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COVID-19 के कठिन समय में जगा रहे बुझे बाल मन का दीपक

कोविड-19 के कारण अपने माता-पिता को हमेशा के लिए खो देने वाले बच्चों की मदद के लिए समाज के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारें भी तत्पर हैं। हाल ही में एक शेल्टर होम दौरे के दौरान UP के मुख्यमंत्री योगी ने प्रभावित बच्चों से भावुक होकर कहा- ‘मैं हूं ना’।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Sun, 27 Jun 2021 11:23 AM (IST)
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उनके प्रवास, शिक्षा एवं भविष्य की सुरक्षा के लिए अनेक योजनाएं शुरू की गई हैं।

नई दिल्ली, अंशु सिंह। विगत 100 वर्षों में विश्व ने ऐसी महामारी नहीं देखी होगी। हजारों-लाखों लोगों के अपने हमेशा के लिए बिछड़ गए। सबसे बड़ा पहाड़ टूटा उन मासूमों पर, जिनके सिर से अभिभावकों का साया छिनने से उनका समूचा भविष्य दांव पर लग गया। 'तीन दिनों से कुछ खाया नहीं है। मां घर पर नहीं हैं और पापा कुछ बात नहीं कर रहे।' यह बताते हुए दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती में रहने वाले सोनू (बदला हुआ नाम) की आंखें भर आईं।

दरअसल, कुछ समय पूर्व जब बाल यौन शोषण व बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था 'प्रोत्साहन' की एक सामाजिक कार्यकर्ता राशन आदि के वितरण के लिए वहां पहुंचीं, तो उनकी मुलाकात इस बच्चे से हुई। घर में मौजूद उसके पिता से पता लगा कि कोविड-19 से सोनू की मां की मौत हो गई। इसके कारण वह इतने सदमे में थे कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि उन पर दो बच्चों की पूरी जिम्मेदारी आ चुकी है। इससे लोगों की मानसिक पीड़ा का अनुमान लगा सकते हैं। 14 वर्षीय बनेश की कहानी भी कम मार्मिक नहीं। कोरोना संक्रमण ने पिता को हमेशा के लिए छीन लिया। बच गई मां, दो बहनें और अस्पताल का डेढ़ लाख रुपए का बिल। तब बनेश की मां के पास गांव लौटने के अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं बचा।

तकलीफों में पल रही पीढ़ी

कोरोना महामारी के दस्तक देने के बाद से ही प्रोत्साहन संस्था के दफ्तर में बच्चों, महिलाओं के फोन की संख्या एकदम बढ़ गई है। कई ऐसी महिलाओं के फोन आए, जिन्होंने अपने पति को कोविड संक्रमण के कारण खो दिया। उनके परिवार में रोजी-रोटी कमाने वाले वही एकमात्र सदस्य थे। आज उन्हें एक वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। संस्था की संस्थापक निदेशक सोनल कपूर बताती हैं, 'कोरोना संक्रमण के कारण कितने ही बच्चों के सिर से माता या पिता अथवा दोनों का साया छिन गया। उनकी पढ़ाई-लिखाई बंद हो चुकी है। कई परिवारों में किशोरावस्था में पहुंच चुकीं लड़कियों के पास मासिक धर्म से जुड़े मुद्दों पर जागरूक करने वाला कोई नहीं रहा। उनका यौन शोषण हो रहा है सो अलग। चोट खाए बच्चों की एक पूरी पीढ़ी तैयार हो रही है, जिन्हें भविष्य में न जाने किस प्रकार की शारीरिक व मानसिक चुनौतियों का सामना करना पड़े। इसलिए हमें बच्चों की इन चुनौतियों को समग्रता में देखने की जरूरत है। ऐसे अनगिनत बच्चे हैं, जो किसी अभिभावक के होने के बावजूद भूखे पेट सोने अथवा बाल मजदूरी करने को विवश हैं। हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम 'लुक, लिसन एवं लिंकÓ के फार्मूले को अपनाते हुए पहले जरूरतमंद बच्चों की पहचान कर, उन्हें सुनने और अंत में उन्हें सरकारी मशीनरी एवं योजनाओं से जोडऩे की कोशिश करें। फिलहाल, संगठन की ओर से पीडि़त परिवारों व बच्चों को राशन एवं प्रोटीन युक्त खाद्य सामग्री उपलब्ध कराई जा रही है। उन्हें मानसिक तकलीफ से उबारने के लिए कई सत्र आयोजित किए जा रहे हैं।'

समझें सही प्रक्रिया

एक ओर बच्च डरे, सहमे व दुख में हैं, कई तो अपनी बेचैनी एवं बेबसी को व्यक्त तक नहीं कर पा रहे, वहीं दूसरी ओर इंटरनेट मीडिया पर कोविड-19 के कारण निराश्रित हुए बच्चों को गोद लेने की होड़ मच गई है। कहना मुश्किल है कि मदद के लिए आगे आने वालों की मंशा कितनी साफ व ईमानदार है। बाल अधिकार के मुद्दे पर कार्य करने वाली दिव्या वैष्णव बताती हैं, 'इन दिनों हमारे पास बच्चों को गोद लेने से संबंधित अनेक फोन आ रहे हैं। फेसबुक एवं इंस्टाग्राम पर भी इससे जुड़े कई पोस्ट साझा हो रहे हैं, लेकिन जब हम उन नंबरों पर फोन मिलाते हैं, तो वह बंद मिलते हैं या उनसे संपर्क नहीं हो पाता। इससे संकेत मिलता है कि कैसे गोद लेने के नाम पर गलत जानकारियां परोसी जा रही हैं। कहीं न कहीं यह बाल तस्करी की ओर भी इशारा है। इसलिए मेरी कोशिश है कि जब भी इससे संबंधित फोन आएं, तो मैं उसे संबंधित राज्य व जिले की बाल कल्याण समिति या पुलिस स्टेशन से कनेक्ट करा सकूं। कई लोग अज्ञानतावश भी ऐसे कैंपेन का हिस्सा बन जा रहे हैं। उन्हें गोद लेने की प्रक्रिया या कारा आदि की जानकारी नहीं है। ऐसे में सरकार को गोद लेने की प्रक्रिया के बारे में आम जनता को जागरूक करने की आवश्यकता है। साथ ही, देश में अगर गैरकानूनी तरीके से इस तरह की गतिविधि चल रही है, तो उस नेटवर्क को भी ध्वस्त करना जरूरी है। तभी कारगर तरीके से बाल तस्करी को रोका जा सकेगा। नागरिकों को समझना होगा कि किसी भी निराश्रित बच्चे को पहले सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त एडाप्शन एजेंसी के पास ले जाना होता है। वहां से आगे की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।Ó

चुनौतियां हैं तमाम

कोरोना महामारी ने बच्चों की मासूमियत और बुनियादी अधिकारों पर भी गहरा प्रहार किया है। आंकड़े स्वैच्छिक संगठनों के हों या सरकारी एजेंसियों के, सभी बताते हैं कि कैसे बीते डेढ़ वर्ष में बाल विवाह के मामले अचानक बढ़ गए। महिला व बाल विकास विभाग के अनुसार, विगत वर्ष मध्य मार्च से लेकर जुलाई तक सिर्फ मैसूर में बाल विवाह के 100 से अधिक मामले सामने आए। इसमें 14 से 17 वर्ष की लड़कियों की संख्या अधिक थी। मेहरुन्निसा (बदला हुआ नाम) नौवीं कक्षा में थीं, जब पहली बार लाकडाउन हुआ तो फैक्ट्री में काम करने वाले उनके पिता की नौकरी चली गई। आर्थिक संकट ने परिवार को गांव लौटने पर मजबूर कर दिया। आनलाइन पढ़ाई भी बंद हो गई। घरवालों ने गांव लौटते ही बेटी की शादी करा दी। मेहरुन्निसा के सपने अधूरे रह गए। बाकी जिन मानसिक परेशानियों से उसे जूझना पड़ा, वह एक अलग कहानी है। वैसे, देश के अलग-अलग राज्यों की स्वयंसेवी संस्थाओं एवं वैयक्तिक प्रयासों के जरिए कोविड महामारी से प्रभावित बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी संभाली जा रही है। हैदराबाद स्थित प्रज्ज्वला संस्था उनमें से एक है। 2020 में शुरू किए गए एक प्रोजेक्ट को जारी रखते हुए पांच बच्चों की पढ़ाई का पूरा खर्च उठाया जा रहा है। ये बच्चे तेलंगाना, गुजरात एवं जयपुर से हैं। संस्था की संस्थापक सुनीता कृष्णन का कहना है कि कोविड-19 के कारण निराश्रित हुए या अपने किसी एक अभिभावक को खोने वाले बच्चे उनसे संपर्क कर सकते हैं। वे अगले दो वर्ष तक उनकी पढ़ाई का खर्च वहन करेंगी।

सवाल हैं कई

आंकड़ों के खेल में न फंसकर अगर वस्तुस्थिति को देखा जाए, तो सच यही है कि देश के लाखों बच्चों ने अपने माता-पिता, चाचा-चाची, दादा-दादी या नाना-नानी या दोस्तों को कोविड के कारण हमेशा के लिए खो दिया है। जो समर्थ परिवारों से हैं, उनकी चुनौतियां अलग प्रकार की हैं और जो समाज के निचले तबके से हैं, उनकी अलग। फिलहाल, पीएम केयर फंड से लेकर राज्य सरकार एवं महिला एवं बाल विकास विभाग ने बच्चों के पुनर्वास के लिए योजनाओं की घोषणा की है। कोविड संक्रमण के कारण निराश्रित हुए बच्चों की शिक्षा से लेकर उनके स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सरकारों ने उठाई है। आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत बच्चों का स्वास्थ्य बीमा कराया जाएगा। दस वर्ष से कम उम्र के बच्चों को जहां राजकीय बाल गृह में रखा जाएगा, वहीं अवयस्क बच्चियों की देखभाल व पढ़ाई की व्यवस्था कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में की जाएगी। ऐसी बच्चियों की शादी के लिए सरकार ने सहायता राशि सुनिश्चित की है, लेकिन कुछ सवाल अब भी हैं, जिन पर संशय है। जैसे, अगर किसी बच्चे के पिता का पहले ही देहांत हो चुका हो और कोविड ने मां को भी छीन लिया हो, तो क्या ऐसे बच्चे इस श्रेणी में शामिल किए जाएंगे? दूसरा, अगर किसी बच्चे के पास कोविड से अभिभावकों की मृत्यु का सर्टिफिकेट नहीं होगा, तो क्या उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिलेगा? इस बारे में केंद्र व राज्य सरकारों के व्यावहारिक नजरिया अपनाना होगा, ताकि जरूरतमंद बच्चों को अपेक्षित सहायता मिल सके।

  • आयुष्मान भारत के तहत स्वास्थ्य बीमा
  • 18 वर्ष की आयु के बाद हर महीने मिलेगा 4000 रुपये का स्टाइपेंड
  • पीएम केयर फंड से कोविड के कारण निराश्रित हुए बच्चों को निश्शुल्क शिक्षा
  • दिल्ली, हरियाणा, झारखंड, ओडिशा, उत्तराखंड एवं छत्तीसगढ़ में 11 से 18 वर्ष की लड़कियों के बीच किए गए सर्वे में 13 फीसद ने कहा कि महामारी के दौरान उनका यौन शोषण हुआ
  • 17 फीसद बच्चों ने बताया कि उन्हें अपने पड़ोस में बाल विवाह होने की जानकारी है
  • 19 फीसद बच्चों ने कहा कि उनके भाई-बहन मजदूरी करने को मजबूर हैं
  • 41 फीसद किशोर लड़कियों ने तनाव एवं अवसाद होने की शिकायत की
  • 55 फीसद बच्चियों ने बताया कि लाकडाउन के दौरान उन्हें अपने परिवार में लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ा

(स्रोत-प्रोत्साहन इंडिया फाउंडेशन, दिल्ली)

मिलकर करना होगा काम दिल्ली के प्रोत्साहन इंडिया फाउंडेशन की संस्थापक निदेशक सोनल कपूर ने बताया कि ऐसे बच्चे, जिन्होंने माता-पिता दोनों या किसी एक अभिभावक को कोविड के कारण खो दिया, उन्हें तत्काल शेल्टर होम्स या अनाथालयों आदि में भेजने की बात हो रही है या लोग गोद लेने के लिए आगे आने लग रहे हैं। मेरा मानना है कि ऐसे हर बच्चे को शेल्टर होम भेजने या उसे गोद लिए जाने की आवश्यकता नहीं है। उनके करीबी रिश्तेदार बच्चों की परवरिश कर सकते हैं यानी पूरी जांच-परख के बाद बच्चों को उनके रिश्तेदारों के सुपुर्द करने में कोई हर्ज नहीं है। ऐसे में सरकार या सिविल सोसायटी (स्वयंसेवी संगठनों) इन लोगों के सहयोग के लिए आगे आ सकती है। इसके अतिरिक्त बाल संरक्षण मुद्दे पर व्यावहारिक नजरिए के साथ समग्रता में विचार करना होगा, न कि एक खास ढांचे में। भावुकता में आकर कोई भी फैसला लेने से बचना होगा। तात्कालिक की बजाय दीर्घकालिक समाधान निकालना होगा।

मानसिक युद्ध के खिलाफ जंग गुरुग्राम के बड फाउंडेशन की संस्थापक दिव्या वैष्णव ने बताया कि इन दिनों बढ़े घरेलू हिंसा के मामलों का असर बच्चों पर गहरा पड़ा है। बच्चों में पहले से मौजूद मानसिक समस्याओं को कोविड-19 ने और विकराल बना दिया है। विशेषकर उनकी शिक्षा काफी प्रभावित हुई है। प्रवासी मजदूरों के गांव वापस जाने से उनके बच्चों की स्थिति और भी गंभीर है। उनकी पढ़ाई बिल्कुल छूट गई है। वहीं, मध्यम आयवर्गीय परिवारों के शहरी बच्चे अलग मानसिक लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में हम सामुदायिक रेडियो एवं अन्य आनलाइन माध्यमों से बाल यौन शोषण, मानसिक स्वास्थ्य, साइबर बुलिंग जैसे मुद्दों पर बात करते हैं। बच्चों को कहानियों के माध्यम से जागरूक व उनकी काउंसलिंग करते हैं। अभिभावकों से भी अपील करते हैं कि वे बच्चों की पढ़ाई जारी रखने का हरसंभव प्रयास करें।

वैध तरीके से हो एडाप्शन मयूर विहार के सीडब्ल्यूसी-4 के लीगल सर्विस एक्सपर्ट हरदेव ने बताया कि देश में किसी बच्चे को सेंट्रल एडाप्शन रिसर्च एजेंसी (कारा) के नियमों के तहत ही गोद लिया जा सकता है। यह प्रक्रिया कोर्ट द्वारा पूरी की जाती है। अगर किसी के सामने कोविड-19 की दूसरी लहर में निराश्रित हुआ बच्चा आता है, तो उन्हें सबसे पहले पुलिस, चाइल्ड हेल्पलाइन (1098) या जिले में बाल कल्याण समिति को सूचना देनी होगी। समिति उचित जांच-परख के बाद किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल व संरक्षण) अधिनियम (जेजे एक्ट) के तहत बच्चे को शेल्टर होम भेजेगी। अगर कोई रिश्तेदार बच्चे को ले जाना चाहे, तो उन्हें सोशल इंवेस्टिगेटिंग रिपोर्ट देनी होती है। इन दिनों जिस तरह से इंटरनेट मीडिया पर लोगों द्वारा ऐसे बच्चों की जानकारी शेयर हो रही है, इससे चाइल्ड ट्रैफिकिंग का खतरा बढ़ सकता है। जरूरी है कि चाइल्ड हेल्पलाइन के साथ-साथ बच्चों के लिए काम कर रहे स्वैच्छिक संगठन एवं डिस्ट्रिक्ट चाइल्ड प्रोटेक्शन यूनिट्स लोगों को इस मुद्दे पर जागरूक करें।

महामारी ने धीमी की चाल मुंबई के प्रेरणा सहायक निदेशक कशीना करीम ने बताया कि हम बाल यौन शोषण, तस्करी के शिकार एवं भिक्षावृत्ति से जुड़े बच्चों के पुनर्वास को लेकर कई वर्षों से काम कर रहे हैं। महामारी के बाद से रेस्क्यू आपरेशन धीमा पड़ा है। लैंगिक हिंसा से जुड़े वही केस पुलिस या बाल कल्याण समिति तक पहुंच रहे हैं, जहां पीडि़त सीधे शिकायत दर्ज कर रहे हैं। कोविड महामारी के कारण सिविल सोसायटी या सामाजिक संगठनों द्वारा जो आउटरीच प्रोग्राम चलाया जाता था, उसमें दिक्कतें आ रही हैं। हालांकि, हम उन बच्चों के साथ लगातार संपर्क में हैं, जिन्हें पहले ही रेस्क्यू कर बाल गृह या फिर उनके अपने घर भेज दिया गया है। हम उनकी काउंसलिंग करते हैं, ताकि वे दोबारा लैंगिक या किसी अन्य शोषण के शिकार न हों। इसके लिए, उनके परिवारों को राशन व अन्य आर्थिक सहायता मुहैया कराई जाती है। इसके अलावा 'चाइल्डफ्रेंडलीमुंबईÓ अभियान के तहत बाल तस्करी को लेकर जागरूकता लाने की कोशिश भी की जा रही है, ताकि गैर-कानूनी एडाप्शन को रोका जा सके।