंग्टन अस्पताल तक जंगल व चट्टान थे। हर जगह हरियाली थी। सड़कें छायादार व फलदार वृक्षों से ढकी हुई थीं। जहां खड़े हो जाइए वहीं हाथ फैलाएं तो जामुन और शहतूत जैसे फलों सें अंजुली भर जाया करती थी। मुझे याद है कि साइकिल चलाकर कनॉट प्लेस में सिंगर सलाई मशीन के ऑफिस में सिलाई सीखने जाती थी। मां का बहुत दबाव था सिलाई जरूर सीखूं। पटेल नगर से कनॉट प्लेस तक की साइकिल यात्रा की यादें आज भी मन में स्फूर्ति भर जाती हैं। अब तो लोगों को जबरन साइकिल चलाने के लिए जागरूक करना पड़ता है। पहले हर कोई साइकिल पर दिखता था अब हर कोई कार में।

भौगोलिक और प्राकृतिक खूबसूरती के अलावा साहित्यिक माहौल कैसा था दिल्ली का?

उस समय दिल्ली में प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट (विकासवादी लेखकों के आंदोलन) का दौर था। कम्युनिस्ट यानी वामपंथी लेखकों की बातें जोरों पर थीं। मोहंत सिंह थे, अमृता ज्यादा कविताएं लिखती थी लेकिन इस आंदोलन में थोड़ी-थोड़ी भागीदारी निभाती थीं। बाबा बलवंत थे। इनकी बैठकें होती थीं। उस समय इस पंथ के नाट्य लेखकों में हरचरण सिंह थे। करोल बाग गुरुद्वारे के सामने उनका एक कॉलेज हुआ करता था। ठीक से याद नहीं लेकिन शायद दिल्ली विवि का ही कॉलेज था। वहीं ज्यादातर बैठकें होती थीं। चर्चा होती थी कि कौन-सा लेखक ज्यादा प्रोग्रेसिव है, कौन नहीं है। उस समय इश्क मुहब्बत से निकलकर किसानों, मजदूरों, कुचली जमातों के बारे में लिखने को प्रेरित किया जाता था। इसी दौर में थियेटर भी काफी समृद्ध हो रहा था। कमानी ऑडीटोरियम बना नहीं था लेकिन ऑल इंडिया फाइन आट्र्स एंड क्राफ्ट्स सोसायटी (आइएफएसीएस) में थियेटर देखने जाते थे। संगीत की भी महफिलें होती थीं, रात में देर तक होने की वजह से हम नहीं जा पाते थे।

सिरी फोर्ट इंस्टीट्यूशनल एरिया दिल्ली का पॉश एरिया माना जाता है, आपने तो इसे उजाड़ हालात में भी देखा होगा?

मैं माउंट कैलाश में रहती थी। और उस समय यह इलाका सिरी फोर्ट रोड से लेकर पंचशील पार्क तक जंगल था। सिरी फोर्ट ऑडीटोरियम उस समय बन रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुझसे मैक्सिको में होने जा रहे सम्मेलन के लिए देश की कुछ प्रमुख महिलाओं के नाम की डायरेक्टरी बनाने को कहा था। उनसे मेलजोल बढ़ा। वे अक्सर मुझे नाश्ते पर बुलाती थीं। एक दिन मुझसे पूछ बैठीं कि तुम लेखन के अलावा और क्या क्या करती हो। मैंने बताया कि मैं मैगजीन चलाने के साथ कमजोर तबके की बच्चियों को शिक्षा व वोकेशनल प्रशिक्षण भी देती हूं। मेरी समस्याएं देखते हुए उन्होंने 1975 में मुझे डेढ़ एकड़ जमीन अलॉट करने की बात की लेकिन उसके बाद में उनकी सरकार चली गई और बात आई गई हो गई। सालों बाद डीडीए ने इस बाबत पत्र भेजा और तमाम औपचारिकताओं के बाद यह जमीन अलॉट हुई। 1987 में जमीन मिली जिसे दो साल के लिए ब्रह्मकुमारी वालों को दे दिया था बाद में 1989 में उसका निर्माण कार्य शुरू किया जिसे तैयार कराने में मेरी सब जमा पूंजी लग गई। बहरहाल आज यह पब्लिक इंस्टीट्यूशन है जिसमें स्कूल, वोकेशनल केंद्र और गैलरी चलती है।

दिल्ली में तब साहित्यिक...मनोरंजन... सांस्कृतिक सब चीजों का अच्छा खासा दौर था। और यही सब व्यक्तित्व समृद्धि का पैमाना भी...

(... बीच में बात काटते हुए) पढ़ने का तो इतना शौक था कि जिस लेखक हेनरिक इबसेन को लेकर एमए के बाद पढ़ते थे उन्हें मैंने पंद्रह वर्ष की उम्र में पढ़ लिया था। इतने पैसे नहीं होते थे तो किताबें मांगकर पढ़ते थे। पुरानी दिल्ली में रेलवे स्टेशन के पास पब्लिक लाइब्रेरी थी। मुझे याद है कि हर पंद्रह दिन में वहां जाती थी और किताबें लेकर आती थी फिर एक पखवारे में उन सारी किताबों को पढ़ना। वह भी एक कमाल का दौर था। इसके अलावा दरियागंज और कनॉट प्लेस के बरामदे किताबों से पटे रहते थे। मुझे उर्दू पढ़ने का भी बहुत शौक था तो जामा मस्जिद के पास एक किनारे पर उर्दू बाजार था मैं वहां से खूब किताबें लाती थी।

लेखक के लिए आलोचना उसकी मेहनत का फल होती है, आप आलोचना को किस तरह से लेती थीं?

मेरी हमेशा अच्छी आलोचना हुई है लेकिन बाद में एक आलोचक सत्येंद्र सिंह नूर हुए जो कि दिल्ली विवि में पढ़ाते थे उनसे मेरी इस बात पर अनबन हो गई कि मेरी किताब गुलबानो के नाम से उनकी एक दोस्त ने भी किताब लिखी तो उन्होंने कहा कि नाम से क्या फर्क पड़ता है। उस समय मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने उनको कहा कि नाम की लड़ाई में लोगों के घर बिक गए और एक आलोचक इस तरह की गैर जिम्मेदाराना बात कर रहा है कि नाम से क्या फर्क पड़ता है। अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती को ही ले लीजिए....सालों साल मुकदमा चला। कृष्णा सोबती की मास्टर पीस जिंदगीनामा’ को लेकर स्टार पॉकेट बुक इश्तिहार छपा, जिसमें अमृता प्रीतम की किताब 'दरदत्त द दगीनामा’ का नाम था। उसका डिजाइन अमृता के मित्र इमरोज ने किया था। कृष्णा ने मुझे अमृता प्रीतम से बात करने को कहा लेकिन मुझे अमृता से कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं मिला। इस लंबी कानूनी लड़ाई में कृष्णा सोबती का घर तक बिक गया था। अंतत अमृता ने बाद में उसे ‘हरदत्त द जिंदगीनामा’ नाम दिया।

आज की दिल्ली का मिजाज कैसा लगता है?

अब तो दिल्ली बहुत चालाक, पैंतरेबाज हो गई, पहले बहुत सरल और भोलीभाली लड़की तरह होती थी। पहले यहां नफरतों की जगह नहीं थी और नफरतें भर गई हैं। दिल्ली थी तो राजनीतिक राजधानी थी लेकिन यह राजनीति आम लोगों के बीच नहीं थी। अब दिल्ली के लोगों के बीच राजनीति घुस गई है। प्याज जैसी चीज तक पर राजनीति हो जाती है।

अब इस उम्र में लेखन व पठन का सिलसिला कैसा चल रहा है?

चार साल पहले एक दुर्घटना में मेरी आंख का रेटिना निकल गया था। उसकी सर्जरी के बाद अब मुझे पढ़ने में दिक्कत आती है। एक विशेष प्रकार के टैब पर ज्यादा से ज्यादा तीस से चालीस मिनट ही पढ़ पाती हूं। लेकिन नियमित पढ़ती जरूर हूं जो मुझे अच्छा लगता है उसकी कई प्रतियां खरीदकर लोगों को भी पढ़ने के लिए देती हूं। मैं अमृता प्रीतम को भी किताबें देती थी। अब तक मैं दो खंडों में अपनी आत्मकथा लिख चुकी हूं और तीसरे खंड का चरखा मेरे दिमाग में चल रहा है।

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