जब दिलवालों की दिल्ली थी बहुत उदार, हर किसी को यहां समान नजर से देखा जाता था
निशांत केतु पटना से रिटायर होकर दिल्ली आए और फिर यहीं पर रच बस गए। वो दिल्ली को दिलवालों की तो मानते हीं हैं साथ ही मानते हैं कि यहां सभी को एक समान नजर से देखते थे।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Thu, 23 Jan 2020 11:24 AM (IST)
नई दिल्ली। शायद किसी शहर को जीना...उससे लगाव हो जाना इसी को कहते हैं। फिर भले आपका बचपन और युवापन उस शहर में न बीता हो फिर भी रगों में शहर ऐसे बस जाता है...कि उसी शहर की माटी के लगते हैं। हम बात कर रहे हैं आचार्य निशांत केतु की। यूं तो अध्यापन से सेवानिवृत्त होने के बाद दिल्ली आए लेकिन उनका अनुभव... इस शहर के प्रति स्नेह...संस्मरण बहुत कुछ बयां करता है। तभी तो पटना से भी दिल्ली की बैठकियों में...चले आते थे। आज भले उम्र 84 पार कर चुके हैं, अस्वस्थ हैं, बावजूद उनकी यादों में शुरुआती दौर से लेकर अबतक की दिल्ली का अक्स उतर आता है। उनके इसी सफर व दिल्ली के क्रमिक बदलावों पर आचार्य निशांत केतु से प्रियंका दुबे मेहता ने विस्तार से बातचीत की, प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश :
आप पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रहे थे, ऐसा क्या लगा कि दिल्ली आ गए?
वैसे स्थाई रूप से तो मैं सेवानिवृत्ति के बाद यहां आया लेकिन दिल्ली का आकर्षण मुझे पहले से था। पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान भी मैं दिल्ली आया करता था। इस आकर्षण के दो कारण थे उनमें से एक था कि मेरे बच्चे यहां पढ़ते थे। दूसरा कारण यह था यहां पर प्रकाशक थे। दरअसल पटना में पढ़ाई का सत्र बहुत पीछे था ऐसे में बच्चों को दिल्ली के स्कूल कॉलेजों में दाखिला दिलवाया था। प्रकाशक पटना में भी थे लेकिन इतने नहीं थे जितने की दिल्ली में। दिल्ली आने का एक और कारण बने लेखक मुल्क राज शर्मा ‘आनंद’। वे बंटवारे के समय पाकिस्तान में थे। वहां से बच कर बड़ी मुश्किल से यहां आए थे। मैंने उनकी उर्दू की किताबों का अनुवाद कराकर संपादन व प्रकाशन करवाया था। उसके बाद उनके नाती से मेरी बेटी का विवाह हुआ।
और बाद में ऐसा क्या आकर्षण हुआ इस शहर के ही हो गए? वैसे हर शहर का अपना मिजाज होता है, इसी तरह दिल्ली का था। पटना में जातीय सीमाएं थीं लेकिन दिल्ली में यह लघुता नहीं थी, उस दौर में। दिल्ली में इतनी उदारता थी कि सभी को एक ही नजरिए से देखा जाता था।दिल्ली अच्छी लगी और अनुकूल भी तो यहां बसने का निर्णय ले लिया।
फिर तो आपकी रचनाओं में भी इस शहर की छाया मिलती होगी?
हां, दिल्ली की संस्कृति से मैं बहुत प्रभावित था। इस शहर के प्रति मेरा अनुराग मेरे उपन्यास व कहानियों में भी झलकता है। मेरे उपन्यास योषाग्नि का एक खंड तो दिल्ली पर ही है। और भी कई लघु कथाएं हैं जिनमें दिल्ली का प्रभाव दिखता है।अच्छा संभावनाओं के नजरिए से इस शहर को कैसे देखते हैं? दिल्ली में हर वर्ग के लिए हर तरह की संभावनाएं हैं। मेरे बच्चे आज फिल्म निर्देशक से लेकर विदेश में उच्च पदों पर आसीन हैं और हमेशा यही कहते हैं कि अगर वे दिल्ली न आते तो इतना विकास नहीं हो पाता। दिल्ली विकास में हर तरह से सहायक है। व्यक्तित्व विकास से लेकर शिक्षा तक में यहां अपार संभावनाएं हैं। दिल्ली में छोटे छोटे स्थानीय बेल्ट जरूर हैं जिससे अब थोड़ी लघुता जरूर प्रकट होती है लेकिन कुल मिलाकर दिल्ली व्यापक है।
शुरुआती दौर में कैसी व्यापकता देखी थी? सांस्कृतिक स्थली है, राजनीतिक केंद्र है... और भी तमाम आकर्षण हैं जो इस शहर की व्यापकता को दर्शाते हैं। बेहद शांत थी दिल्ली। स्टेशन से लेकर कुतुबमीनार तक जंगल होता था। हम स्टेशन से टैक्सी करते और जब तक दो चार टैक्सियां साथ नहीं चलतीं हम कुतुबमीनार नहीं जा सकते थे। दरियागंज किताबों का मक्का था। जी भर कर किताबें खरीदते थे। कहीं पटरियों पर तो कहीं दुकानों पर... सब जगह पुस्तकें और पुस्तक प्रेमी। उस दौरान जब भी मैं दिल्ली आता था पहाड़गंज में रुकता था और कनॉट प्लेस और पालिका बाजार जाता था।
यहां की साहित्यिक गोष्ठियों में भी शिरकत करते थे? हां, दिल्ली में साहित्यिक बैठकी तो खूब होती थीं लेकिन दुख होता है कि अब वह माहौल नहीं रहा। इन गोष्ठियों में हिस्सा लेने के लिए पहले पटना में रहते हुए भी दिल्ली आते थे। हां, मैं क्षेत्रीयता वाली लघु गोष्ठियों का हिस्सा बनना पसंद नहीं करता था। क्योंकि क्षेत्रवाद या जातिवाद मुझे बिलकुल पसंद नहीं आता है। यहां क्षेत्रीयता की दृष्टि से छोटे छोटे खंड बने हैं मैं कभी उनका हिस्सा नहीं बना। कॉफी हाउस में खूब जाया करते थे। इसके अलावा प्रकाशकों के प्रकाशन संस्थान में भी लेखकों से मिलना जुड़ना होता था।
उस दौर में समकालीन लेखकों में किन से मुलाकात होती थी? डॉ. श्यार्म ंसह शशि से अक्सर मुलाकात होती थी। उन दिनों वे एक पुस्तक संपादित कर रहे थे ‘सामाजिक विज्ञान विश्व कोष’। वह पुस्तक दस खंडों में थी। उसमें मदद के लिए उन्होंने मुझे बुलाया था। कादंबिनी के संस्थापक राजेंद्र अवस्थी के साथ घंटों बातचीत होती थी।जिस दौर में आप यहां आए थे उस दौरान यहां पर स्थापित लेखकों का बोलबाला था? आपको यहां कितना संघर्ष करना पड़ा?
उस दौर में कम्यूनिस्ट विचारधारा के लेखकों का दौर था। लेखन और प्रकाशक पर उन्हीं की राजनीति का प्रभाव था। हम जैसे साहित्यिक और नॉन कम्युनिस्ट लेखकों को इतनी तवज्जो नहीं मिल पाती थी। प्रकाशक पूरी तरह राजनीति के प्रभाव में थे। उस समय साहित्य हाशिए पर खिसका दिया जाता था। अब थोड़ा सा बदलाव हुआ है। इसमें मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा था। ऐसे में मैं बस लिखता रहता था प्रकाशन के लिए परेशान नहीं हुआ कभी। लगता था कि लिखो, जब छपना होगा, छप जाएगा। हां, प्रकाशक से अर्थराशि के लिए दौड़ धूप करनी पड़ती थी।कई प्रकाशकों ने कई कई बार बुलाया और लौटाया। अर्थराशि की प्राप्ति बहुत कम हुई। इस दृष्टि से पटना की टेक्स बुक कमेटी बेहतर थी। वहां अच्छा पैसा मिलता था।
लोगों का पाठन और लेखन के प्रति रुझान बढ़ा है लेकिन बावजूद इसके अब साहित्य में गंभीर लेखन की कमी खटकती है?ये बात तो है, आज गंभीर लेखन नहीं हो रहा है। इसके कई कारण हैं। सबसे कटु कारण है वह है कि पूरी तौर पर लेखक होना रोजी रोटी नहीं चला पाता। दिल्ली में लेखन के बल पर आदमी नहीं जी सकता। अब लोग ज्यादा पढ़ लिख रहे हैं। अर्ब हिंदी में लिखना पढ़ना ट्रेंड बन रहा है। यह बदलाव धीरे धीरे हुआ है। आज लेखन में चालू और बिकाऊ चीजों पर ध्यान है। उसके प्रभाव में कणीय लेखक आ रहे हैं जो र्कि हिंदी के लिए बहुत शुभ नहीं है। अब ‘कामायनी’ क्यों नहीं लिखी जा रही है। इसका कारण है कि दिल्ली में आने के बाद लोगों को यही लगता है कि आज लिखा और कल यश प्रतिष्ठा व पुरस्कार मिल जाए। लेखक अब लिखना नहीं, प्रशस्ति पाना चाहते हैं। दिल्ली में भाषा की स्वच्छता, स्वछंदता, शुद्धता व प्रांजलता का अभाव शुरुआत से खटकता रहा है। भाषा की शुद्धता की दृष्टि से बिहार और उत्तर प्रदेश का मुकाबला नहीं है। दिल्ली की भाषा पर पंजाब, राजस्थान का प्रभाव है। बहुत ही दुखद है कि दिल्ली में भाषिक आकर्षण नहीं है।
दिल्ली की साहित्यिक संस्कृति के संवर्धन के लिए किस स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए?संस्थाओं की दृष्टि से सहयोग की आवश्यकता है। साहित्यिक संस्थाएं राजनीतिक प्रभावों से मुक्त होनी चाहिए। दिल्ली सरकार को सहयोग करना चाहिए इसमें। जहां तक अन्य संस्थाओं का सवाल है। उन्हें अपनी लघुताएं भुलाकर ंहदी के लिए सामूहिक दृष्टि से बहुत कुछ करना चाहिए। प्रवासी भारतीय को लेकर तो कुछ काम हुआ लेकिन व्यापक ढंग से नहीं हो पाया। प्रवासी भारतीर्य हिंदी साहित्य को ज्यादा समृद्ध कर सकते हैं और कर रहे हैं। इसलिए उनकी ओर भी ध्यान देना आवश्यक है।
उस समय और आज के विश्विद्यालयों की संस्कृति में कितना अंतर पाते हैं?जेएनयू तो उस दौर से ही राजनीति का अखाड़ा बना रहा है। अन्य विश्वविद्यालयों में पढ़ाई लिखाई व साहित्यिक गतिविधियों के प्रति गंभीरता दिखती थी। जामिया मिल्लिया विवि इस मामले में बहुत आगे थी। वहां मुझे अक्सर बुलाया जाता था। वहां एक प्रभाग है जिसमें श्रेष्ठ लेखकों की संपूर्ण पुस्तकें रखी जाती हैं। उसमें मेरी पुस्तकें भी रखी गई हैं। पहला प्रकोष्ठ प्रेमचंद है और दूसरा मेरा है।
एक दौर था जब लेखन का अंकुर अक्सर विश्वविद्यालयों से फूटता था, आज क्या स्थिति देखते हैं?आज विश्वविद्यालयों में इतनी साहित्यिक अभिरुचि नहीं रह गई है। मैंने इतनी किताबें खरीदी कि घर किताबें से भर गया। ऐसे में मैंने दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी से लेकर विश्वविद्यालयों तक में संपर्क कर इन पुस्तकों को दान करने का निर्णय लिया। तकरीबन 25 लाख की किताबें थी कोई लेने को तैयार नहीं हुआ। यह समाज की किताबों के प्रति विरक्ति का ही उदाहरण है। दिल्ली से निराशा मिली तो अंत में मगध विवि के वीसी ने किताबें लेने की इच्छा जाहिर की। वहां मेरे नाम पर एक कक्ष सुरक्षित करके किताबें सजाई गई हैं।
अस्वस्थ होने के बावजूद भी आपका लेखन जारी है, यह कैसे संभव हो पाता है? मैं अब लेखन डिक्टेशन से ही करता हूं। कई उपन्यास मेरे मन में चल रहे हैं और उनके सौ से अधिक पृष्ठ लिखे भी जा चुके हैं। उन्हें पूरा करना चाहता हूं। फिलहाल पांच उपन्यास हैं जिन्हें पूरा करना है। इसमें ‘सागर लहरी’ उपन्यास को अपने अध्यापन जीवन के अनुभवों के आधार पर कैंपस लाइफ को केंद्र बनाकर लिख रहा हूं।दिल्ली गुरुग्राम को बनते देखा होगा, तब और अब कि दिल्ली में क्या अंतर पाते हैं?दिल्ली का भौतिक विकास तो हो रहा है लेकिन सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से अभी बहुत पीछे है। इस दृष्टि से पटना जैसा छोटा शहर समृद्ध हो रहा है। प्रयागराज, बनारस जैसे शहरों में साहित्यक गतिविधियों का सौरव व सुगंध अधिक है। अब दिल्ली और खास तौर पर लेखक वर्ग में एक सामूहिकता, सहयोगशीलता का अभाव है। इसलिए इसमें साहित्यिक सुगंध की कमी महसूस करते हैं। दिल्ली में अब बेगानापन बहुत हो गया है और वह अपनापन कहीं खो गया है।दिल्ली की ऐतिहासिक धरोहरों की स्थिति को किस तरह से देखते हैं? मैं इतिहास का छात्र था तो मेरे मन में यहां के इतिहास के लिए आदर है और ऐतिहासिक इमारतों व धरोहरों का अनादर मुझे अंदर से व्यथित कर जाता है। लाल किला से लेकर इंडिया गेट देखने के लिए आने वाले लोगों की संख्या आज भी उतनी ही है। लेकिन ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरों को लेकर न कोई विचार है, न कोई परामर्श, लोगों में चेतना का अभाव है। जब लाल किला बना था उस समय उसके के अंदर के लोगों को खाने-पीने का सामान खत्म हो जाता था तो लोग लंबे समय तक डर के मारे बाहर नहीं निकल पाते थे। पर्यटकों को इतिहास की उन स्थितियों से रूबरू करवाया जाना चाहिए। वह केवल किला नहीं बल्कि उसका एक प्रस्तर खंड अपने में एक इतिहास समेटे है।
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