राम वंजी सुतार... एक ऐसे शिल्पकार जिन्हें पत्थरों से इंसान गढ़ना आता है। उन्होंने गांधी को केवल गढ़ा नहीं जिया है। आंबेडकर की मूरत को जीवंतता प्रदान की है। दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाने वाले यह शिल्पकार 19 फरवरी को वह अपनी जीवन यात्रा के सौंवे साल में प्रवेश कर रहे हैं। इस मौके पर दैनिक जागरण ने उनकी कार्यशैली से लेकर दिनचर्या तक पर विस्तार से बातचीत की।
मनु त्यागी, नई दिल्ली। राम वंजी सुतार... एक ऐसे शिल्पकार जिन्हें पत्थरों से इंसान गढ़ना आता है। उन्होंने गांधी को केवल गढ़ा नहीं, जिया है। आंबेडकर की मूरत को जीवंतता प्रदान की है। दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाने वाले यह शिल्पकार 19 फरवरी को वह अपनी जीवन यात्रा के सौंवे साल में प्रवेश कर रहे हैं। इस मौके पर दैनिक जागरण दिल्ली की मुख्य उपसंपादक मनु त्यागी ने उनकी कार्यशैली से लेकर दिनचर्या तक पर विस्तार से बातचीत की। कुछ प्रमुख अंश:
कब लगा राम के अंदर सुतार बसा है?
विचार और कल्पनाशीलता के बीज छोटी उम्र से ही मेरे भीतर पड़ गए थे। बचपन में एक दिन मां के पास बैठा था, तभी मुझे बिच्छू ने काटा था। मैंने उसे मार दिया। इसके बाद मन के भीतर के भावों ने मुझे उस बिच्छू की आकृति बनाने को प्रेरित किया। मैंने एक साबुन पर स्क्रैच करके उसकी आकृति बना दी। महाराष्ट्र में अपने गांव गोंदुर में जहां मैं पढ़ाई करता था, वहीं एक अखाड़ा भी था। उस समय अखाड़े में बच्चे नहीं आते थे। तब मास्टर जी के कहने पर मैंने एक पहलवान की छह फीट की मूर्ति बनाई जिसे देखकर अखाड़े में बच्चे आने लगे थे। मेरे गुरु श्रीराम कृष्ण जोशी ने मेरी इस प्रतिभा को पहचान कर उसे निखारा। उस समय मुझे पेंटिंग का भी शौक था। एक बात और सुतार का अर्थ है सूत्रधार। और सूत्रधार मतलब होता है जोड़ना। और मैं यही कर रहा हूं।
आपको शुरुआत में लगा कि चित्रकार हैं फिर मूर्तिकार बने, ऐसा क्यों?
देखिए, कला कुछ छोड़ने की चीज नहीं है। यह वह भाव है जो आपके भीतर है जिसे कोई चुरा नहीं सकता। मूर्तिकार हो चित्रकार... दोनों को जो जोड़ता है, वह है चिंतन। बचपन में बिच्छू की आकृति बनाना और स्लेट पर मूर्ति उकेरना... यह सब एक राह दिखाता रहा। फिर स्नातक की पढ़ाई के दौरान मुझे मूर्ति कला के क्षेत्र में जाना ही अच्छा लगा। चित्रकला के मेरे शौक की पूर्ति होती रहती है। प्रकृति केंद्रित पेंटिंग मेरी इसकी गवाह भी हैं।
अब तक कितनी मूर्तियां बनाईं और सबसे प्रिय कौन सी है?
बहुत मुश्किल होता है यह बताना कि कौन सी मूर्ति सबसे अच्छी है। मैंने लगभग एक हजार से अधिक मूर्तियां तैयार की हैं जो देश-विदेश में लगी हैं। गांधी जी की ध्यान मुद्रा में एक मूर्ति से मेरा बेहद जुड़ाव है। इस मुद्रा में जीवन का संदेश समाया है। देखा जाए तो गांधी जी के साथ मेरा पांच साल की अवस्था से ही लगाव रहा। उनकी बातों-विचार ने मेरे जीवन को साधे-बांधे रखे। बापू का अनुसरण किया तो उनकी मूर्तियां भी सबसे अधिक बनाईं।
किस मूर्ति को तैयार करने में सबसे अधिक समय लगा?
यह सर्वविदित है सबसे ऊंची मूर्ति सरदार पटेल की थी तो उसे ही तैयार करने में सबसे अधिक 45 महीने का समय लगा था। एक छोटे से माडल को 182 मीटर ऊंचाई में आकार देना, वो भी कांसे में। बहुत मुश्किल काम होता है। अभी अयोध्या में सरयू तट पर भगवान श्रीराम की सबसे ऊंची मूर्ति लगनी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इसकी डमी मूर्ति बहुत पसंद आई थी।
हमने डमी मूर्ति में ही उसके बड़े आकार की मूर्ति में जो सपोर्टिव चीजें होनी चाहिए, उनको गढ़ा था। मसलन श्रीराम का पट्टा बड़ी मूर्ति में कैसे दिखेगा, इतनी बड़ी मूर्ति को वो कैसे एक सपोर्ट के रूप में मदद कर सकता है, यह सब उसमें स्पष्ट दर्शाया गया। धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन का भी इसमें लाभ मिला।
इस यात्रा में चुनौती भी रही होंगी?
क्यों, चुनौती होना जरूरी है क्या? मुझे कभी चुनौती जैसी अनुभूति नहीं हुई। मुझे तो सिर्फ यही लगा मैं जीवन में एक रास्ता चुनकर उस पर चल रहा हूं। आपको बताऊं... मेरा जन्म महाराष्ट्र के गांव गोंदुर में आर्थिक रूप से कमजोर परिवार में हुआ था। पिता जी बढ़ई थे। शिक्षा-दीक्षा साधारण से स्कूल में ही हुई। चौथी के बाद गांव में स्कूल की सुविधा नहीं थी तो दूसरे गांव पैदल ही पढ़ने जाता था। सातवीं-आठवीं में किसी ने अपने घर पर रख लिया तो उनके घर में कुछ-कुछ काम कर दिया करता था। लेकिन, मैंने इन सब को चुनौती की तरह से नहीं लिया। मुझे याद है जब पांचवीं कक्षा में ही था तो मैंने कहीं एफिल टावर का दृश्य देखा था तो उसे देखकर मेरे मन में यही आया था एक दिन मैं भी दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाऊंगा। तब सोचा और कुछ साल पहले पटेल की मूर्ति के रूप में ये पूरा भी हुआ।
गांधी जी से विशेष लगाव के पीछे क्या वजह है?
अहिंसा के पुजारी का जीवन पूरा विश्व आत्मसात करना चाहता है। आज भी गांधी मेरे लिए एक सपने की तरह हैं। एक दिन हमारे गांव गोंदुर में गांधी जी आए थे। उस समय मेरी उम्र यही कोई छह-सात वर्ष थी। तब उन्होंने सभी से विदेशी वस्त्र जलाने की अपील की थी। मैंने भी एक टोपी पहनी हुई थी, किसी ने कहा ये विदेशी है। मैंने तुरंत उसे उतारा और जला दिया। गांधी जी ने सराहा। उनका सराहना और वो स्पर्श... हमेशा के लिए मुझमें विचार बनकर बैठ गया। स्कूल के दिनों में ही पहली बार जिस गांधी को बनाया था, वह हंसते हुए गांधी थे। गांधी जी को ढालना मेरे लिए एक तपस्या है। मेरे द्वारा बनाईं गांधी जी की 450 से अधिक मूर्तियां विभिन्न देशों में लगी हैं।
अब तो बहुत सारे कलाकार हैं, आपके दौर में तो मूर्तिकार के रूप में आप ही अकेले थे?
हां, उन दिनों और मूर्तिकार तो नहीं थे, लेकिन मैंने अपनी कला को ही इतना अधिक निपुण बनाया, इसमें इतने प्रयोग किए कि मेरी खुद से ही प्रतिस्पर्धा होने लगी। क्ले, मिट्टी, सीमेंट से लेकर कांसे तक की मूर्ति यात्रा और वो भी आज की ऊंची मूर्तियों तक के दौर में पहुंचना... खुद से ही प्रतिस्पर्धा का ही तो परिणाम है। इसमें मुझे अपने बेटे अनिल सुतार का भी भरपूर साथ मिला। हम दोनों एक सिक्के के दो पहलू की तरह हैं। मैं मूर्तिकार और वो वास्तुकार... इससे इस कला में दो गुणों के मिश्रण से मूर्तिकला की यात्रा और ऊंची हो गई। इसीलिए एक स्टूडियो से निकलकर एक बड़ी फैक्ट्री 150 कारीगरों तक पहुंच गई। और हमारी तीसरी पीढ़ी भी इसी कला में खुदको निपुण बनाने के लिए बढ़ रही है। पहले जिन मूर्ति को बनाने में मुझे दो-तीन साल लग जाते थे अब उन्हें बनाने में बहुत कम समय लगता है। सीएनसी मशीनों ने, कंप्यूटर सिस्टम ने बहुत कुछ आसान कर दिया है।
अयोध्या जी प्रभु श्रीराम की मूर्ति के लिए मूर्तिकार अरुण योगीराज द्वारा बनाई इस उन्हें प्रसिद्धि मिली, अब मूर्तिकला के माध्यम से दक्षिण-उत्तर का मिलन हो रहा है...?
वह बहुत सहज कलाकार हैं। कई अरसे से उनके पूर्वज इसी काम में निपुण थे। पत्थर का काम करते थे। इनकी कला शैली बेहद प्रशंसनीय है। मुख्य बात यह है विग्रह के प्राण प्रतिष्ठा के बाद जिस तरह से उनके द्वारा रची गई मूर्ति बोल उठी। वो हर भक्त और भगवान के बीच आस्था के जुड़ाव को संपूर्ण करती है। इनके द्वारा मूर्ति में उकेरे गए भाव-भंगिमा में अलग ही आकर्षण है। वैसे भी आप देखेंगे दक्षिण के मंदिरों में पत्थरों पर बहुत बारीक काम होता है। अधिकतर द्रविडि़यन शैली का काम देखने को मिलता है। अयोध्या जी में मंदिर निर्माण करने वाले वास्तुकार भी गुजरात के हैं। उन्होंने जितने मंदिर उधर बनाए हैं, या हमारे सबसे नजदीक अक्षरधाम मंदिर है, उनमें पारंपरिक शैली ही नजर आती है। उत्तर भारत में अब तक पत्थर के बहुत ज्यादा मंदिर नहीं बने हुए हैं। योगिराज बहुत परंपरागत, संस्कृति, सिद्धांतों को पत्थरों पर उतारने वाले कलाकार हैं। और ये अच्छा है संस्कृति एक-दूसरे को जोड़ रही हैं। इससे कला भी पुष्पित पल्लवित हो रही है।
आज के मूर्तिकारों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे...?
समर्पण से बड़ा कोई संदेश नहीं होता। आपकी सच्ची लगन, सच्ची राह, पड़ाव का साथी होती है। आपके पास जो हुनर है उसका निरंतर अभ्यास करते ही रहना चाहिए। निरंतर अभ्यास से ही कुछ हुनर निखरकर आते हैं। मेरे जीवन की यात्रा के अतिरिक्त युवा योगीराज जैसे मूर्तिकार भी इसे सिद्ध करते हैं। प्रभु श्रीराम की मूर्ति बनाकर उन्होंने पूरे देश को आज की मूर्ति कला से जुड़ने का भी संदेश दिया है कि कुछ अलग करेंगे, दिल से करेंगे तो उस परंपरागत कला के सम्मान में हर मस्तक खुद झुक जाता है। उनकी प्रसिद्धि, उनके अवसर से आज के युवा कलाकारों को एक आश्वासन तो मिलता है कि आज के समय में परंपरागत काम करके भी अभूतपूर्व प्रशंसा मिलती है। आपकी पीढि़यां जो करती आई हैं, आप उसको तो आगे बढ़ाते ही हैं, इससे पूरे समाज को, संस्कृति को भी कुछ दे रहे होते हैं। उनके बीच जुड़ाव का एक सेतु निर्माण कर रहे होते हैं।
आपने बहुत से राजनेताओं की मूर्ति बनाई हैं, उसके माध्यम से पहली और अब की राजनीति को किस तरह समझते हैं, कैसे देखते हैं...?
मूर्तिकार अपनी कला के लिए समर्पित होता है। उसकी भावनाएं किसी को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखतीं। हां, जिस तरह समयकाल परिस्थितियां बदलीं, समाज और जरूरतें बदलीं उसी भांति राजनीतिक बदलाव भी हुए हैं। सब अपनी विचारधार के अनुसार जो परामर्शदाता, पथपदर्शक रहे उनके संदेशों के साथ जगह-जगह उनकी मूर्ति शहर, राज्यों के जुड़ाव के साथ बनवाते रहे हैं। अब ये जरूर है समय के साथ अब स्कलप्चर्स के आकार लगातार ऊंचे उठते गए हैं। इसमें अधिक से अधिक ऊंचाई पर उन विभूतियों की मूर्ति स्थापत्य से प्रतिष्ठा, सम्मान दिया जा रहा है। यह अच्छा भी है इससे हर वर्ग, विशेषकर युवा उससे जुड़ते हैं। उनके बारे में जानना, समझना चाहते हैं। बड़ी मूर्ति, बड़ा संदेश। और मूर्तिकला के लिए तकनीक के नए आयाम खुल जाते हैं। वैसे भी राजनीतिक दल तो मूर्तिकार के काम को देखकर खुद ही बुलाते हैं।
शतायु का क्या राज है?
हा हा हा… वैसे मैं इस अंदाज में बहुत कम हंसता हूं लेकिन शतायु की बात सुनकर, खुद पर फर्क महसूस हुआ। मैंने बहुत संतुलित जीवन व्यतीत किया है। योग, प्रणायाम, व्यायाम और कठिन परिश्रम, काम से प्यार, लीन होकर जीना ये मेरे का मूलमंत्र रहे। मतलब ये सब मेरे बचपन से ही कला की भांति जुड़ गया था। इनके बगैर मेरी दिनचर्या पूरी नहीं होती थी। हां, कोरोना के बाद से अब टहलना बंद कर दिया है। आजकल बच्चों को ही डायबटीज, शुगर, ब्लड प्रेशर जैसी बीमारी हो जाती हैं। लेकिन शतक के करीब तक ईश्वर की कृपा से मैं अब भी रोगमुक्त हूं। हमेशा अल्पाहार ही मेरे तीनों प्रहर का भोजन रहा। गरिष्ठ भोजन कभी प्रिय नहीं रहा। कह सकते हैं, कि मैंने पत्नी से कभी खानपान के लिए कोई डिमांड नहीं की थी। जीवन संगिनी जब तक रहीं, हम दोनों के बीच मेरी कला जैसी ही मित्रता थी। दोनों को कभी गुस्सा नहीं आया। एक-दूसरे को समझने का सेतु विश्वास के पुल पर खड़ा रहा।
हमेशा ही आप बंगाली स्टाइल का कुर्ता-पजामा पहने दिखते हैं?
ये मेरी दोस्ती की निशानी है। मैं मुंबई से पढ़ाई पूरी करके रोजगार के लिए दिल्ली आया था यहां कई जगह मूर्ति बनाने का काम मिलता गया। यहीं परिवार के साथ रहने लगा तभी बंगाली मित्र बने, कला अकादमी, एनएसडी आदि जगहों पर जाते थे, तो उन्हीं का यह पहनावा मुझे अच्छा लगा तो शुरुआत कर दी। सात दशकर से इसी स्टाइल का कुर्ता-पाजामा पहनता आया हूं। हां, कभी कहीं बाहर जाना हैं तब जरूर सूट-बूट में दिखता हूं।
100 साल के हो रहे हैं बनाने की इच्छा होगी...?
भले ही शतायु हो गया हूं। हाथों में वृद्धावस्था का, उम्र के पड़ाव का कंपन जरूर आ गया है, फिर भी हर दिन हाथों में बसे सूत्र को धार देने की पूरी कोशिश करता हूं। जहां तक इच्छा की बात है, वैसे सभी सनातन धर्म के सभी ईश्वर रूपों की और देश में अब तक जितनी महानविभूति हुईं सभी की मूर्ति बनाई हैं। लेकिन एक इच्छा अब भी शेष है कि महात्मा गांधी जी की दो बच्चों के साथ वाली मूर्ति सबसे ऊंचे आकार में किसी पोरबंदर में या फिर कहीं किसी बांध पर बनाऊं। उसमें मूर्ति में पूरे विश्व के लिए संदेश छिपा है। और प्रभु श्रीराम की सरयू पर जो मूर्ति बनानी है, जिस पर सारी प्रक्रिया तय हो चुकी है उसे भी ईश्वर मुझे बनाने का अवसर दें।
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